जिंदगी के प्रति थोड़ी कंजूसी भी जरूरी है, जिससे इसे दूसरों से नफरत, असहमति के नाम पर खर्च होने से बचाया जा सके!
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मेरे लिए यह अलग तरह का अनुभव था. उन्होंने कभी इसके बारे में पढ़ा, सुना नहीं था. हमारे संवाद के बीच वह तुरंत गूगल कर पाने की स्थिति में भी नहीं थे. इस मायने में वह मुंबई के एक छोटे सभागार में मौजूद डेढ़ सौ से अधिक युवाओं में सबसे अलग थे. जब हम अलग चीज़ों पर बात कर रहे थे. परवरिश, माता-पिता के नजरिए, सोच की विविधता पर बात हो रही थी. सवालों में जीवन की कठोरता, मुश्किल और बचपन में आई मुश्किल की छाया का ताउम्र जिंदगी पर पड़ने वाले असर शामिल था.
इसी बीच एक युवा ने बहुत खूबसूरत बात कही, ‘उसने कहा, मेरा जन्म कैसे हुआ. किन चीज़ों के बीच हुआ, किन कमियों के साथ हुआ. इसका कोई अर्थ नहीं, क्योंकि इस पर मेरा कोई नियंत्रण नहीं है. मैं केवल रास्ता बनाने पर यकीन करता हूं.’
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उनके ऐसा कहने के साथ सभागार तालियों से गूंज उठा. कुछ देर बाद बताया गया कि जीवन के प्रति इतने स्पष्ट, सकारात्मक विचार रखने वाला युवा बचपन से देखने में सक्षम नहीं है. वह हमारी तरह देखने में सक्षम नहीं. लेकिन इसके मायने यह नहीं कि उनके ख्यालों की रोशनी किसी और से है. बल्कि जीवन के प्रति उनके विचारों में हमारी तुलना में कहीं अधिक कोमलता, उदारता और प्रेम है. इस घटना के बाद मैं ऐसे ही कुछ और साथियों से मिला. उनसे जीवन के प्रति नया दृष्टिकोण मिला. जो है, उसे स्वीकार करना, उससे रास्ता बुनना.
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शिकायत से भरी आंखें, तुलना से भारी मन. जिंदगी को हमने ईर्ष्या का दंगल बना लिया. प्रेम तो मानिए, अपनेे ही घर में किराएदार हो चला है! जिंदगी के प्रति थोड़ी कंजूसी भी जरूरी है. जिससे इसे दूसरों से नफरत, असहमति के नाम पर खर्च होने से बचाया जा सके! कभी आपने महसूस किया, दूसरों के बारे में बात करते ही हम कठोर हो जाते हैं. उनकी गलतियों को हम उतनी आसानी से स्वीकार नहीं करते, जितने की अपेक्षा हम अपने लिए सरलता, सहजता से रखते हैं.
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युवाओं के साथ बातचीत में एक चीज़ मैं अक्सर महसूस करता हूं कि हम अपने अतीत से अक्सर उलझे रहते हैं. किसी को लगता है, बचपन में उसकी ख्वाहिशों, इच्छा को ठीक से नहीं समझा गया. तो किसी को लगता है कि उसे सही शिक्षा, माहौल नहीं मिला. तो कोई अपने माता-पिता के व्यवहार से अब तक आहत महसूस कर रहा है.
अभिभावकों के रिश्तों की अनबन में बच्चों की जिंदगी अक्सर पिस जाती है, क्योंकि हम बच्चे को बच्चा ही मानते रहते हैं. उससे आगे नहीं. हम मानकर चलते हैं कि वह कुछ नहीं समझता. उसकी दुनिया हमारी समझ की मोहताज़ है, जबकि है इसका एकदम उल्टा. बच्चा हमारी तुलना में कहीं अधिक तेज़, स्पष्ट और सहज है.
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लेकिन अब क्या! अब तो आप बच्चे नहीं रहे. बीस से पच्चीस बरस की उम्र तो जिंदगी को बुनने की है. रास्ते न बन रहे हों तो न सही, पगडंडी बनाने की है. इसमें अतीत को मिलाने की जरूरत नहीं. जो है, उसे स्वीकार करना होगा. उसे स्वीकार करके आगे बढ़ना है. किसी भी सूरत में आगे के सफर को पुराने खराब रास्ते की याद में खराब नहीं होने देना है. ऐसे रिश्ते जिसकी गांठों को सुलझाना संभव नहीं. उनमें जीवन की ऊर्जा झोंकने का कोई अर्थ नहीं. यह जीवन की बगिया को नष्ट करने वाले दीमक हैं.
हमें शुरुआत कैसी भी मिली हो. हार नहीं मानना, जुटे रहना. स्थितियों से लोहा लेना ही मनुष्यता का सबसे बड़ा काम है. यह कुछ ऐसा ही है, जैसे क्रिकेट में कई बार शुरुआती विकेट जल्दी गिर जाने पर मध्यक्रम की असली परीक्षा होती है. क्योंकि अच्छी शुरुआत पर तो हर टीम बड़ा स्कोर खड़ा कर लेती है, लेकिन चैंपियन टीम तो वही है, जो खराब आरंभ को बड़े, मैच जिताने वाले स्कोर में बदल दे. जीवन केवल चीज़ों को देखने से नहीं बदलता. देखकर, सीखने और उस प्रेरणा को जिंदगी में उतारने से बदलता है.
जब कभी बचपन की मुश्किल याद सामने आकर परेशान करे, तो यह मध्यक्रम का फार्मूला याद करिएगा. यह जिंदगी को प्रेरणा देने के काम आएगा!
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