बच्‍चे के जन्‍म के समय सबका ध्‍यान इस बात में रहता है कि ‘बच्‍चा, रोया कि नहीं.’ अगर किसी कारण से वह स्‍वाभाविक रूप से नहीं रो पाता, तो डॉक्‍टर उसे रुलाने की कोशिश करते हैं. ऐसा इसलिए क्‍योंकि गर्भ में बच्‍चे की सांसे गर्भनाल के माध्यम से सुचारू रूप से चलती रहती हैं, लेकिन बाहर आने के बाद उसे सांस लेने का स्‍वयं से प्रयास शुरू करना होता है. डॉक्‍टर इसलिए रुलाते हैं ताकि उसके फेफड़े सक्रिय हो जाएं और स्‍वांस नली का रास्‍ता खुल जाए. तो इस तरह आंसू हमारे जीवन का आधार बनते हैं.


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यहां ‘रोना’ कितना वैज्ञानिक है, वह दुख से मुक्‍त होकर जीवन के मार्ग पर जाने की प्रक्रिया है. जैसे-जैसे हम बड़े होते जाते हैं, इस सरल विज्ञान से दूर होते जाते हैं. हम दूसरों के ‘आंसू’ देखकर सुखी होने लगते हैं. दूसरों के दुख में रस लेने लगते हैं. कहीं से पता चल जाए कि कोई परेशान है, उसके जीवन में कुछ ऐसा घट रहा है कि वह असहज है, तो हमें रस मिलने लगता है.


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हमारा यह स्‍वभाव कुछ-कुछ हरिशंकर परसाई के ‘निर्दोष’ मिथ्‍यावादी की तरह होता जाता है. ‘निर्दोष’ मिथ्‍यावादी ऐसे लोग हैं, जो अकारण ही झूठ बोलने लगते हैं. धीरे-धीरे एक-दूसरे की देखा-देखी. आगे चलकर उन्‍हें इसमें खूब मजा आने लगता है. इन्‍हें ‘सही’ की जगह झूठ बोलने में रस मिलने लगता है. यह रस आगे चलकर आनंद में बदल जाता है.


ठीक इसी तरह हमारे एक बार दुखी रहने का निर्णय लेते ही हम ‘निर्दोष’ दुखी होते जाते हैं. यानी बिना किसी के ‘दोष’ के. रोजमर्रा की छोटी-छोटी बातों, चीजों में हम दुख तलाशने निकल जाते हैं. तलाशने से क्‍या नहीं मिलता, तो ऐसे में दुख नहीं मिलेगा, इसकी संभावना बहुत कम होती है.


'निर्दोष' दुख का एक ‘आधुनिक’ किस्‍सा कल एक रेडियो स्‍टेशन पर सुना. आरजे ने बताया कि पूरी दुनिया में युवा जिन बातों से दुखी हैं, परेशां हैं, उनमें से एक यह भी है कि उनका ‘ब्रेकअप’ नहीं हो पा रहा है. अब युवा इस बात से तनाव में हैं कि ‘ब्रेकअप’ नहीं हो रहा.


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आइए, समझें कि कैसे दुखी रहने का निर्णय अधिकांश समय हम खुद करते हैं...


1. एक मित्र को आईएएस में जाने का बड़ा अरमान था. वह उसके लिए नहीं चुने गए, इस बात से आज तक मुक्‍त नहीं हो पाए. उनके व्‍यवहार में आईएएस अफसर वाली कथित ठसक है, जो कुछ और नहीं असल में कसक, कुंठा से निकली है.


2. आज यह मित्र एक अच्‍छी मल्‍टीनेशनल कंपनी में कार्यरत हैं, लेकिन सुखी नहीं. हर दूसरी बात में सिस्‍टम में मौजूद भ्रष्‍टाचार, भेदभाव का राग अलापते रहते हैं. जबकि इनकी यह नौकरी खुद उन्‍हें उनके चाचाजी की बदौलत मिली है. है, ना कमाल की बात!


3. एक मित्र को कॉलेज के दिनों में प्रेम हो गया. उसके बाद दस बरस तक यह चला. वह न तो शादी करते, न रिश्‍ते से बाहर आते. एक दिन लड़की ने इन सबसे तंग आकर शादी करने का निर्णय ले लिया. वह आज तक ‘दुखी’ हैं. जबकि उन्होंने भी शादी कर ली. यह ओढ़े हुए दुख हैं. इससे हमारे परिवार,समाज को दुख का माहौल मिलता है. स्‍वस्‍थ समाज नहीं, यह ओढ़ा हुआ दुख जीवन पर मकड़जाल की तरह छाया रहता है.


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कुछ मिला तो कम मिला! नहीं मिला तो क्‍यों नहीं मिला. मिला तो और बेहतर क्‍यों नहीं. हम संपूर्ण ऊर्जा से दुख की अमरबेल से लिपटे हुए हैं. चिपके हुए हैं.


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इसलिए, कैसे भी अपने आत्‍ममूल्‍यांकन (रिव्‍यू) के लिए समय निकालिए. यह रिव्‍यू आपको ओढ़े हुए दुखों से मुक्‍त होने में बहुत मदद करेगा. दूसरों के नाम पर, दूसरों के लिए दुख सहते-सहते हमारा दुखी रहने  का अभ्‍यास इतना पुराना हो गया है कि इससे बाहर आना आसान नहीं है, लेकिन कभी न कभी तो इसकी शुरुआत करनी ही होगी.


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