डियर जिंदगी: दूसरे के हिस्‍से का ‘उजाला’!
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डियर जिंदगी: दूसरे के हिस्‍से का ‘उजाला’!

कभी-कभी अनजाने ही हम कठोर, अनुदार और हिंसक दुनिया गढ़ने में सहभागी होते जाते हैं.

डियर जिंदगी: दूसरे के हिस्‍से का ‘उजाला’!

घर के पास बड़े शॉपिंग मॉल में परिचित मिले. परिवार के साथ खरीदारी कर रहे थे. उनका बेटा, जो लगभग पंद्रह बरस का होगा, ऐसी चीज़ के लिए जिद कर रहा था जो संभवत: उनकी क्षमता से बाहर होने के साथ उसके लिए उपयोगी भी नहीं थी. उन्होंने उसे समझाने की असफल कोशिश के बाद दिलाने का फैसला किया. बेटे का तर्क था, उसके दोस्‍तों के पास यह ‘गेम’ है. उसके पास न होने से उसे शर्मिंदगी होती है! दोस्‍त भी चिढ़ाते हैं. जब वह बेटे को समझाने की कोशिश कर रहे थे, उनकी पत्‍नी ने बेटे का पक्ष यह कहते हुए लिया कि सही तो कह रहा है. बोनस भी तो आ गया है.

मुझे देखकर भाभी जी ने बात संभालते हुए धीमे से यह भी कहा, एक ही बेटा है, फि‍र भी कभी-कभी यह समझते ही नहीं!

कुछ दिन बाद!

पार्किंग में…

इन्‍हीं सज्‍जन की कार की नियमित सफाई करने वाले ने उनसे कहा, ‘इस महीने सफाई के तीन सौ पचास रुपए एडवांस में दे दीजिए. दिवाली है, बच्‍चे कुछ जिद कर बैठे हैं. इसलिए मैं इस महीने एडवांस की अर्जी दे रहा हूं.’

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उन्होंने कुछ उपदेश के नजरिए, तल्‍खी के अंदाज में कहा, 'एडवांस तो मुश्किल है. हमारे यहां भी तो दिवाली है. और हां, जितनी चादर हो उतने पैर फैलाना भला होता है!'

मांगने वाला साहब का मुंह देखता रहा गया. उसने जैसे-तैसे गाड़ी को साफ किया. गाड़ी साफ करने वाले कपड़े को पानी से साफ किया. दूसरी गाड़ी की ओर लपका. उसका कपड़ा सूखा-साफ था, लेकिन आंखों में कुछ नमी थी!

संयोग से मैं दोनों ही बार उनके नजदीक था. मैं कुछ कह नहीं सकता, कहने का अधिकार भी नहीं था, लेकिन मैं एक ही व्‍यक्ति के दो रूप देख रहा था.

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आप बच्‍चे की जिद पूरी करें, इसमें कोई बुराई नहीं. यह सबका अपना-अपना फैसला है! लेकिन दूसरों के हिस्‍से का उजाला अगर केवल तीन सौ पचास रुपए में आप दे सकते हैं. उस उजाले को बड़ा करने में अपनी भूमिका निभा सकते हैं. तो मेरा सुझाव है कि हमें ऐसा करना चाहिए. 

अपने हिस्‍से की खुशी हासिल करना स्‍वाभाविक है. इसमें ‘चार चांद’ तब लग जाते हैं, जब हम अपनी खुशी का ख्‍याल रखने के साथ दूसरे के उजाले को थोड़ा बड़ा करने में अपनी भूमिका निभाते हैं.

मैं थोड़े आश्‍चर्य में था. कैसे हमारी सोच बदल जाती है. कितनी जल्‍दी हम अंतर कर लेते हैं, अपनी, दूसरों की जरूरत में! उसके बाद उसे सही ठहराने के लिए ऐसे-ऐसे तर्क भी गढ़ लेते हैं, जिनका कोई तोड़ नहीं.

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कैसे अपने बच्‍चे की जिद, हम फिजूल मानते हुए भी पूरी कर देते हैं. दूसरी ओर अपने ऐसे सहयोगी, जिंदगी आसान करने वालों को ऐसे बातें कह जाते हैं, जिनसे न केवल उनका दिल टूटता है, बल्कि अनजाने हम एक कठोर, अनुदार और हिंसक दुनिया गढ़ने के सहभागी होते जाते हैं.

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अपने त्‍योहार में हमें कुछ ऐसे रंग भरने की कोशिश भी करनी चाहिए, जिससे दूसरों के हिस्‍से की खुशी, उजाले भी बढ़ें. उनकी अमावस भी कुछ रोशन हो सके. इससे ही वैसे दुनिया संभव है, जो हम अपने समीप चाहते हैं.

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