जरा याद कीजिए, आपने थोड़ा सा बुखार होते ही डॉक्‍टर को दिखाने में कब देरी की थी. अपने किसी परिचित की तबियत खराब होने पर उसकी कितनी देर तक खोज खबर नहीं ली थी. बहुत संभावना है कि दोनों ही बातों में 'नहीं' आए, क्‍योंकि जैसे ही हम सुनते हैं कोई बीमाार है, हम तुरंत उसकी मदद को दौड़ पड़ते हैं. दौड़ना ही चाहिए.


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इसमें कुछ असहज नहीं है. अगर कुछ गड़बड़ है तो बस यही कि भारत में सारी सक्रियता केवल ‘शरीर’ की है. जबकि हमारा रिमोट कंट्रोल शरीर में न होकर दिमाग\मन\दिल के पास है. 


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दुनियाभर में हो रहे रिसर्च बताते हैं कि हम पहले से कहीं अधिक मनोरोग के खतरे के नजदीक हैं. हमारा मन और दिमाग अवसाद, गहरी उदासी और डिप्रेशन के कहीं अधिक नजदीक है. 


ब्रिटेन, अमेरिका में मनुष्‍य के मन को समझने की कहीं अधिक सक्रियता दिख रही है. वहां केवल ‘आनंद’ मंत्रालय बनाने की बात नहीं हो रही, बल्कि मनुष्‍य के भीतर बढ़ते अवसाद को सरकार, समाज गहराई से समझने लगे हैं. वहां आने-जाने वाले मित्रों का कहना है कि वहां काउंसलिंग, मनोचिकित्‍सक से मिलने को एकदम सहजता से स्‍वीकार किया जाने लगा है.


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जबकि एक समाज के रूप में भारतीय मनोरोग के बहुत नजदीक पहुंचते जा रहे हैं लेकिन मनोचिकित्‍सक तक उनको ले जाना किसी ‘माउंट एवरेस्‍ट’ की यात्रा जैसा है.


हम खुद का ‘रिव्‍यू’ करने से बहुत दूर हैं. जो चीजें, रिश्‍ते हमें रात-दिन चुभते र‍हते हैं, उनके बारे में ‘दो टूक’ निर्णय लेने की जगह हम सारी उम्र उनके आसपास भटकते हुए गुजार देते हैं.


हम स्‍वयं के भीतर झांकने और खुद को समझने से मीलों दूर हैं. कितनी मजेदार बात है कि हम दूसरों के बारे में बहुत जल्‍दी राय बना लेते हैं. खुद को न जाने कितने विषय, व्‍यक्तियों का विशेषज्ञ मानते रहते हैं. बस, अपने भीतर झांकने की कोशिश नहीं करते.


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कुछ दिन पहले मैं ‘डियर जिंदगी’ की एक ताजा-ताजा पाठक से मिला. कोई पच्‍चीस बरस की लेखिका ने बताया कि उनका एक दोस्‍त दो बरस से खुद से जूझ रहा है. उन्होंने कहा, ‘मैं उससे कब से कह रही हूं कि मनोचिकित्‍सक के पास जाए. उसे उन सवालों को सुलझाने की जरूरत है, जो उसे हर दिन अकेला करते जा रहे हैं. लेकिन वह सुनता ही नहीं.’


मैंने उन्‍हें टोकते हुए, कहा, ‘दो साल! आप उन्‍हें जबरन क्‍यों नहीं ले जातीं. अगर वह शरीर से बीमार होते तो आप क्‍या करतीं.’ उनके पास इसका कोई स्‍पष्‍ट उत्‍तर नहीं था. जो आज अधिकांश भारतीयों के पास भी नहीं है.


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हमने अपनी सारी प्रियोरिटी शरीर के आसपास सीमित कर दी है. अपने प्रियजनों की चिंता, फिक्र को हमने शरीर तक सीमित रखा है. जबकि आए दिन हो रहीं आत्‍महत्‍या, उसकी कोशिश और गुमसुम ‘बीमार’ होते लोग कुछ और ही इशारा कर रहे हैं.


आइए, हम सब मिलकर कोशिश करें. सबसे पहले परिवार से. उसके बाद दोस्‍त, आफिस, कॉलोनी को इस दायरे में लाएं. मन, दिमाग में आए विकार, चिंता और तनाव को आत्‍मा तक पहुंचने से पहले काबू करें.


जब भी अपने प्रियजन को चिंत‍ित देंखे, तो उसकी चिंता, मन की दुविधा को अनदेखा न करें. उसे समझने की विनम्र कोशिश करें. उसे समय दें. स्‍नेह दें. प्रेम दें.


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जब चीजें न समझ में आएं तो कबीर की ओर देखें. वह तो बहुत पहले ही थोड़ा ठहरकर, थमकर, उतरकर जानने, समझने को कह गए हैं…


जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठ
मैं बौरी खोजन चली, गई किनारे बैठ!


अपनों को बचाए रखें, संवारने और सुखी रखने के लिए उनके भीतर झांकना, उनको बूझना बहुत जरूरी हो गया है.


आशा है, आप जल्‍द कोशिश शुरू कर देंगे …


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(लेखक ज़ी न्यूज़ के डिजिटल एडिटर हैं)


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