उम्र अस्‍सी पार. बच्‍चों से लेकर युवा तक सब उनके सखा. भारत में आने वाली ताजा किताबों से लेकर सोशल मीडिया के हर नए टूल तक उनकी पहुंच है. वह मेरी एक मित्र के पिता हैं. उन्‍हें अपने बारे में बात करना पसंद नहीं, इसलिए उनका नाम नहीं लिया जा रहा. बस, उनके गुण साझा करने की कोशिश है.


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वह हर दिन नियमित रूप से कम से कम तीन घंटे पढ़ते हैं. संगीत, अध्‍ययन, सेहत को उतना महत्‍व देते हैं, जितना किसी युवा को देना चाहिए. एक दिन उनकी पोती ने उनसे पूछा, ‘आप इतना क्‍यों पढ़ते, सोचते हैं, अब आपको क्‍या करना है, पढ़ लिखकर!’


उन्होंने कहा, ‘मुझे नौकरी नहीं करनी, लेकिन मैं अपने दिमाग को एक जगह कैसे थमने दे सकता हूं. दूसरे, मैं अपने दिमाग, मन और सोच को प्रकृति के साथ बांटना चाहता हूं. जिंदगी को किसी के होने भर से जोड़कर मत देखो. यह समझने की कोशिश करो कि जिंदगी निरंतर सफर है, मंजिल नहीं. सफर में तो हमेशा तैयार रहना ही होता है. इसलिए हमेशा खुद को तैयार रखें!’


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इस तरह की सोच के कारण ही संभवत: चीन में किसी बुजुर्ग के नहीं रहने पर कहा जाता है, ‘लाइब्रेरी जलकर राख हो गई!’ यह हमारा कैसा निर्णय है कि हम अपनी ‘लाइब्रेरी’ के प्रति निरंतर ‍निष्‍ठुर होते जा रहे हैं. 


महानगर तो छोड़िए छोटे-छोटे शहरों में बढ़ते, बनते बुजुर्ग अनाथालय, आनंदधाम इसकी सहज पुष्टि करते हैं.


बुजुर्गों को किनारे करते जाने का सबसे बड़ा कारण यह भी है कि हम जीवन को मंजिल मान बैठे हैं, जबकि वह केवल सफर है. एक जीवन में करने को कितना कुछ है, लेकिन हम कितना कर पाते हैं! हमारी सोच, सपने के साकार होने के लिए एक अकेला जीवन काफी नहीं है. एक अकेले हम काफी नहीं हैं. जीवन इसलिए अकेला नहीं, उसका सारांश साथ में है. जीवन असल में सह-जीवन है. दूसरों के साथ समन्‍वय है.


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यह अकेले भारत की समस्‍या नहीं है. विदेश, यूरोप के अनेक देशों में बुजुर्ग निरंतर अकेले पड़ते जा रहे हैं. क्‍योंकि वहां बुजुर्ग परिवार नहीं सरकार की जिम्‍मेदारी हैं. नार्वे से एक मित्र ने बताया कि यहां युवा कॉलेज में पहुंचते ही, उसके पड़ाव को पार करते ही अपने लिए नई दुनिया बसा लेते हैं. बुजुर्गों के पास बड़ा घर, सुविधाएं हो सकती हैं, लेकिन साथ नहीं. होता यह है कि बीमार बुजुर्ग का साथ अगर जीवन छोड़ देता है, तो इसकी खबर तब जाकर मिलती है, जब डाकिया किसी पोस्‍ट के लिए उनके हस्‍ताक्षर चाहता है लेकिन दस्‍तक के बाद भी दरवाजा नहीं खुलता तो वह प्रशासन को इसकी सूचना देता है.


जरा ध्‍यान से, ठहरकर सोचिए तो वजह आसानी से मिल जाएगी. यह वही कारण है, जिसकी सबसे पहले बात की गई- ‘जिंदगी सफर है, मंजिल नहीं. जबकि हम जिंदगी को मंजिल मान बैठे हैं.’


अरे! अब हमारी तो उम्र हो गई, अरे हम तो रिटायर हो गए! इसमें खुद को धन मशीन मानने, समझने का जो गहरा भाव है, वही समस्‍या है. 


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अपने अस्तित्‍व को हमने नौकरी, बैंक बैंलेंस के खूंटे से बांधकर रख दिया है. जीवन का सारा बोध हमने उसे ‘मंजिल’ की रस्‍सी से बांधकर संकुचित कर दिया.


तो अब किया क्‍या जाए! जो नुकसान होना था, हो चुका. अब हमें एक नवीन जीवन दृष्टि की ओर बढ़ने की जरूरत है. बुजुर्गों को बच्‍चों के प्रति नजरिए को अपडेट करने और बच्‍चों को उनके प्रति दृष्टिकोण को अधिक समावेशी बनाने की दरकार है.


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माता-पिता परिवार का अभिन्‍न अंग हैं. उन्‍हें उम्र को सफर के नजरिए से देखना होगा, मंजिल के नजरिए, रवैए से नहीं. यह बात इसलिए भी जरूरी है कि आज हम भले ही सबसे युवा होने के दावे से इतराते रहें, लेकिन बीस साल बाद! हम सबसे बुजुर्ग देश होने की तरफ भी तो बढ़ेंगे. अगर इस कल्‍चर को अभी नहीं सुधारा गया तो यह किसी और को नहीं, सबसे अधिक हमें ही कष्‍ट देने वाला होगा!


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