डियर जिंदगी : ‘अनुभव’ को संभालना कैसे है…
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डियर जिंदगी : ‘अनुभव’ को संभालना कैसे है…

हमने सुख-दुख, जीवन के अनुभवों को ‘एक्‍सक्‍लूसिव’ मान लिया, जबकि यह जीवन के सामान्‍य राग हैं. इनमें कुछ भी विशेष नहीं. हमें इनका साक्षी बनकर जीवन जीना है, इनका चौकीदार बनकर नहीं.

डियर जिंदगी : ‘अनुभव’ को संभालना कैसे है…

आप कितने भी व्‍यस्‍त न हों, लेकिन कभी न कभी तो किसी पेड़ के नीचे बैठे ही होंगे. कभी थकान मिटाने के लिए तो कभी सुकून के लिए. कभी यूं ही टहलने के लिए गए होंगे तो मन हुआ होगा कि चलिए यहां प्रकृति के साथ हो लिया जाए. इस बात की भी पूरी उम्‍मीद है कि आपने एक ही पेड़ को अलग-अलग मौसम में भी देखा होगा.

इसके मायने यह हुए कि आपने उसे हर ऋतु, मौसम का सामना करते देखा है. दरख्‍त कैसे हर चीज का सामना मधुरता, प्रेम, स्‍नेह से करते है. कैसे वह अपने प्रिय पत्‍ते गिराते हैं. धीरे-धीरे. कैसे वह नए पत्‍तों को अपने अस्तित्‍व में समाहित करते हैं.  

वृक्ष कैसे कितनी आसानी से पुराने पत्‍तों से मुक्‍त होते हैं, नई कोपल को आश्रय देते हैं. आगे चलकर नई कोपलें मौसम का सामना करने में उसे सहयोग करती हैं. लेकिन जैसे ही पत्‍तों का समय पूरा होता है, पेड़ उसके त्‍याग के लिए तैयार हो जाता है और एक प्रक्रिया पूरी होने की ओर बढ़ जाती है.

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आप कह सकते हैं इसमें नया क्‍या है! यह तो प्रकृति का नियम है. सरल, सहज जीवन की राह है. जीवन यहीं तो आकर कला और विज्ञान दोनों का सुंदर साथ हो जाता है, लेकिन हम मनुष्‍यों ने जिनके आंगन में पेड़ जीवन की यह सब अठखेलियां करते रहते हैं. उनसे जीवन की सबसे खूबसूरत, वैज्ञानिक जीवन की कला नहीं सीखी.

हमने सुख-दुख, जीवन के अनुभवों को ‘एक्‍सक्‍लूसिव’ मान लिया. जबकि यह जीवन के सामान्‍य राग हैं. इनमें कुछ भी विशेष नहीं. इनमें कुछ भी विशेष नहीं. यह हमेशा से घटते आए हैं, घटते रहेगें. हमें इनका साक्षी बनकर जीवन जीना है, इनका चौकीदार बनकर नहीं.

ऐसे प्रसंग हम सबके जीवन में आते रहते हैं. सबसे बड़ी बात यह है कि कैसे उनसे निपटना है. कोई दस बरस पुरानी बात है. हम अपने घर पर किसी समस्‍या पर विचार कर रहे थे. मेरे छोटे भाई ने कहा, हम तीनों भाई हमेशा साथ रहेंगे. एक ही घर में हमेशा.

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पिताजी ने उस पर विनम्र टिप्‍पणी देते हुए कहा, ‘ऐसा बहुत मुश्किल है, क्‍योंकि कभी हम दोनों भाई भी ऐसा ही सोचते थे. लेकिन जीवन के अलग-अलग मोड़ पर मुड़ते हुए लगा कि साथ रहने से अधिक अच्‍छा है, प्रेम रहना. एक-दूसरे के प्रति आदर, स्‍नेह की डोर का कुशल रहना!’

भाई ने काफी तर्क दिए. लेकिन सही तो पिताजी का अनुभव, विश्‍लेषण ही निकला. मैंने उनसे सीखा कि कैसे जरूरत के समंदर में से बहुत जरूरी को चुनना है. कैसे निर्णय पर कायम रहना है और आसपास के बदलाव को समभाव से स्‍वीकार करना है.

जीवन में बढ़ते विज्ञान के दखल, करियर के कारण होते विस्‍थापन के बीच हमारे अनुभव का दायरा बहुत बड़ा होता जा रहा है. इसमें दूसरों से पिछड़ जाना, दूसरों के छल, धोखे का सामना करना. बिना किसी को कष्‍ट दिए हुए भी दुख का सामना करना सब सामान्‍य होता जा रहा है. इसलिए अनुभव के प्रति समभाव सबसे जरूरी तत्‍व हो गया है. इसे जीवनशैली बनाए बिना गुजारा नहीं होने वाला.

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परिवार, समाज और रिश्‍तों में आज सबसे बड़ा तनाव इसी बात को लेकर है कि हम निजी और प्रोफेशनल जिंदगी में होने वाले बदलाव के प्रति सहज, सरल नहीं हैं. हम परिवर्तन को एकमात्र स्‍थाई चीज कहते तो हैं, लेकिन इसे स्‍वीकारने से मीलों पीछे हैं.

चीजों का बदलना तय है. आप उसके हिसाब से नहीं बदलेंगे तो प्रकृति आपको कबाड़ में बदलने में जरा भी संकोच नहीं करेगी. प्रकृति के नियम स्‍पष्‍ट हैं. प्रकृति के शब्‍दकोश में कोई दुविधा, अनिर्णय और संकोच नहीं है. यह सब तो हमारे बनाए हुए शब्‍द, किए हुए निर्णय हैं.

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यकीन न हो तो आज ही अपने घर के सबसे सीनियर नागरिक, अपनी कॉलोनी मोहल्‍ले के सबसे पुराने दरख्‍त से इसकी पुष्टि कर सकते हैं. प्रेम, विरह, सुख-दुख, छोड़ना-मिलना यह नदी के तट हैं, जो सफर में है, उसके किनारे तो बदलते ही रहेंगे. अब यह आपको तय करना है कि आप नदी हैं या लहरों के आगे बढ़ जाने की शिकायत करते हुए किनारे!

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