खजुराहो नृत्य समारोह (20 से 26 फरवरी): रंगपटल पर लय-गतियों का राग
मंदिर की पृष्ठभूमि में नृत्य का सम्मिलन एक अनोखे कलात्मक आनंद की अनुभूति कराता है. हालांकि शुरुआती कुछ बरस तक उत्कृष्टता के मानदण्ड और आयोजकीय स्वायत्तता कायम रहे और इसी गुणकारी और बेहतर पहल की वजह से यह समारोह अपनी साख अर्जित कर सका.
‘‘मैं धूल भरे, अलसाये छोटे से गांव की ओर खिंची चली जाती हूं. लगता है कि यह सदी और चंदेल अप्सराओं की गाथाएं जैसे एक-दूसरे में प्राण फूंक रही हों. मैं एक अनंत प्रवाह में घूमती हूं, जिसमें अतीत और वर्तमान अपने को एक दूसरे में जज़्ब करते प्रतीत होते हैं.’’
विख्यात नृत्यांगना स्वप्न सुंदरी का यह सम्मोहन म.प्र. की धरती के उस उत्तरी छोर पर ले जाता है, जहां सौंदर्य से समाधि की यात्रा का एक अनोखा पड़ाव है. मध्यप्रदेश के छतरपुर ज़िले का यह रमणीक स्थल खजुराहो के नाम से दुनिया भर में प्रसिद्ध है. पर्यटकों के लिए कौतूहल का किनारा. विन्ध्य के सघन अरण्य में खड़े पहाड़ों की तलहटी में बिखरी झीलें जहां एक ओर इस ऐतिहासिक स्थल को निसर्ग की आत्मीय सुंदरता से विभूषित करती हैं, वहीं पाषाण की जीवंत प्रतिमाओं से आच्छादित मंदिर चंदेलकालीन इतिहास के साक्षी बनकर सारे जहां को करीब बुलाते हैं. हरियाले आंगनों में आसमान तक अपना मस्तक उठाए इन मंदिरों का वैभवशाली अतीत अपने हज़ार से भी ज़्यादा वर्ष पूरे कर चुका है. खजुराहो की धरती पर भले ही आज सितारा होटलों का जाल बिछ गया हो, मगर मंदिरों पर उत्कीर्ण प्रेम प्रतिमाओं से सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् का आध्यात्मिक संदेश अब भी झर रहा है.
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अतीत के इन्हीं पन्नों को बांचने की फिर तैयारी है. तमाम हलचलों के बीच प्रतिवर्ष आयोजित होने वाला ‘खजुराहो नृत्य समारोह’ आगंतुकों की प्रतीक्षा कर रहा है. 43 वर्ष पूर्व नृत्य के इस सिलसिले की शुरुआत हुई थी. तब से अब तक निरंतर नृत्य की आहटें खजुराहो की ओर सारी दुनिया का ध्यान आकर्षित करती हैं. मंदिर की पृष्ठभूमि में नृत्य का सम्मिलन एक अनोखे कलात्मक आनंद की अनुभूति कराता है. हालांकि शुरुआती कुछ बरस तक उत्कृष्टता के मानदण्ड और आयोजकीय स्वायत्तता कायम रहे और इसी गुणकारी और बेहतर पहल की वजह से यह समारोह अपनी साख अर्जित कर सका. लेकिन बाद के वर्षों में इस उत्सव पर लगी सियासी नज़र और कई दफा अक्षम हाथों में कला प्रशासन की वजह से सांस्कृतिक स्वप्न धुंधलाता भी रहा. फिर भी उम्मीदें पूरी काफूर नहीं हुई हैं.
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समारोह के समन्वयक यह मानते हैं कि नृत्यों का यह समारोह, ख़ासकर विदेशी कला प्रेमियों के लिए भारतीय संस्कृति को समझने का प्रवेश द्वार है. अगर कहीं इस उत्सव पर खरोंच आई भी हैं तो उसे दुरुस्त करने की कवायत भी की जाती
रहेगी. दरअसल खजुराहो नृत्य समारोह को स्थापित करने के पीछे दो-तीन दृष्टियां काम कर रही थीं. एक तो यह वह समय था जब म.प्र. का सांस्कृतिक संसार बनाने की शुरुआत हो रही थी. योजनाएं गढ़ी जा रही थीं. भोपाल महोत्सव की परम्परा शुरू हुई और तानसेन समारोह को नया स्वरूप दिया गया. खजुराहो नृत्य के पीछे नज़रिया यह था कि म.प्र. की इस विश्व धरोहर को इसी अर्थ में बड़े प्रभाव के साथ लोक प्रचारित किया जाए. दूसरा यह कि खजुराहो व नृत्य का आत्मिक संबंध है, इसलिए वहां कुछ करना इतिहास को रूपाकार देने का प्रयास था. तीसरी बात यह कि इतनी बड़ी विश्व सम्पदा को देखने, और उसके संरक्षण-विस्तार आदि के लिए समाज में जागृति बढ़े तथा हिन्दुस्तान की नृत्य शैलियां देश-विदेश के कला प्रेमियों के सामने प्रकट हो सके.
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नृत्य समारोह अपने संकल्प में सफल हुआ. पहले यह मंदिर परिसर में होता था. बाद में यह महसूस किया कि वहां होने से, रौशनी आदि से मंदिर-क्षरण हो सकता है. मंदिर के संरक्षण की चिंता देश-विदेश में हुई. खजुराहो में मंदिर के ऊपर से वायुयान गुजरते थे तो कंपन मंदिरों के लिए नुकसानदेह था. शुरूआत के कुछ वर्षों में ही यह देश का सबसे प्रतिष्ठापूर्ण समारोह बन गया. यह एक ऐसा मंच है जहां कोई भी कलाकार प्रस्तुति देना कला जीवन की सार्थकता मानता है. फिर लम्बे समय तक विशेषज्ञों की चयन समिति का निर्णय लगभग निर्विवाद रहा. दुर्भाग्य से अब कलाकारों के चयन पर राजनैतिक और दीगर प्रशासनिक दबाव भी हावी हैं.
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बहरहाल, यह देखा सच है कि खजुराहो के नृत्य परिसर में उमड़ने वाले अनेक देशी-विदेशी कला प्रेमी इस उत्सव के शिल्प और उसके कल्पनाशील संयोजन पर रीझते रहे हैं. मंदिरों की पृष्ठ भूमि उन्हें नृत्य प्रस्तुतियों के साथ रूहानी रिश्ता जोड़ने में मदद करती है, लेकिन मध्यप्रदेश के कई बड़े सांस्कृतिक समारोहों के मंच शिल्पी हरचंदन सिंह भट्टी अभी भी खजुराहो के इस मंच के स्थापत्य से पूरी तरह इत्तफाक नहीं रखते. कहते हैं- खजुराहो अगर दुनिया भर के लोगों को अपनी ओर खींचता है तो इसकी बुनियादी वजह वहाँ का स्थापत्य ही है. लिहाजा ये जरूरी है कि नृत्य समारोह का परिवेश भी प्रकट अर्थों में वहां के स्थापत्य को दृश्यमान करे. लेकिन तमाम किस्म की भव्यता और उच्च स्तरीय इंतजामों के बावजूद अभी नृत्य से स्थापत्य का तादात्म्य नहीं जुड़ पाया है. ढलती शाम के साथ घिरते अंधेरे में मंदिर ओझल हो जाते हैं और मंदिर के आश्रय में होकर भी नृत्य और मंदिर की निकटता का चाक्षुष आनंद दर्शक नहीं ले पाता. भट्टी जोड़ते हैं- सिर्फ खजुराहो की धरती, वहां का कोई प्रांगण चुन लेना ही पर्याप्त नहीं है, वहां के स्थापत्य और नृत्य से रसिकों की अंतक्रिया होना भी जरूरी है.
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नृत्य समारोह के शुरुआती सालों और बीच के बरसों में इस मुद्दे पर थोड़ी सुगबुगाहट शासन स्तर पर हुई थी. मसलन खजुराहो में भी नृत्य समारोह की स्थायी जगह सुनिश्चित करने और परम्परा का हिस्सा बनाते हुए उस स्थान को वास्तुशिल्प देने पर विचार हुआ था लेकिन यह निरी कलपना होकर ही रह गया. वे बताते हैं कि संयोग से मुझे भी शुरू-शुरू में खजुराहो के इस नृत्य परिसर का आकल्पन करने का मौका मिला. इस कस्बे के बहुत सीमित बाज़ार में हमें तब जो भी सामग्री उपलब्ध हो सकी हमने उसी के सहारे साज-सज्जा के प्रतीक चुने. सौभाग्य से तब कई आगंतुकों तथा कला समीक्षकों ने उस सादगी भरी सर्जना की प्रशंसा की थी.
तमाम राग-विराग के बावजूद खजुराहो आना किसी भी सैलानी के लिए बुझा और बोझिल अहसास नहीं है. मंदिरों की श्रृंखलाएं हर ओर से आंखों में समाती हैं. धरातल का सोच रखने वाले दर्शकों को 900 से 1400वीं सदी के काल में बनी इन मूर्तियों में देह-राग का संगीत सुनाई पड़ सकता है. पर भारतीय अध्यात्म का सिरा पकड़कर चलें तो ये प्रतिमाएं मोक्ष की ओर ले जाती हैं. एक प्रचलित किंवदंती के अनुसार बरसों पहले खजुराहो की धरती पर शिव-पूजा के अनुष्ठान के लिए हज़ारों सुंदर नृत्यांगनाएं बुलाई गई थी. बहरहाल, इस किंवदंती से भी जीवन के विपुल मर्म का बोध कराते सत्य, शिव और सुंदर, ये तीनों तत्व उभरकर प्रचलित अवधारणा को पुष्ट करते हैं. कवि और संस्कृतिकर्मी ध्रुव शुक्ल खजुराहो को लेकर दार्शनिक पुट देते हैं- ‘‘इन मंदिरों को देखकर लगता है कि जैसे देह ही मंदिर है और हमारा हृदय ही वह गर्भगृह है जिसमें हमारे ही आत्मबोध की एक प्रतिमा स्थापित है. प्रणति कहीं और नहीं है. खुद से खुद को प्रणाम करने की कला आना चाहिए. खजुराहो के मंदिरों की रतिमग्न प्रतिमाएं और मंदिर के भीतर विराजे देवता हमें प्रणय और प्रणाम एक साथ सिखाते हैं.’’
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...तो आइये नृत्य के इस परिसर में. ...फागुनी रंगों से सरोबार धरती के दिन की उम्र तमाम होती है और सांवली सांझ मंदिरों की ओट से तांक-झांक करती हैं. तालनाद का स्पंदन उभरता है और घुंघरुओं की रुनझुन वातावरण में ठिठकी नीवरता को मार्मिक छुअन से भर देती है. समृद्ध दर्शक दीर्घा के सामने सुसज्जित मंच पर आलोक बिखरता है और भावों की अंजुरी में नृत्य आकार लेने लगता है. स्वप्निल लगने वाले ये अहसास सचमुच आंखों से होकर मन ही ठेठ गहराइयों में उतरते हैं. यह सुहाना मंज़र नृत्य समारोह की खुशबुओं का एक हिस्सा है. प्रायः सभी भारतीय नृत्यों के उद्गम स्थल मंदिर रहे हैं. एक पवित्र परम्परा के सूत्रपात की ये जगहें अपने कलात्मक अतीत की इबारत पढ़ सकें, यही मंशा खजुराहो नृत्य समारोह के पीछे रही है. 20 फरवरी से 26 फरवरी तक संस्कृति विभाग का यह सालाना जलसा माहौल में लय-ताल की थिरकन भरेगा. विवादों ने इस बार भी इस जंगी जश्न को बख्शा नहीं. नर्तकों की बिरादरी जूरी कमेटी के निर्णय को पक्षपात से जोड़ती रही तो दूसरी ओर मेजबान राज्य मध्यप्रदेश की स्थानीय प्रतिभाएं उत्सव में अपनी सिकुड़ती संख्या को लेकर खफ़ा हैं. बावजूद इन विसंगतियों के आयोजकीय हौसला अपना काम कर रहा है. दलील, कि हर निर्णय विधिसम्मत है.
बहरहाल सात दिनों की सभाओं में कथक, भरतनाट्यम, कुचिपुड़ी, ओडीसी और मणिपुरी नृत्य शैलियों में बंधी प्रस्तुतियों को उनकी पौराणिक, दार्शनिक और आधुनिक पृष्ठभूमि में नए सोच-विचार के साथ देखना, निश्चय ही प्रीतिकर संयोग होगा. इस बार पद्मविभूषण नृत्यांगना डाॅ. सोनल मानसिंह द्वारा परिकल्पित नृत्य नाटिका ‘संकल्प से सिद्धि’ का खजुराहो में मंचन एक
अल्हदा भंगिमा लिए होगा. शिव-शक्ति और कृष्ण से जुड़े प्रसंगों, मिथकों और कथाओं का आधार नाटिका के रूपक को स्वच्छता पर एकाग्र करता है. दिलचस्प यह कि, सोनल मानसिंह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा मनोनीत स्वच्छता अभियान के नवरत्नों में से एक हैं. नृत्य के रंगपटल से जुड़े विभिन्न पक्षों पर संवाद, विमर्श, प्रदर्शनी और चलचित्रों का एक रचनात्मक सिलसिला विगत कुछ वर्षों में कायम हुआ है. ललित कलाओं और आंचलिक व्यंजनों का मेला भी सैलानियों के लिए सौन्दर्य-स्वाद का नया ठौर होगा.
शुभारम्भ संध्या म.प्र. शासन द्वारा शास्त्रीय नृत्य के क्षेत्र में अद्वितीय उपलब्धियों के लिए स्थापित राष्ट्रीय कालिदास सम्मान से कला विभूतियों को अलंकृत किया जाएगा. वर्ष 2016 और उससे पहले तीन वर्षों के लंबित पुरस्कारों से राजा राधा रेड्डी, लक्ष्मी विश्वनाथन, दर्शना झवेरी और पंडित जितेन्द्र महाराज सम्मानित किये जायेंगे.
मूर्धन्य नृत्य गुरू पंडित बिरजू महाराज कहते हैं-‘‘खजुराहो में मंदिर और मन की साधना के मंदिर का मिलन होता है.’’ ...तो चंदेलों का गांव आपकी बाट जोह रहा है. ...आईये.
(लेखक वरिष्ठ कला संपादक और मीडियाकर्मी हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)