'डियर जिंदगी' में बच्‍चों पर हम विस्‍तार से बात कर रहे हैं. बच्‍चों के तनाव, उनकी चुनौतियों के साथ अब तक हमने परवरिश के आयाम और आत्‍महत्‍या के खतरे पर भी बात की है. आज एक बार फि‍र हम बच्‍चों से बात कर रहे हैं क्‍योंकि 'डियर जिंदगी' के अनेक पाठकों ने इस पर संवाद के लिए लिखा, कहा है.


COMMERCIAL BREAK
SCROLL TO CONTINUE READING

बीकानेर से नेहा राठौर लिखती हैं, 'बच्‍चों को समझाना बहुत मुश्किल है. उनके सामने अक्‍सर हारना होता है.' इसी तरह इंदौर से राजेश अग्रवाल लिखते हैं, 'मैं हमेशा इस बात से चिंतित रहता हूं कि बेटा किसी भी चीज के लिए मना करने पर तनाव में न आ जाए. आजकल बच्‍चे जरा-जरा सी बात पर दुखी हो जाते हैं. अपसेट हो जाते हैं. हम क्‍या करें'. कुछ इसी तरह की चिंता साझा करते हुए लखनऊ से शायदा खान ने कहा, 'हम बच्‍चों की ना से कैसे निपटें'.


इस तरह की चिंताएं बेहद बढ़ती जा रही हैं. ये सामान्‍य इस अर्थ में हैं कि हर जगह एक जैसे प्रश्‍न हैं. लेकिन मुश्किल इसलिए है, क्‍योंकि एक समाज के तौर पर हम इनसे निपटने में सक्षम नहीं हैं. ऐसे समय में जब माता-पिता दोनों कामकाजी हैं, बच्‍चे की कौन-सी बात मानी जाए, कौन-सी न मानी जाए. इस पर निरंतर मतभेद बढ़ रहा है.


जिंदगी इस गति, तरक्‍की की दौड़ में इतनी उलझी है कि बच्‍चों को समझाने, उनकी 'जिद' को सुलझाने की बात तो दूर हमारे पास बच्‍चों के पास पल दो पल बैठने तक की फुरसत नहीं है.


यह भी पढ़ें- डियर जिंदगी : जिंदगी में 'बाजार' का दखल और हम...


हम बच्‍चों को 'ना' कहने से इस कदर डरने लगे हैं, कि उनकी जिद और जरूरत में अंतर करना भूलते जा रहे हैं. जबकि हमारे माता-पिता ने शायद यह बात बहुत अच्‍छे से हमें समझाई थी. अभी कुछ ही दिन पुरानी बात है. मैं अपने परिवार के साथ खरीदारी कर रहा था. इसी दौरान भाई ने अचानक कहा, 'पापा, याद है, जब मैं छोटा था, आपसे महंगे जूतों के लिए एक बार दुकान में ही कितनी जिद करने लगा था.' मेरे भाई की भाभी ने कहा, 'तो क्‍या बाबूजी ने वह जूते दिलाए थे.' 'नहीं'- भाई ने कुछ गहरी सांस लेते हुए कहा, 'असल में तब समझ में कहां आता था. लेकिन पापा ने फि‍र भी समझा दिया था कि अभी बजट में नहीं है. कुछ बुरा लगा था, लेकिन बाद में बात समझ में आ गई थी.'


मेरे विचार में बच्‍चे जितनी जल्‍दी बजट को समझने लगेंगे. उतना बच्‍चों के साथ तालमेल बेहतर होता जाएगा. अगर वह इतने छोटे हैं कि केवल जिद कर सकते हैं, तो उन्‍हें समझाने के लिए थोड़ा ज्‍यादा समय दीजिए. लेकिन किसी भी स्‍थि‍ति में उनके सामने आत्‍मसर्पण मत कीजिए. आज की जिद कल बच्‍चों को ही सबसे अधिक भारी पड़ेगी.


यह भी पढ़ें- डियर जिंदगी : आपका नजरिया कितना स्‍वतंत्र है…


मैं यह सवाल अक्‍सर खुद से करता हूं कि क्‍या मैं अपने बच्‍चों को बजट वाली बात अच्‍छे से समझा पा रहा हूं. मुझे लगता है कि हमारी उम्र के नए-नए माता-पिता 'जरूरत और जिद' में सही अंतर नहीं कर पा रहे हैं. हम कई बार इस उलझन में रहते हैं कि बच्‍चा क्‍या सोचेगा. अगर बच्‍चे को एक बार यह आदत लग जाए कि उसके माता-पिता का मूल्‍यांकन वह उसे मिलने वाली सुविधाओं के आधार पर करेगा, तो यकीन मानिए, यह कम से कम उसके लिए तो अच्‍छा नहीं है.


हर बच्‍चे को यह पता होना जरूरी है कि उसके घर की 'चादर' कितनी बड़ी है और हर माता-पिता को यह समझना जरूरी है कि वह बच्‍चे को हमेशा 'हां' कहने के लिए नहीं बने हैं.


हमें याद रखना चाहिए कि हमारी भूमिका क्‍या है. बच्‍चों को लेकर आर्थिक रूप से खुद पर बोझ डालते जाने, दबाव बढ़ाने से कहीं अधिक बेहतर है, अपनी जिम्‍मेदारी को सही अर्थों में समझना. हमें बच्‍चों पर अपने हक के बारे में पुनर्विचार की जरूरत है.


ओशो ने बड़ी खूबसूरत बात कही है, 'हम बच्‍चों के मालिक नहीं, केवल ट्रस्‍टी हैं! संरक्षक होने के नाते हमारी भूमिका माली जैसी होनी चाहिए जो बाग की सेवा करता है, फूलों को खिलने की आजादी के साथ खाद-पानी देता है, लेकिन हक का दावा नहीं करता.'


सभी लेख पढ़ने के लिए क्लिक करें : डियर जिंदगी


(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)


(https://twitter.com/dayashankarmi)


(अपने सवाल और सुझाव इनबॉक्‍स में साझा करें: https://www.facebook.com/dayashankar.mishra.54)