राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अभी दिल्ली में तीन दिनों के एक अत्‍यंत महत्वपूर्ण विचार-विमर्श कार्यक्रम का आयोजन किया था. इस आयोजन में संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने वर्तमान की एक अत्‍यंत ज्‍वलंत समस्या आरक्षण को लेकर बहुत महत्वपूर्ण बात कही. उनका कहना था, ''आरक्षण को तब तक लागू रखा जाना चाहिए, जब तक इसे लेने वाले खुद से ही लेने से इनकार न कर दें.'' आश्चर्य की बात यह है कि उनके इतने महत्वपूर्ण वक्तव्य पर कोई भी राष्ट्रीय बहस नहीं हुई और वह भी यह जानते हुए कि वर्तमान सरकार के दौर में संघ का यह वक्तव्य अपने-आप में मायने रखता है.


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यदि राजनैतिक दृष्टि से देखें, तो इसे अगले वर्ष के मध्य में होने वाले राष्ट्रीय चुनावों के परिप्रेक्ष्य में वर्तमान सरकार के हित में दिया गया वक्तव्य माना जा सकता है. सालभर से कुछ ही अधिक समय हुआ है, जब आरक्षण के मुद्दे पर भारतीय जनता पार्टी के थोड़े से नरम एवं अस्पष्ट वक्तव्य को बिहार विधान सभा के चुनाव में पार्टी की हार के कारणों में से एक महत्वपूर्ण कारण माना गया था.


खुलते हुए समाज की एक बानगी


लेकिन यहां सवाल इस वक्तव्य के राजनैतिक लाभ एवं हानि तथा उसके पोलिटिकल एंगल का नहीं है. यहां सवाल यह है कि संघ प्रमुख ने जिस आदर्शवादी स्थिति की कल्पना की है, वह कितनी व्यावहारिक है. निश्चित रूप से उनका यह कथन महात्मा गांधी के ट्रस्टीशिप के उस आदर्शवादी दर्शन से प्रेरित मालूम पड़ता है, जिसमें उन्होंने उम्मीद जताई थी कि पूंजीवादी वर्ग का हृदय परिवर्तन होगा और वे स्वयं ही अपनी अतिरिक्त संपत्ति समाज को दे देंगे.


यदि हम विनोबा भावे के भूदान को किनारे कर दें, तो उस हृदय-परिवर्तन की अभी भी प्रतीक्षा है. तो क्या आरक्षण के संबंध में हृदय परिवर्तन के जादुई स्वरूप देखने की उम्मीद की जा सकती है? लगभग तीन साल पहले प्रधानमंत्री ने सब्सिडी वाले गैस सिलेंडरों की सब्सिडी लेने वालों से इसे लेने से इनकार करने का अनुरोध किया था. कहना नहीं होगा कि इसे सफलता भी मिली. क्या आरक्षण के मामले में भी ऐसी सफलता की उम्मीद की जा सकती है?


लेकिन उम्मीद करने वालों को इस बात की अनदेखी नहीं करनी चाहिए कि सब्सिडी छोड़ने का संबंध ऊंट के मुंह में जीरा जैसी धनराशि से था. जबकि आरक्षण के लाभ को छोड़ने का संबंध आने वाली पीढ़ियों के भविष्य को सुनिश्चित करने को लेकर है. इस प्रकार दोनों में कोई तुलना नहीं है.


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आरक्षण की व्यवस्था को लागू हुए लगभग 70 वर्ष हो गए हैं. अभी तक तो इस तरह का ऐसा एक भी उदाहरण देखने में नहीं आया है, जिसके आधार पर भागवत जी के कथन के सत्य होने पर भरोसा किया जा सके. हां, ऐसे हजारों उदाहरण जरूर हैं, जबकि इस व्यवस्‍था का लाभ पीढ़ी-दर-पीढ़ी कुछ-एक परिवार लेते रहे हैं. लेकिन उनके मन में अपनी ही जाति के लागों के लिए इस छोटे-से त्याग की भावना कभी पैदा नहीं हुई, बावजूद इसके कि वे जानते हैं कि अब उन्हें आरक्षण की कोई जरूरत नहीं है. लेकिन साथ ही वे यह भी जानते हैं कि इस व्यवस्था के कारण उन्हें आरक्षित समूहों में ही जो आरक्षण मिला हुआ है, वह पारस के पत्थर के समान है.


उदाहरण के लिए मैं सन् 2015 की आईएएस परीक्षा की टॉपर टीना डाबी का नाम लेना चाहूंगा. टीना डाबी ने मात्र 22 साल की उम्र में अपने पहले ही प्रयास में भारत की सबसे कठिन परीक्षा में पहला स्थान हासिल करके एक इतिहास रच दिया है. इसके लिए वे बधाई की पात्र हैं और मैं उनकी मुक्तकंठ से प्रशंसा करता हूं. आईएएस बनने के बाद उन्होंने डॉ आंबेडकर की जन्म तिथि पर उन्हें अपनी श्रृद्धांजलि देते हुए ये भावनात्मक शब्द कहे थे-‘‘आज मैं जो कुछ भी हूं, उन्हीं के कारण हूं.’’


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उनके इस संपूर्ण कथन में आरक्षण से प्राप्त लाभ की ओर स्पष्ट संकेत था. मेरा यहां टीना डाबी तथा उन जैसे अन्य सक्षम लोगों से एक बहुत ही व्यावहारिक एवं विनम्र सवाल है कि ‘‘क्या वे अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए आरक्षण के लाभ को छोड़ने की घोषणा करेंगे ताकि वे लोग भी यह कह सकें कि ‘‘आज मैं जो कुछ भी हूं, टीना डाबी के कारण हूं.’’


यहां यह बताना जरूरी है कि टीना डाबी के माता-पिता भारतीय इंजीनियरिंग सेवा के सदस्य रह चुके हैं. साथ ही यह भी कि टीना डाबी ने जिस लड़के को अपना जीवन साथी चुना है, वह उन्हीं के बैचमेट हैं और उनका आईएएस में टीना डाबी के ठीक बाद दूसरा स्थान था.


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सवाल यह है कि जब आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक दृष्टि से संपन्‍न ऐसे व्यक्ति इस तरह की अपील पर ध्यान तक नहीं देते, तब दूसरों से भला क्या उम्मीद की जा सकती है. वैसे इसकी शुरुआत करने के लिए लोकसभा की पूर्व अध्यक्ष मीरा कुमार सर्वोत्तम नाम हो सकती हैं, जिनके पिता जगजीवन राम आजादी से भी 9 साल पहले 1938 के भारतीय मंत्रिमंडल के सदस्य रह चुके हैं. अब इस देश को मोहन भागवत जी के कथन के सत्य होने के शुरुआत की प्रतीक्षा है.


(डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ लेखक और स्‍तंभकार हैं)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)