बच्‍चे कैसे सीखते हैं. इसके बारे में हम अक्‍सर बातें करते रहते हैं. हमें लगता है कि वह न जाने किस ‘ग्रह’ से चीजें सीखकर आते हैं. कैसे, कहां से वह ऐसी बातें करने लगते हैं, जिनकी हम उनसे अपेक्षा, उम्‍मीद भी नहीं करते. 


COMMERCIAL BREAK
SCROLL TO CONTINUE READING

यह दीपावली बच्‍चों की परवरिश के लिहाज से काफी कुछ सिखाने वाली रही. इस दिवाली हमने अपने ही अलग-अलग चेहरे देखे. हम एक को समझते, उससे पहले दूसरे में उतर गए, उसके बाद यह सिलसिला चलता रहा. 


हमने जीवन में धर्म, राजनीति का इतना अधिक घालमेल कर दिया कि अब यह हमारे लिए भष्‍मासुर की तरह हो गया है. हम बच्‍चों को वैज्ञानिक सोच, चिंतन देने की जगह रोबोटिक, जैसा कहा जा रहा है\जैसा बताया गया वैसा करने की तरफ धकेल रहे हैं.


ये भी पढ़ें: डियर जिंदगी: दूसरे के हिस्‍से का ‘उजाला’!


इस दिवाली से तीन कहानियां मिलीं...


पहली कहानी: टीवी, अखबार सुप्रीम कोर्ट के आदेश से लदे पड़े थे. बच्‍चे भी यह सब देख रहे थे कि कैसे बढ़ते प्रदूषण के बीच ग्रीन पटाखे की बात, पटाखों की पाबंदी की बात हो रही थी. ऐसे में इंदिरापुरम के शर्मा परिवार ने जब यह निर्णय लिया कि उन्‍हें पटाखों से दूर रहना है, तो उनने दस, पंद्रह बरस के बच्‍चों को प्‍यार से बात समझाने की कोशिश की.


बच्‍चों ने जब दूसरों के पटाखे छोड़ने की बात कही, तो उनने बच्‍चों से कहा, ‘दूसरे अगर हमारी बात नहीं मानते, तो क्‍या आप भी नहीं मानेंगे! पड़ोस की आंटी के छह महीने के बच्‍चे, हमारे डॉगी जेम्‍स, बालकनी के कबूतर, सबसे बढ़कर हमारी सांस में जो हवा घुल रही है, वह हमारे पटाखों से दूर रहने से बहुत थोड़ी, मगर साफ तो रहेगी. शर्मा परिवार में किसी ने पटाखे नहीं जलाए. बच्‍चों ने उनकी बात सरलता से समझी. बड़ों ने थोड़ी सख्‍ती भी दिखाई कि नहीं का अर्थ पूरी तरह ‘न’ होता है.’


ये भी पढ़ें: डियर जिंदगी : ऐसे ‘दीपक’ जलाएं…


सबक: बच्‍चों ने समझा कि हमें अपनी तरह होना है. सबके जैसा नहीं. घर में नियम सबके लिए हैं. केवल बच्‍चों के लिए खास नियम नहीं हैं! यह परवरिश की सबसे अच्‍छी, सुंदर सीख, शिक्षा शैली है.


दूसरी कहानी: दिल्‍ली के वर्मा परिवार के बच्‍चे भी सु्प्रीम कोर्ट के आदेश, प्रदूषण से अच्‍छी तरह परिचित थे. उनके स्‍कूल में भी प्रदूषण के बारे में निरंतर संवाद हो रहा था. इसलिए परिवार के सभी छह बच्‍चों ने तय किया कि इस बार पटाखे नहीं जलाने हैं. इन बच्‍चों ने पिछली दिवाली पटाखे चलाए थे, लेकिन इस बार मीडिया, सुप्रीम कोर्ट, स्‍कूल ने मिलकर उनका मन बदला. लेकिन चाचा, पिता इस विचार से सहमत नहीं थे. वह कोर्ट के आदेश को बहुत सख्‍त, हिंदू रीति-रिवाज में दखलंदाजी मानते हैं. उनने पटाखे फोड़े, खूब फोड़े. इस परिवार के कुछ लोग पुलिस में भी हैं. उनने ‘रौब’ से दीवाली मनाई.


ये भी पढ़ें: डियर जिंदगी : जीवन के गाल पर डिठौना!


सबक: बच्‍चे, दुविधा, संशय में हैं. उन्‍हें लगता है कि बड़ों का आचरण ठीक नहीं था. उन्‍हें यह कहकर चुप करा दिया गया कि यह धर्म का विषय है, इसमें उन्‍हें राय देने की जरूरत नहीं. काश! वर्मा परिवार के बड़े यह समझते कि जब बच्‍चे अपने निर्णय लेने लगेंगे, तो उनके अनुचित व्‍यवहार को भी रोकना संभव नहीं होगा.


तीसरी कहानी: दिल्‍ली से अधिक पटाखे एनसीआर में जलाए गए. वसुंधरा का परिवार जो अब तक हर दीपावली में परिवार के साथ पटाखे खरीदने जाया करता था. इस बार उनके यहां काफी बहस होती रही. वह भी इस आदेश को कभी हिंदू त्‍योहार, तो कभी प्रदूषण से जोड़कर देखते रहे. आखिर तक वह पटाखों को प्रदूषण के लिए पूरी तरह जिम्‍मेदार मानने से भी इंकार करते रहे. लेकिन आखिर में कुछ ऐसा हुआ कि उन्‍होंने एक भी पटाखा नहीं जलाया.


ये भी पढ़ें: डियर जिंदगी : मीठे का ‘खारा’ होते जाना


उनके एक नए पड़ोसी, जो पुराने परिचित भी हैं, की तबियत अचानक खराब हो गई. उन्‍हें अस्‍थमा का दौरा पड़ा. उसके बाद बात ब्रेन स्‍ट्रोक तक पहुंच गई. किसी तरह जान बची. उम्र केवल चालीस बरस थी.


डॉक्‍टर ने बताया कि अस्‍थमा की शिकायत उन्हें पहले से थी. लेकिन उनकी दिवाली पटाखों के बिना नहीं बीतती थी. वह हमेशा यही कहते कि अकेले मेरे पटाखे नहीं चलाने से क्‍या होगा!


सबक: पड़ोसी की मेडिकल इमरजेंसी ने साबित कर दिया कि असल में अंतर एक-एक कदम से ही पड़ता है! हम सब मिलकर ही दुनिया को बेहतर, बदतर बनाते हैं. हमारी हवा, पानी जैसे भी हैं, सबमें हमारी भूमिका है!


ये भी पढ़ें: डियर जिंदगी : ‘बलइयां’ कौन लेगा…


दीपावली की यह तीन कहानियां समाज की सोच, समझ, व्‍यवहार का सरल उदाहरण हैं. हम क्‍या होना चाहते हैं, हम कैसी दुनिया चाहते हैं, यह कोई ‘रॉकेट साइंस’ नहीं है, जो आम आदमी को समझ न आए. सबकुछ अंतत: हमें ही तय करना है.


ये भी पढ़ें: डियर जिंदगी : ‘पहले हम पापा के साथ रहते थे, अब पापा हमारे साथ रहते हैं…’


पटाखों का शोर एक गंभीर चेतावनी है. इसने साबित कर दिया कि जीवन हमारे लिए कितना कम मायने रखता है. प्रकृति की मर्यादा, पर्यावरण के लिए आदर आहिस्‍ता-आहिस्‍ता कम होता जा रहा है. हम रीति-रिवाज, त्‍योहार में मनुष्‍यता के लिए जगह नहीं निकालेंगे, तो हर बरस और खाली, खोखले होते जाएंगे!


गुजराती में डियर जिंदगी पढ़ने के लिए क्लिक करें...


मराठी में डियर जिंदगी पढ़ने के लिए क्लिक करें...


ईमेल dayashankar.mishra@zeemedia.esselgroup.com


पता : डियर जिंदगी (दयाशंकर मिश्र)
Zee Media,
वास्मे हाउस, प्लाट नं. 4, 
सेक्टर 16 A, फिल्म सिटी, नोएडा (यूपी)


(लेखक ज़ी न्यूज़ के डिजिटल एडिटर हैं)


https://twitter.com/dayashankarmi)


(अपने सवाल और सुझाव इनबॉक्‍स में साझा करें: https://www.facebook.com/dayashankar.mishra.54)