लोकगीतों की अवधारणा को भारतीय समाज से जोड़कर देखें, तो संस्कार गीतों की एक भरी-पूरी दुनिया से हमारा सामना होता है. सरल-सहज और मिठासभरी धुनों में रचे-पगे सैकड़ों गीत परंपरा से गलबाहें करते हमारी आत्मा में उतर जाते हैं.
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लोकगीत क्या है? हृदय से फूटा, कंठ से निकला और अधरों से छलकता आदिम राग जिसमें जीवन की हर धड़कन को सुना जा सकता है. आनंद या उल्लास के क्षण हों, अथवा वेदना या व्यथा के, एक पतवार बनकर ये हमारा साथ निभाते आए हैं. ये गीत किसने और कब लिखे, इसका लेखा-जोखा किसी के पास नहीं है, पर हमारे अज्ञात-अनाम पुरखों के कंठ ने इन्हें पाला-पोसा और आने वाली पीढ़ियों को विरासत की तरह सौंप दिया.
श्रुति और स्मृति की परंपरा के साथ ये गीत सदियों का फासला पार करते आज हमारी संस्कृति के जागरूक पहरेदार हैं. दरअसल लोक मन की यह सुरीली अभिव्यक्ति हमारी तहज़ीब, तारीख़ और तासीर को दिखाता आईना है. ये दर्पण हैं, ज़िंदगी की भूली-बिसरी तस्वीरों, यादों-बातों, किस्सों-कहानियों और संस्कारों की रोशनी में जगमगाते हमारे सच्चे और खरे अनुभवों का. शायद ही ऐसी कोई बिरादरी हो, जहां लोकगीतों का चलन न हो क्योंकि इनके बिना मन का आंगन सूना है. सामाजिक और धार्मिक कर्मकांड अधूरे हैं.
लोकगीतों की इस अवधारणा को भारतीय समाज से जोड़कर देखें, तो संस्कार गीतों की एक भरी-पूरी दुनिया से हमारा सामना होता है. सरल-सहज और मिठासभरी धुनों में रचे-पगे सैकड़ों गीत परंपरा से गलबाहें करते हमारी आत्मा में उतर जाते हैं. संस्कारों की बात छिड़ती है तो सोलह संस्कारों में सबसे महत्वपूर्ण, जीवंत, स्थायी और उत्सवधर्मी सोपान है- विवाह. सामाजिक जीवन की एक अनिवार्य धुरि जिसके साथ जन्म-जन्मांतरों का अटूट प्रेम, विश्वास और नैतिकता के तकाजे हैं. गृहस्थ जीवन का ओर-छोर इसी परिणय-पर्व से अपना सुदूर विस्तार पाता है.
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मथुरा के आसपास बसने वाले चतुर्वेदी समाज के बुजुर्ग चिंतक और लेखक खरगरामजी ने लगभग साठ बरस पूर्व चतुर्वेदी समाज को केंद्र में रखकर दाम्पत्य की वैदिक, व्याख्या की और ‘वैदिक विवाह’ शीर्षक से एक प्रामाणिक ग्रंथ का प्रकाशन किया. करीब पांच सौ पृष्ठों में फैले इस दस्तावेजी ग्रंथ के माध्यम से हम आज इस चिंता से भर उठते हैं कि आधुनिक और सम्पन्न होते जा रहे हमारे समाज का पारंपरिक वजूद धीरे-धीरे कमज़ोर पड़ता जा रहा है. विवाह संस्कार की मान्य विधियों से लेकर लोकाचार और उत्सवी आनंद का पारंपरिक स्वरूप काफी हद तक अपनी मौलिकता खो चुका है. यह फिक्र हममें से बहुतों को तब होती है जब खुद हमारे परिवार में संस्कारों को निभाने का वक्त आता है. बड़ी-बूढ़ी दादी-नानी, बुआ-जिज्जी याद आती हैं और डीजे के कानफोडू संगीत के शोर में उनके कंठ से लरजते लोकगीतों का मधुर स्वर खोकर रह जाता है.
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इस अफसोसजनक परिदृश्य के बीच इधर भोपाल में कलानुरागी विनीता चैबे ने परंपरा के गीतों को थाम लेने और उस सुरमयी सौगात को साझा करने की एक रचनात्मक पहल की है. ये चतुर्वेदी समाज में प्रचलित गीत हैं जिनका सीधा रिश्ता हमारे जनपद से है. अतीत से है. संस्कार और परंपरा से है. यानी ये धरती के वे छंद हैं जिनमें जीवन का खरा आनंद है.
आप गौर करेंगे कि चतुर्वेदी समाज ही क्यों प्रायः हर समुदाय के विवाह-गीतों में संस्कार का प्रत्येक चरण अद्भुत सुंदरता और हार्दिकता से सराबोर है. खुला हृदय और फैली बांहें. हमारे यहां विवाह संस्कार को यह सब विश्वास की एक मज़बूत आधार देते हैं. वर हो या कन्या, चौक से लेकर विदाई तक होने वाली हर गतिविधि का वर्णन लोकगीतों में मिलता है. ये गीत संस्कारों की मौखिक पाठशाला हैं. यहां हर शब्द में समूह की संवेदनाएं हैं और हर कड़ी में परंपरा की खनक समाई है. धरती की सौंधी ढीली बनक है. यहां शिव-पार्वती, कृष्ण-राधा और राम-सीता के प्रतीक और रूपक हमारी लोक आस्था में बहुत गहरे उतरते हैं. हास-परिहास की स्वछंद उड़ाने हैं, तो भावुकता का भीगापन भी कड़ी-दर-कड़ी हमें घेरने लगता है. चतुर्वेदी विवाह संस्कार की सुरम्य झांकी है, यह संकलन.
यह दस्तावेज संगीत के आनंद की प्राथकिता नहीं हैं बल्कि अपने मौलिक स्वभाव और स्वरूप में एक कीमती सम्पदा के संरक्षण की कोशिश हैं. ये गीत विनीताजी ने अपने ही समाज-परिवार की महिलाओं को एकत्र कर ध्वनिबद्ध किए हैं. दिलचस्प यह कि बहुत सी उम्रदराज़ महिलाओं की स्मृति में ये बरसों से ताज़ा हैं.
शब्द और स्वरों में सांसें लेती हमारी परंपरा पर हमें गर्व होता है...
(लेखक वरिष्ठ कला संपादक और मीडियाकर्मी हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)