मधुकली वृंद : नई कविता को जनसंवादी बनाता वृंदगान
वृंदगान, संगीत की प्राचीन परंपरा का वह रूप है, जिसमें कभी वेदों की ऋचाएं गूंजती थीं, लोक और भक्ति पद, जिसमें पूरे समाज के प्रेरणादायी आश्रय बन जाते थे.
कविता का अपना भाषिक और भाविक विन्यास होता है. वह अपनी सर्जना में परम स्वायत्त होती है. ठीक उसी तरह संगीत की सुरीली सत्ता भी अपने आप में निराली होती है. उसका नाद अनहद के अनोखे क्षितिज खोलता है. उसके आस्वाद और आकलन की ठीक-ठीक अभिव्यक्ति शब्दों की हदों से हमेशा फिसलती रही है, लेकिन जब शब्द और संगीत पास-पास आते हैं, तो इस आपसदारी से अर्थ और अभिव्यंजना की नई गूंज उपजती है. यूं कविता और संगीत का मेल हमेशा ही रहस्य और रमणीयता की नई परिभाषा रचता है.
बड़ा ही नाज़ुक और जटिल रिश्ता होता है कविता और संगीत का. कहा जा सकता है कि दोनों को एक-दूसरे के अवलम्बन की ज़रूरत नहीं, लेकिन कला के नवाचारी समाज में ऐसे सार्थक और साहसिक प्रयोगों को संगीतकारों तथा गायकों ने अपनी सूझ और संवेदना से संभव किया है. कविता को स्वर, लय, ताल के सांगीतिक आभूषण मिले हैं, तो संगीत की सतह को भी कविता ने बहुरंगी बनाया है. भारत की श्रुति परंपरा में शब्द और स्वर की यह नातेदारी सदियों से अपनी जड़ें जमाए हुए है. जाने कितने कंठों से उठती आवाज़ों में बजता संगीत अतीत, आज और आगत को अपनी थाती सौंपता रहा है.
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संस्कृति की इसी अनमोल धरोहर को अपने अकिंचन प्रयासों में अक्षुण्ण रखने के लिए ‘मधुकली’ ने भोपाल में अपनी यात्रा करीब तीन दशक पहले शुरू की. ज़रिया चुना वृंदगान. संगीत की प्राचीन परंपरा का वह रूप, जिसमें कभी वेदों की ऋचाएं गूंजती थीं, लोक और भक्ति पद, जिसमें पूरे समाज के प्रेरणादायी आश्रय बन जाते थे. ‘मधुकली’ ने गुजरे वक्त के इस भूले-बिसरे पन्ने को फिर से बांचना शुरू किया नई सदी की नई नस्ल को इस ओझल, किन्तु अनमोल पाठ के लिए प्रेरित किया. ‘मधुकली वृन्द’ ने वृंदगान के साथ कविता को सहयात्री बनाया. प्राचीन और नई कविता को एक साथ सुर-संगीत में साधा. नए ज़माने को कविता और सरगम की नई तासीर से अवगत कराया. घर्षण, मिश्रण और प्रदूषण के दौर में सात्विक, मधुर और जीवनदायी श्रुतियों की सौगात दी. अपने स्वप्न संकल्पों के साथ ‘मधुकली’ का आंगन जब-तब किलकता रहा है.
इस कठिन, किन्तु महत्वपूर्ण अभियान के केन्द्र में जिस शख्सियत का अकूल श्रम, ज़िद और आस्था कायम रही, वह पं. ओमप्रकाश चौरसिया हैं. संगीत के सृजनात्मक और अकादमिक कार्यों में नासाज़ सेहत के बावजूद वे बरसों से संलग्न रहे. ‘मधुकली’ को उन्होंने अपने गुरु मूर्धन्य संगीत मनीषी स्वर्गीय लालमणि मिश्र की स्मृति और वृंदगान की स्थापना के लिए संस्थागत रूप दिया. मध्यप्रदेश ही नहीं, बल्कि भारत भर में ‘मधुकली’ के पुरुषार्थ की सुगंध फैली है. साहित्य और संगीत के कई समारोहों तथा अन्य सुलभ तकनीकी माध्यमों के ज़रिए उनकी वृंदगान संगीत रचनाओं तथा मौलिक प्रयोगों को सराहा गया है. दिलचस्प बात यह है कि इस सांगीतिक यात्रा में वृंदगान के साथ परंपरागत छांदिक काव्य ही नहीं, नई कविता को भी उन्होंने अपनी कलात्मक कल्पनाशीलता से गेय बनाया. अपने इस उपक्रम में दर्जनों आधुनिक हिन्दी कवियों की रचनाओं को संगीत की ऐसी सोहबत दी है कि इन कविताओं में अनुपस्थित नियमित छंद का अभाव महसूस नहीं होता.
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यूं एक तरह से ओमप्रकाश चौरसिया साहित्य में पड़ी छंद और छंद-विहीन कविता की फांक को संगीत के सौहार्द्र से पाटने के सफल सेतु कहे जा सकते हैं. साहित्य के आधुनिक परिवेश में जब प्रायः नई कविता का ही साम्राज्य बोल रहा है, तो उसे वाचिक-शक्ति अर्जित करने तथा जन-संवादी बनाने के लिए संगीत से हाथ मिलाना हितकर होगा.
बकौल पं. चौरसिया नई कविता को संगीत का जामा पहनाना उनके लिए उलझन नहीं रहा. उनके अनुभव में नई कविता, संगीत के सांचे में अधिक सुगम और सुग्राह्य साबित हुई है. इन कविताओं में अपनी तरह से धुन का मीटर तय किया जा सकता है और शब्द-विशेष पर स्वरों को आघात देकर प्रभावी बनाया जा सकता है. भाषा, भाव और कथ्य की दृष्टि से अलहदा तेवरों की इन कविताओं में सांगीतिक विचारशीलता के नए आयाम आप खुले हैं. मधुकली के वृंदगान की आवृति में कबीर, तुलसी, पद्माकर से लेकर टैगोर, माखनलाल चतुर्वेदी, मैथिलीशरण गुप्त, बालकृष्ण शर्मा नवीन, नागार्जुन, निराला, मुक्तिबोध और अशोक वाजपेयी तक कवियों की एक बड़ी पांत है जो अपनी रची कविताओं के साथ एक नए तेवर में संवाद करती है.
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बीच के बरसों में खामोश रही ‘मधुकली’ ने वृंदगान की आवाज़ को लौटाते हुए हाल ही भोपाल में कुछ नई-पुरानी कविताओं की प्रस्तुति की. कलाकारों का एक उत्साही संकुल फिर मुखर हुआ. विरासत के प्रति नई पीढ़ी के इस रुझान का स्वागत किया जाना चाहिए.
(लेखक वरिष्ठ कला संपादक और मीडियाकर्मी हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)