डियर जिंदगी : कितना ‘सहते’ हैं हम
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डियर जिंदगी : कितना ‘सहते’ हैं हम

जिंदगी वन-वे ट्रैफिक नहीं है. जहां सड़क ठीक मिले तो आपको मनचाही गति मिल जाती है. दूसरे के कहीं और से ‘प्रवेश’ की चिंता नहीं होती. बस अपनी ड्राइविंग पर ध्‍यान लगाकर मंजिल तक पहुंचा जा सकता है!

डियर जिंदगी : कितना ‘सहते’ हैं हम

‘सुनता तो मैं अपने पिताजी की भी, नहीं! मेरे लिए किसी को बर्दाश्‍त करना संभव नहीं.’ इस तरह के वाक्‍य पहले भी लोकप्रिय थे, लेकिन जैसे-जैसे हमारी सोच का दायरा छोटा होता जाता है, हम चीजों को और अधि‍क त्‍वरित (इंस्‍टेंट) नजरिए से देखने लगते हैं. हम चीजों,, घटनाओं पर संपूर्णता से बात करने की जगह उन्हें अपने नजरिए से देखने लगते हैं.

किसी किशोर, युवा होते बच्‍चे से इस तरह चीजों को बर्दाश्‍त न करने की बातें सुनना तो फिर भी ठीक है, लेकिन आखिर कब तक हम अपरिपक्‍व (इमैच्‍योर) बिहेवियर करते रहेंगे. हमारे स्‍कूल और समाज असल में एक जगह चिपक, ठहर, थम गए हैं. दोनों के सोचने-समझने की क्षमता जड़ता में बदल गई है. इनके पास अपने बच्‍चे, युवा और नागरिक को देने के लिए कोई नवीन दृष्टि नहीं है.

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जिंदगी वन-वे ट्रैफिक नहीं है. जहां सड़क ठीक मिले तो आपको मनचाही गति मिल जाती है. जहां दूसरे के कहीं और से ‘प्रवेश’ की चिंता नहीं होती. बस अपनी ड्राइविंग पर ध्‍यान लगाकर मंजिल तक पहुंचा जा सकता है!

बर्दाश्‍त\सहने की क्षमता का संबंध किसी दूसरे से न होकर सीधे तौर पर खुद हमसे है. हम निजी रिश्‍तों, प्रोफेशनल जिंदगी और यहां तक कि सड़क पर चलते हुए भी एक-दूसरे को कितना सहन करते हैं, इससे हमारे जीवन की दिशा तय होती है.

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इसलिए सहने का अभ्‍यास भी किसी अच्‍छी आदत की तरह ही करना होगा. पति-पत्‍नी के बीच कैसे छोटे-मोटे झगड़े अचानक बड़े मनमुटाव का रूप ले लेते हैं, क्‍योंकि उनके बीच प्रेम, एक-दूसरे को सहने और समझने की जगह इस त‍रह के वाक्‍य, संवाद आ जाते हैं- ‘तुम क्‍या हो, मैंने तो जिंदगी में किसी को बर्दाश्‍त नहीं किया, मैं किसी की नहीं सुनता\सुनती.’ 

अगर घर में बच्‍चे हैं तो इस तरह की बातें धीरे-धीरे उनके ‘डीएनए’ में शामिल होने लगती हैं. उनके व्‍यवहार में दूसरे की किसी बात, व्‍यवहार को सहना लगभग असंभव होता जाता है.

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पिछले चार से पांच साल में मुझे बड़ी संख्‍या में युवाओं, बच्‍चों से बात करने, उनका इंटरव्‍यू करने का मौका मिला है. इस तरह मैंने पाया कि बहुत कम युवा ऐसे हैं, जो ‘टीम कल्‍चर’ को समझते हैं. एक-दूसरे को ‘बर्दाश्‍त’ करने की क्षमता रखते हैं. बर्दाश्‍त करने की बात को ऐसे समझिए कि कोई चीज आपको पसंद नहीं है, लेकिन आपके जीवनसाथी, मित्र, सहकर्मी को प्रिय है. तो आप उसके लिए कितनी जगह देते हैं.

मिसाल के लिए, मुझे मांसाहारी भोजन, बॉलीवुड की करण जौहर इफेक्‍ट से भरपूर फि‍ल्‍में पसंद नहीं. लेकिन मेरे अलग-अलग मित्र ऐसे हैं,जो दोनों के बिना नहीं रह सकते. तो मुझे दोनों के लिए रास्‍ता निकालना होगा. इस प्रक्रिया में मुझे कुछ असुविधा होगी. इस असुविधा को उठाने की क्षमता का नाम ही वास्‍तव में सहन करने की क्षमता है.

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मनुष्‍य जीवन पर किए गए शोध बताते हैं कि जैसे ही हम अपनी बर्दाश्‍त करने की क्षमता को सहृदयता से स्‍वीाकर करने लगते हैं, हमारे जीवन का नजरिया बदल जाता है. ऐसा करके हम कहीं अधिक स्‍नेहिल, प्रेम करने वाले और खुद के लिए नए दरवाजे खोलने वाले बन जाते हैं. यहां बस इतना कहना जरूरी है कि सहन, बर्दाश्‍त करने की बात विशुद्ध रूप से मानवीय रिश्‍तों, समझ से संबंधित है. इसका संबंध किसी भी रूप में अन्‍याय, सामाजिक कुरीति, अत्‍याचार से नहीं जोड़ना चाहिए.

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