डियर जिंदगी: माता-पिता का `सुख` चुनते हुए...
हम कैसे मान लेते हैं कि माता-पिता का पूरा जीवन केवल बच्चों के समीप ही बुना होना चाहिए. माता पिता का अपना कोई सुख, अपनी कोई दुनिया हमारी समझ से भी कोसों दूर लगती है.
माता-पिता बच्चों के साथ रहते हुए अधिक सुरक्षित हैं या अपनी हवा में सांस लेते हुए, आजादी के साथ जिंदगी के उन पलों को बिताते हुए जहां उत्तरदायित्व और जिम्मेदारियां काफी हद तक कम हो जाती हैं! 'डियर ज़िंदगी' और 'जीवन-संवाद' ऐसे अवसर प्रदान करते हैं, जहां संवाद से संकोच और दुविधा के पट धीरे धीरे बंद हो जाते हैं. जीवन ऐसे आंगन की ओर खुल जाता है, जहां एक ऐसा द्वार हमारी प्रतीक्षा में हमेशा से था, लेकिन हमें पहले दिखता ही नहीं था.
वह अंकल हमारे अपार्टमेंट में ही रहते हैं. एक दिन यूं ही टहलते हुए मुलाकात हुई. उन्होंने बताया कि उनके पिता लखनऊ हाई कोर्ट में जज थे. वह लखनऊ हाई कोर्ट में वकील रह चुके हैं. लखनऊ में उनके पास अच्छी खासी संपत्ति है. एक ही बेटा है, जो नोएडा में आईटी इंजीनियर है, बहू भी इसी पेशे में है. बेटा-बहू नोएडा में रहना चाहते हैं, क्योंकि करियर यहीं है, इसलिए वह और उनकी पत्नी नोएडा रहने चले आए.
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उम्र यही कोई साठ के आस-पास. पति-पत्नी दोनों खुशमिजाज, सेहतमंद हैं. लेकिन वह मुझे कुछ परेशान लग रहे थे. संवाद शुरू हुआ तो मन की परतों को पार करता हुआ वह ऐसे एकांत मोड़ पर जाकर खत्म हुआ, जिसे सुनने-समझने और महसूस करने के लिए बहुत तो नहीं पर थोड़ी संवेदनशीलता की जरूरत होती है.
हम कैसे मान लेते हैं कि माता-पिता का पूरा जीवन केवल बच्चों के समीप ही बुना होना चाहिए. माता-पिता का अपना कोई सुख, अपनी कोई दुनिया हमारी समझ से भी कोसों दूर लगती है. लखनऊ में वह मजे से रह रहे थे, लेकिन उनको और उनकी पत्नी को समझाया गया कि अकेले रहना ठीक नहीं. अच्छा वाला मकान था जो उनकी यादों और सुख-दुख का 'ताजमहल' था, उसे ' इमोशनल अत्याचार' के तहत बिकवा दिया गया. सुरक्षा, बच्चों का साथ और उनके करियर का ऐसा जाल बुना गया, जिसमें एक ही बात समझ में आई कि बच्चे तो बार-बार आ जा नहीं सकते, इसलिए आप ही उनके पास जाकर रहें.
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यह हमारे समाज और समय की एक ऐसी' उलटबांसी' है, जिसमें बुजुर्गों की पूरी दुनिया उलट-पुलट होती जा रही है. हम उनको, उनकी चेतना को केवल और केवल खुद से जोड़े बैठे हैं. उनकी पसंद, चित्त के आनंद और मन के रमने को हम लगभग भूलते जा रहे हैं. यह कुछ कुछ ऐसा है कि आप जंगल से अपने प्रिय परिंदों को इसलिए अपने आलीशान, भव्य लेकिन नकली 'पार्क' में रखना चाहते हैं, जिससे जंगल का सारा मनोरम आपके पास रहे. आपकी सुविधा, चाहत के अनुसार रहे.
बड़ों की पूरी दुनिया अपने गांव से ही नहीं, छोटे शहरों से सिमटते, कटते हुए केवल माचिस की तीलियों जैसे, मुर्गी के दड़बों जैसे घरों मैं कैद होती जा रही है. हम माता-पिता, बड़े बुजुर्गों के स्वादानुसार नमक की जगह अपना स्वाद उन पर थोप रहे हैं.
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दुनियाभर में के शोध बताते हैं कि विस्थापन चाहे जिस वजह से हो, वह हमारे चेतन और अवचेतन मन पर हानिकारक असर डालता है. सवाल और चिंता इस बात पर नहीं होनी चाहिए कि किसी के लिए क्या अच्छा है, बल्कि यह भी किसी कोने में रहना चाहिए कि उसका 'सुख 'कहां है.
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हम अपने सुख की चादर बड़ी करने के फेर में अपनों की ही चादर काटते और उधेड़ते चले जाते हैं. इससे उनके मन के भीतर कुछ ऐसे मैल की परत जमती चली जाती जाती है, जो कभी गहरी उदासी, अकेलेपन, तो कभी तनाव और डिप्रेशन के रूप में सामने आती है. इसलिए, अपना सुख तो चुनिए, लेकिन किस कीमत पर यह चुना जा रहा है इसके प्रति जरूर सजग रहें.
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