तब तक ‘मुन्ना भाई एमबीबीएस’ नहीं आई थी, लेकिन गांधी के पास मेरे प्रश्न, तनाव और निर्णय लेने की क्षमता जैसे जटिल प्रश्न के सारे हल थे.
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अब तक ‘डियर जिंदगी’ को जो स्नेह, प्रेम और आत्मीयता मिली, उसने इसके विषय के चुनाव, रिसर्च और लेखन को संजीवनी देने का काम किया है. यह अब इतना नैसर्गिक, नियमित हो चुका है कि कई बार मुझे यकीन नहीं होता कि मैं हर दिन खबरों के तहखाने के बीच, न्यूजरूम के तमाम दबावों के बीच कैसे इसके लिए समय निकाल लेता हूं.
‘डियर जिंदगी’ का लेखन अब मेरे लिए बच्चों को स्कूल भेजने जैसा है. हर दिन माता-पिता कितनी ही देर से सोएं, कितने ही व्यस्त हों लेकिन समय पर बच्चे को स्कूल के लिए तैयार करना ही होता है. उसका होमवर्क करना, करवाना ही होता है.
ठीक इसी अनुशासन का पालन आपने मुझे सिखा दिया है. आज ‘डियर जिंदगी’ के 323वें एडिशन में यह सब कहने की जरूरत इसलिए है, क्योंकि पाठकों की बेहद आत्मीय, निजी प्रतिक्रियाओं के बीच सवाल भी इसी मिजाज के आए हैं.
कॉलोनी में शाम को टहलते हुए, ऑफिस में लंच ब्रेक, सोने से पहले, सुबह मेट्रो में आप ‘डियर जिंदगी’ पढ़ रहे हैं. उस पर बात कर रहे हैं और लिख रहे हैं.
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इस पठनीयता के बीच एक सबसे बड़ा सवाल आया है. जो आपसे साझा कर रहा हूं…
सवाल: कहना आसान है, लिखना आसान है. कमेंट करना आसान है, लेकिन तनाव, दुख और असुविधा का सामना करना मुश्किल है. आप बार-बार बातें करते हैं कि पेड़ से, प्रकृति से सीखिए. कैसे वह पत्तों, शाखाओं का प्रबंधन करती है. मन को मजबूत कीजिए, लेकिन असल में करना संभव नहीं!
उत्तर: आपने ठीक लिखा है कड़वी यादों का सामना करना सरल नहीं, बहुत मुश्किल है. एकदम सच है! क्योंकि जिंदगी आसान नहीं. जीवन एक संघर्ष है. हर कदम ऐसा लगता है कि मानो हम ऐसे चिकने फर्श पर चल रहे हैं, जिस पर पानी ऐसे पसरा है कि नजर ही नहीं आता.
लेकिन इसका सामना करना उतना मुश्किल नहीं है. इसलिए आज जरा ध्यान से सुनिए, ‘सुनो इतना मुश्किल भी नहीं है जीना’. हां, बस दुविधा से बाहर आओ. चुनो, कैसा जीवन चाहते हो. प्यार से, करुणा से निर्णय लो. उस पर कायम रहना सीखो. लेकिन अपने प्रेम से नाता मत तोड़ो. दिल के दरवाजे पर सांकल मत लगाओ.
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दिल के रिश्ते पर गांठ मत लगाओ, क्योंकि गांठ जितनी डोर की जिंदगी मुश्किल करती है, उतनी ही आपकी भी! लेकिन सुनिए, यह सब उतना मुश्किल भी नहीं…
कैसे, आज छोटी विनम्र, मिसाल मेरी जिंदगी से...
मेरा जन्म मप्र के रीवा में एक ऐसे गांव में हुआ, जहां बाल-विवाह बच्चे के नामकरण जितना सामान्य ‘संस्कार’ था. मेरी शिक्षा भोपाल में हो रही थी. लेकिन पहली बार मेरा विवाह पांचवी कक्षा में ही तय हो गया. यह तब हुआ जब हमारे परिवार से अनेक लोग बैंकिंग, इंजीनियरिंग, शिक्षा के क्षेत्र में आ चुके थे. वह रहते तो गांव में नहीं थे, लेकिन गांव उनकी संस्कार, शिक्षा का केंद्र थे.
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परिजन परंपरा और कुप्रथा में अंतर नहीं कर पा रहे थे. इसलिए मेरी उम्र के बच्चों के विवाह (गौना, यानी पत्नी का आना शादी के 5,7,10 साल बाद होता था.) पांचवी, सातवीं तक आसानी से हो रहे थे. मेरे हम उम्र बच्चों का विवाह खूब धूमधाम से हो रहा था. मैं भी उन शादियों का हिस्सा था. रीवा, सतना, सीधी समेत बघेलखंड के मन में बाल विवाह एक प्रथा, परंपरा के रूप में बसा था.
मेरी सोच में इन सबके प्रति आदर ही होता, अगर मैं उस समय तक ‘गांधी’ से नहीं मिला होता. लेकिन संयोग से यह हो चुका था. मैं पांचवी तक स्कूल की किताबों जितना ही अखबार, किताबों के रंग में रंग चुका था. गांधी से मुलाकात हो चुकी थी...
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हां, तब तक ‘मुन्ना भाई एमबीबीएस’ नहीं आई थी. लेकिन गांधी के पास मेरे प्रश्न, तनाव और निर्णय लेने की क्षमता जैसे जटिल प्रश्न के सारे हल थे.
अगले अंक में गांधी, साहित्य, किताब कैसे मुझे तनाव, डिप्रेशन से बचाने आए. निरंतर आ रहे हैं, इन पर चर्चा जारी रहेगी.
और हां, आज, जाते-जाते फिर वही बात… सुनिए, इतना मुश्किल भी नहीं है, जीना! बस, मन की दुविधा, संकोच के बादल को मन पर मंडराने न दें.
….शेष अगले अंक में!
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