डियर जिंदगी: बच्चों के बिना घर!
बच्चों के पढ़ाई के लिए बाहर जाते ही माता-पिता में खालीपन देखा जा रहा है. जैसे किसी ने उनकी मुस्कान गिरवी रख दी हो कि खुश रहना मना है.
भारत में बच्चों को लेकर अभिभावक कुछ ज्यादा ही फिक्रमंद हैं. बच्चा पास रहता है, अभिभावक उसे अपनी ओर से यथासंभव मदद की कोशिश करते हैं. बच्चों के पास वह लगभग परछाईं की तरह ही रहते हैं. कई बार किसी कारण से यह जरूरी हो सकता है तो कई बार इसे इतने ज्यादा दायित्वबोध के साथ निभाया जाता है कि पढ़ने, तैयारी करने वाला और अभिभावक दोनों एक लगने लगते हैं. माता-पिता का जीवन बच्चों से कुछ ऐसे जुड़ जाता है कि उन्हें अलग करना मुश्किल लगने लगता है.
यह अलगाव अच्छी खबर से होता है. बच्चे का चयन हो गया! बच्चे के सपने के साथ जुड़े अभिभावक के लिए इससे बड़ी चीज़ क्या होगी. अगर एक ही बच्चा है तो ऐसे संदेश आपका जन्म सफल कर देते हैं! अगर दो हैं, तो अब उन्हें दूसरे के लिए जुटने का आदेश समाज, परिवार सब ओर से मिलने लगता है. कुछ दिन बाद दूसरे बच्चे के चयन की भी खबर आ गई. उसे भी उसका रास्ता दिखा, अभिभावक संतुष्ट भाव से घर लौटते हैं.
अगले कुछ महीने तक हर रोज़ बच्चे के साथ तय समय पर बातचीत होती रहती है. उसके बाद जैसे ही बच्चे की गति तेज़ होती है, हालचाल दोनों ओर से सीमित होने लगता है. बच्चे कोचिंग, तैयारी और इंटरनेट के बीच घिर जाते हैं. यह जीवन की सरल, सहज गति है. जिंदगी ऐसे ही चलती है. जो आज अभिभावक हैं, उनकी जिंदगी भी संभव है, कुछ इसी तरह रही होगी. इसलिए, इसमें नया क्या! यह तो सामान्य जीवन चक्र है.
पहली नजर में ऐसा लगता जरूर है, लेकिन है नहीं!
आज से पंद्रह-बीस बरस पहले एक तो बच्चे दूसरे शहरों में पढ़ने के लिए इतनी अधिक संख्या में जाते नहीं थे. अगर जाते भी तो उनकी जगह लेने के लिए दूसरे बच्चे थे, क्योंकि हम संयुक्त परिवार में रहते थे. अभिभावक को अकेलापन मिलता ही नहीं था तो उससे परेशान होने की बात तो दूर की थी.
डियर जिंदगी: ‘ कड़वे ’ की याद!
देश में ‘मोहल्ला’ संस्कृति थी. आज फ्लैट, सोसाइटीज़ की संख्या अधिक हो गई हैं लेकिन आज जैसे साथ रहते हुए पहले कॉलोनी में अकेलापन नहीं था. एक-दूसरे के यहां नियमित रूप से आना-जाना, ‘भोजन-भजन’ सामुदायिक था. इधर बीस बरस में दुनिया बदल गई. परिवार के रूप में समाज अधिक अकेला होता जा रहा है. पड़ोसी के घर सीमित पहुंच से आत्मीयता, स्नेह, संवेदना अकेले पड़ते जा रहे हैं. गप्प, बैठक की कमी हमें बीमार, स्वार्थी बना रही है!
बच्चों के पढ़ाई के लिए बाहर जाते ही माता-पिता में खालीपन देखा जा रहा है. जैसे किसी ने उनकी मुस्कान गिरवी रख दी हो कि खुश रहना मना है. कल तक जो माता-पिता बच्चों के साथ रात-दिन दौड़ते रहते थे, कहते भी थे कि कब तुम्हारे काम खत्म होंगे. अब जबकि वह अपने रास्तों पर आगे बढ़ रहे हैं, माता-पिता अकेलेपन की ओर बढ़ रहे हैं.
कुछ समय पहले मैं जबलपुर में ऐसे ही अभिभावकों से मिला. पति आयकर विभाग में क्लर्क हैं. पत्नी गृहणी हैं. दोनों एकदम बुझे रहते हैं. जबकि पहले उनको हमेशा चहकते हुए देखा है. छह महीने हो गए इनके बच्चों को बाहर पढ़ने गए हुए, लेकिन दोनों अब तक सामान्य नहीं हुए! कहते हैं, बच्चों के बिना घर काटने को दौड़ता है. अगले पांच बरस कैसे कटेंगे! दोनों का वजन बढ़ गया है. आलस, बीमारी और उदासी ने घेर लिया है.
उनसे जो कहा, वही यहां साझा करता हूं. अकेलेपन को बांटने के पहले चरण में हमें इन कदमों की ओर बढ़ना चाहिए..
सामाजिक दायरे को बड़ा कीजिए. बच्चों की जिम्मेदारी के चलते समाज, गांव, परिवार से कट गए थे. उनकी ओर अधिक ध्यान देने का समय है. जितना संभव हो यात्रा कीजिए. यकीन मानिए, देश में घूमने के लिए बहुत कुछ है. यह सब कुछ उतना महंगा भी नहीं, जितना दिमाग में है. पुराने शौक पूरे कीजिए. नए शौक बनाइए. गीत संगीत से लेकर खेल तक में रमिए. बागवानी न सही गमले ही लगाइए! कुछ तो नया कीजिए! अधूरी पढ़ाई पूरी कीजिए. देश में बहुत से लोग ऐसा कर रहे हैं.
‘डियर जिंदगी’ की सुधि पाठक मृदुता शर्मा ने अभिभावकों के बीच बढ़ते अकेलेपन की ओर विशेष ध्यान दिलाया है. हम उनके प्रति आभार प्रकट करते हुए आगे भी इस अकेलेपन को बांटने, कम करने पर बात करते रहेंगे. अगर आपके पास ऐसी कहानियां हैं, जहां अभिभावक किसी रचनात्मकता से जुड़कर स्वयं को नए आयाम दे रहे हैं, तो वह भी हमसे साझा करें.
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(लेखक ज़ी न्यूज़ के डिजिटल एडिटर हैं)
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