शारदा सिन्हा का कहना है कि लोकगीत हमारे पुरखों की देन हैं जिनमें हर इंसान को अपने सुख-दुख की आवाज सुनाई देती है. यह हमारी तहजीब की रखवाली करने वाला वो अस्त्र है जिससे हर मुश्किल पार की जा सकती है.
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कुनकुने दिन और बर्फीली रातों वाला दिसंबर का महीना. करीब छत्तीस घंटे की थका देने वाली यात्रा कर बिहार की ख्यात लोक गायिका शारदा सिन्हा सुबह-सुबह भोपाल उतरी हैं. वे अपने शिक्षाविद पति बीके सिन्हा के संग आई हैं. चार घंटे के आराम के बाद मालवा के जग प्रसिद्ध पर्यटन केंद्र माण्डू के लिए निकलना है. यानी करीब 8 घंटे का सफर और... वे मप्र संस्कृति विभाग की कला अकादमी द्वारा आयोजित माण्डू उत्सव की शुभारंभ संध्या, भोजपुरी गायन के लिए आमंत्रित की गई हैं. भोपाल से अपराह्न करीब 1 बजे माण्डू की यह यात्रा कार से शुरू होती है. साथ में अकादमी के निदेशक तथा आलोचक डॉ. कमला प्रसाद भी हैं! पहली बार शारदाजी से सामना होता है. उनकी शोहरत का प्रभाव पहले ही मन-मस्तिष्क पर छाया है. अभिवादन के साथ पहली भेंट. ओज और माधुर्य की मिली-जुली आभा से दीप्त मुख मंडल पर दो ही चीजें बरबस बोलती हैं- माथे पर बड़ी सी गोल बिन्दी और गिलोरी के रस से छलछलाते गाढ़े गुलाबी अधर. जैसे मिथिला का कोई श्रृंगार गीत फूट पड़ा हो. प्रथम परिचय में ही यह विख्यात लोक गायिका दंभ की दूरियां पाटती मुखर होती हैं- ‘ओ हो, क्या बढ़िया संगम हो रहा है इस यात्रा में. एक लोक गायिका, एक शिक्षाविद्, साहित्यकार-आलोचक और एक युवा पत्रकार....’ और सचमुच ही मालवा की ओर बढ़ते हुए यह संगम साहित्य, संस्कृति और कलाओं के विचार-मंथन से अपने-अपने निष्कर्षों के मोती चुनता सांझ ढले रूपमती और बाज बहादुर की प्रणय-स्थली पहुंच गया.
शारदाजी, यथा नाम तथा गुण की जीवंत प्रतिमूर्ति हैं. सरस्वती उनके पूरे व्यक्तित्व में बोलती है. लोक की चिंताओं में गहरी डूबी. सहज, विनम्र और स्वाभिमानी. वे भोजपुरी की अनन्य गायिका हैं जिन्होंने भोजपुरी की पूरी देशज परंपरा को अपनी स्मृति और कंठ-स्वर में अक्षुण्ण रखा है. शिक्षा शास्त्री पिता से बचपन में साहित्य के संस्कार मिले और ईश्वर प्रदत्त सुरीली आवाज का फन. यौवन की दहलीज छूती शारदा ने जब पहली बार बिरादरी के बीच अपना स्वर छेड़ा तो लोगों ने जी खोलकर इस होनहार कलाकार का स्वागत किया था. एचएचवी जैसी नामी कंपनी ने ‘मैथिली कोकिला’ नाम से एक कैसेट के जरिए इस नवोदित गायिका को पहचान के नए पंख दिए. आज शारदाजी के खाते में सौ से ज्यादा सीडी अलबम, कैसेट्स और हजार से ज्यादा देश-विदेश में हुए सफल संगीत समारोहों की उपलब्धियां हैं. वे फिल्मों के लिए भी लोकगीत गाती रही हैं. राष्ट्रपति ने उन्हें पद्म भूषण से अलंकृत किया है तथा संगीत नाटक अकादमी नई दिल्ली ने भी उनको पुरस्कृत कर उनकी लोकधर्मी कला का मान बढ़ाया है.
हमारी कार के ड्राइवर ने भोपाल की सरहद छोड़ते ही खुद की पसंद का फिल्मी गानों का कैसेट बजाना शुरू किया तो उस कानफोड़ू-कर्कश संगीत को हम दो मिनट भी नहीं पचा पाए. हमारी आपत्ति पर ड्राइवर मान गया. शारदाजी की व्यथा यहीं से शुरू हो गई- ‘भू-मंडलीकरण के इस दौर में पूरी दुनिया की संस्कृति दांव पर लगी है. बाजार के बीहड़ में सबकुछ इतना घालमेल भरा है कि असलियत को पहचानना मुश्किल हो गया है. दुर्भाग्य से लोक संगीत की मौलिकता भी अब नष्ट हो रही है. अगर हमने समय रहते इस धरोहर की रक्षा नहीं की तो एक दिन मिट्टी की सौंधी गंध से हम सब महरूम हो जाएंगे.’
डॉ. कमला प्रसाद ने इस बीच जोड़ा, ‘शारदाजी एक ही उपाय है कि अधिक से अधिक दस्तावेजीकरण हो लोक कलाओं का. इस दिशा में गंभीरता से काम होना चाहिए. हो भी रहे हैं लेकिन वे पर्याप्त नहीं. प्रयासों में तेजी आनी चाहिए. नई तकनीक का इस्तेमाल करने में संकोच नहीं होना चाहिए. लोग अपने पक्ष में उसका भरपूर उपयोग करें.’ ‘हम एक क्षण भी नहीं गवा रहे.’ शारदाजी फिर मुखर हुईं, ‘मैंने भोजपुरी के हजारों गीत संग्रह किए. नए-पुराने सब हैं उसमें. उन्हें पारंपरिक धुनों में भी संगीतबद्ध किया.’ इस बीच शारदाजी के पति ने जानकारी दी कि भारत ही नहीं, विदेशों में भी उनके गाए लोकगीतों को लोग पसंद कर रहे हैं. इनमें नई पीढ़ी के श्रोताओं की तादाद बढ़ी है. मॉरीशस गई तो वहां समारोह स्थल पर उनका ही एक गीत बज रहा था और फरमाइशें आश्चर्य में डाल रहीं थी. लोगों को उनके गाए पूरे-पूरे गीत याद हैं.
शारदाजी कहती हैं, ‘मैं मानती हूं कि हमने अगर इस जीवन में अपने को लोक संगीत के लिए खपाया है तो उसकी थोड़ी बहुत सार्थकता यही है.’
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शारदाजी की मांग और लोकप्रियता का आलम यह है कि भारत के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री से लेकर आम आदमी तक उनका श्रोता है. इसे वे लोक गीत-संगीत की ताकत मानती हैं. सवाल किया, लेकिन शारदाजी, फिल्मी लटकों-झटकों वाले बाजारू संगीत के दौर में अचानक लोकगीतों की ओर समाज का रुझान...?
‘देखिये, लोकगीत हमारे पुरखों की देन हैं जिनमें हर इंसान को अपने सुख-दुख की आवाज सुनाई देती है. यह हमारी तहजीब की रखवाली करने वाला वो अस्त्र है जिससे हर मुश्किल पार की जा सकती है.’ शारदाजी इस बीच थोड़ी क्षुब्ध होती हैं, ‘लेकिन हम वाकई अजीब से संक्रमण भरे दौर से गुजर रहे हैं. तरक्की के नाम पर यह कैसी फितरत कि हम अपनी अस्मिता को ही दांव पर लगाएं हुए हैं. हम संयम से सोच-समझकर कदम बढ़ाएं, बदहवास न भागें. मुझे यह जानकर अफसोस होता है कि बदलती जीवन पद्धति के कारण कई घर-परिवारों से लोक-संस्कार गायब हो रहे हैं. जब वे नहीं बचेंगे तो लोक गीत-संगीत की धारा सूख जाएगी. यह कला सिर्फ चन्द गायकों के हवाले से नहीं बचाई जा सकती. आखिर हमारी पहचान का भी प्रश्न है. भारत अखिल विश्व में आखिर किस चीज के कारण गुरू बना हुआ है, उसी महान संस्कृति के कारण ही तो. हम परिवर्तन की कोई हद तो तय करें.’’
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फिर मैंने सवाल किया, आपका क्या सुझाव है? शारदाजी ने स्फूर्त भाव से कहा- ‘मेरा सुझाव है घर-परिवार में लोक संस्कृति की रक्षा के लिए स्त्री को चेतने की जरूरत है. आखिर संस्कारों के क्रियाकलापों में उसकी ही केन्द्रीय उपस्थिति रहती है. लेकिन नई पीढ़ी की लड़कियों का अपनी नानी-दादी या परिवार की बुजुर्ग पीढ़ी से सांस्कृतिक संवाद खत्म हो रहा है. उनकी रुचियां बदल रही हैं. शादी-ब्याह या अन्य संस्कारों के अवसर पर वे हो-हल्ले भरा संगीत और नाच-गाना पसंद करती हैं लेकिन संस्कारों के पीछे छिपे असल सत्य को जानने-समझने में उनकी रुचि दिखाई नहीं देती. मेरी राय है कि एक स्त्री में पूरा परिवार संस्कारित करने की ताकत होती हैं.’
स्त्री की भूमिका और उसके योगदान पर इस बीच बातों का सिलसिला गंभीर विमर्श का रूप लेता गया.
शारदा सिन्हा ने कहा कि स्त्री को यह नहीं भूलना चाहिए कि उसके बुनियादी सरोकार क्या हैं? वह इसी के बल पर ही तो महान कहलाई है. घर में स्त्री लोक जीवन और गृहस्थ जीवन की धुरी है. संतानोत्पति से लेकर जीवन के प्रत्येक कार्य में स्त्री का केन्द्रीय स्थान होता है. माता-पिता, सास-ससुर, देवर-जेठ, भाई-बहन आदि रिश्तेदारों के संबंधों का ताना-बाना स्त्री परिधि से बुना जाता है. संबंधों का विकास स्त्री के कारण हुआ. स्त्री पत्नी-माता, बहू, बेटी, सास एक साथ हो सकती है. यहां तक कि पुरुष प्रधान समाज के संगठन में स्त्री ने पुरुष के व्यक्तित्व में अपना वजूद तक मिला दिया.'
उन्होंने आगे कहा, 'स्त्री मनुष्य या मानव में लीन हो गई. यही कारण है कि नेतृत्व और समाजशास्त्री जब विकास की बात करते हैं, तब केवल ‘मनुष्य’ का नाम लेते हैं जबकि मनुष्य में स्त्री और स्त्री की मेधा उसमें समाहित होती है. मातृत्व एक ऐसा ही उदाहरण है. स्त्री ने कभी अपने नाम की चिंता नहीं की. स्त्री का यह त्याग उसे महानता के शिखर पर खड़ा कर देता हैं. पुरुष हमेशा ही उसका ऋणी होता है. स्त्री व्यापक सहिष्णुता का नाम है. जिस तरह धरती सबकुछ सहकर भी मनुष्य को अपना सत्व प्रदान करती है, उसी प्रकार स्त्री भी पुरुष को प्रारंभ से अपना सत्व समर्पित करती आई है.'
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शारदाजी के संवाद ने स्त्री और परंपरा की आपसदारी की ओर रुख किया.
स्त्री, मानव परंपरा, संस्कृति और कला की जननी है. पुरुष के शिकार पर जाने से पूर्व स्त्रियों का हथियारों की तैयारी, शुभ का स्मरण आदि में परंपरा की शुरुआत छिपी है. आखिर परंपरा क्या चीज है? मनुष्य जीवन के प्रारंभिक विकास में ही आचरण के कुछ ऐसे नियमों की सर्जना हुई, जिन्होंने परंपरा का रूप धारण कर लिया. प्रारंभ में स्त्री प्रधान सामूहिक जीवन के कुछ नियम बने और यही नियम इतने प्रीतिकर हो गए कि एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी उसे सहर्ष अपनाने लगी, यही अपरिहार्य और जीवन को स्फूर्त करने वाले नियम ‘परंपरा’ कहलाए. परंपरा की नींव डालने वाली स्त्री के साथ पुरुष ने यदि सबसे अधिक किसी चीज की सर्जना की है तो वे परंपराएं हैं. प्रत्येक समाज, देश में परंपराओं का अक्षुण्ण भंडार देखा जा सकता है. आज भी दैनिक जीवन में स्त्री की भागीदारी को सौ प्रतिशत रेखांकित और सुनिश्चित करती ये परंपराएं मनुष्य समाज और विश्व को संस्कार और मर्यादा प्रदान करती हैं.'
'बात परंपरा के साथ संस्कृति से स्त्री के गहरे रिश्ते की भी है. संस्कृति का ताना-बाना स्त्री के आसपास ही बुना गया है. संस्कृति मनुष्य को एक उदात्त जीवन की ओर ले जाती है और उसके जीवन को सुनिश्चित करती है. इसी मूल भाव से एक स्त्री ने संस्कृति की नींव रखी होगी. धुरी के दो पहियों की तरह स्त्री-पुरुष को लोक में प्रतिष्ठित करने के लिए परंपरा और संस्कृति की जरूरत महसूस की गई और इसका सबसे बड़ा दायित्व संभाला स्त्री ने. प्रारंभ से ही स्त्री-पुरुष के कार्य बंट गए थे. पुरुषों ने अधिक मेहनत के काम शारीरिक बनावट मजबूत होने के कारण खुद संभाले और शारीरिक रचना में कोमलता होने के कारण स्त्री ने घर-गृहस्थी के छोटे-छोटे हजारों काम संभाले. विनयजी आप गौर करें कि पुरुष कृषि उत्पाद, राजसत्ता, सेना संगठन, युद्ध, भवन निर्माण जैसे श्रम साध्य कार्यों को करने में सक्षम माना गया.'
विनयजी, 'मेरी ही नहीं शास्त्रों की मान्यता है कि स्त्री विश्व की सभी कलाओं की जननी है. शिल्प, नृत्य, संगीत, चित्र आदि ललित कलाओं के विकास में स्त्री का ही हाथ है. मनुष्य जीवन को उत्तरोत्तर उन्नति की ओर ले जाने का श्रेय स्त्री को है. फिर जन्म, उत्सव, नृत्य आदि के चित्र बनाए गए होंगे. स्थापत्य कला का जन्म भी स्त्री की आवश्यकताओं पर आधारित है. इन दोनों कलाओं के प्रारंभिक चरणों को शिल्पकला में गिना जा सकता है. घर या मकान में मिट्टी की दीवार और उन पर रेखांकन, मिट्टी के बर्तन और मूर्तियां बनीं. वस्त्र बने, जीवन में कला का विकास हुआ. इन कलाओं की निर्मात्री या सृजन करने वाली स्त्री ही है. विश्व की सभी शिल्प कलाओं के केन्द्र में स्त्री ही है. प्रत्येक वस्तु में सौन्दर्य बोध की पहचान और उसमें कलात्मक अभिव्यक्ति की खोज महिलाओं की है. दैनन्दिन उपयोग में आने वाली भौतिक सामग्रियों में कला और सौन्दर्य के विभिन्न आयामों को भर देने का काम महिलाओं का ही है. यही कारण है कि वास्तुकला और अन्य शिल्प तथा ललित कलाएं संस्कृति समय के प्रामाणिक सोपान गिने जाते हैं. शिल्प परंपरा में संस्कृति के शेष चिह्न मौजूद होते हैं. जो मनुष्य के भूत, वर्तमान और भविष्य को परिभाषित करने और गढ़ने में सक्षम होते हैं.'
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'आप गौर करेंगे कि कलाओं के विस्तार में प्रकृति का जितना हाथ है, उतना ही स्त्री का भी हाथ है. भौगोलिक परिस्थितियां भिन्न-भिन्न प्रकार के शिल्पों के निर्माण में अहम भूमिका निभाती हैं. प्राकृतिक रूप से उत्पन्न होने वाली वस्तुओं के आधार पर मनुष्य ने अपनी कल्पना और रचना शक्ति से विविध शिल्पों का निर्माण किया है. आदिम शिल्पों से लोक शिल्पों की परंपरा का आगमन हुआ. यूरोपीय अवधारणा के अनुसार शिल्प कला धरती पर किसी दूसरे लोक से आई है. किसी समय दूसरे लोक से अप्सराएं आईं और उन्होंने शस्य-श्यामला धरती का सौन्दर्य देखकर धरती की महिलाओं को बहुत सी शिल्पकलाओं की शिक्षा दी और वे अपने लोक में चली गईं.’
'यह एक काल्पनिक मिथक है, पर सच यह है कि वे अनाम महिला अप्सराएं इस धरती की ही होंगी. संस्कृति के प्राचीनतम भौतिक आधार के चिह्न बहुत कम शेष बचे हैं. जिनकी खोज जारी है. लेकिन जब पाषाण युगीन घोषण हुई तो दुनिया में अजीब सी हलचल मच गई थी, बाद में स्पेन की और मध्यप्रदेश स्थित भीम बैठका की गुफाओं में लिखे गए चित्रों के आधार पर सारे विश्व को मानना पड़ा कि कला का उद्भव उत्तर पाषाण युग में हुआ.'
शारदाजी क्या आपको नहीं लगता है कि स्त्री का यह रूप कुछ बदला है?
देखिए, हमें चकाचौंध से थोड़ा हटकर अपनी निगाह को वहां ले जाना होगा जहां स्त्री आज भी समर्पित भाव से अपनी मूलगामी चेतना से महत्वपूर्ण सृजन कर रही है. आज भी परंपरा में स्त्री की भूमिका महत्वपूर्ण है. पहले की स्त्री रूढ़ियों से जकड़ी हुई दिखाई देती है, परन्तु आज की स्त्री परंपरा के भीतर रहकर भी स्वतंत्र विचार, स्वायत्त व्यक्तित्व और आत्मनिर्भरता पसंद करती है. इसकी वजह से कहीं न कहीं परंपराओं के विरोध के स्तर भी उभरते नजर आते हैं, लेकिन विचारणीय यह है कि जितना परंपराओं ने मनुष्य को दिया है, उतना किसी भी चीज ने उसे उपकृत नहीं किया है. परंपराओं से किसी का बाहर होने का मतलब अपनी संस्कृति से अलग होना है. हर समय परंपराएं रही हैं और उनमें रहकर भी स्त्रियों ने अपने देश के लिए अपने-अपने क्षेत्र में बड़े कार्य किए हैं. इंदिरा गांधी, बछेन्द्री पाल, कल्पना चावला, पी.टी. उषा, सानिया मिर्जा, मालिनी राजुरकर, गिरजादेवी, सुब्बलक्ष्मी, सुलोचना वृहस्पति, लता मंगेशकर, एन. राजम्, तीजन बाई, सुष्मिता सेन, किरण बेदी आदि ने स्वयं सिद्धा की मिसाल कायम करते हुए विश्व भर में नाम कमाया है. थोड़ा पीछे जाएं तो दुर्गावती, अवन्ती बाई, अहिल्या बाई, झांसी की रानी लक्ष्मी बाई, सरोजिनी नायडू आदि ने भी यही कार्य किया है.'
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'परंपरा सदैव जीवंत होती है, उनमें समय के साथ चलने की स्वाभाविक शक्ति होती है. आज का दौर स्त्रियों के लिए पुरुषों की बराबरी का है. हर क्षेत्र में स्त्रियां कंधे से कंधा मिलाकर आगे बढ़ रही है. चाहे नृत्य हो, संगीत हो, चित्रकला हो अथवा अन्य कला क्षेत्र हो, सब में स्त्रियां अपनी नैसर्गिक निष्ठा से जगह बना रही हैं. चाहे खेल हो अथवा सिनेमा, साहित्य हो अथवा अन्य रचना कर्म, स्त्रियां पुरुषों से पीछे नहीं हैं. हर अनुशासन में महिलाएं प्रथम विजेता होती जा रही हैं. उन्हें समय भी रेखांकित करता जा रहा है. सामाजिक, सांस्कृतिक और औद्यौगिक क्षेत्रों में भी आज महिलाओं का दबदबा है. मेरा कहने का मतलब बहुत साफ है कि यह समय परंपरा में स्त्रियों का है. जब तक स्त्रियां हैं तब तक इस धरती पर परंपराएं कायम हैं.'
'मैं विश्वासपूर्वक कह सकती हूं कि वह दिन दूर नहीं है जब स्त्रियां अपनी योग्यता में सबसे आगे होंगी. स्त्री को शक्ति माना गया है, शक्ति के रूप में उसकी पूजा शास्त्र और लोक दोनों में प्रचलित हैं. यद्यपि पश्चिम में स्त्री की जैसी स्वतंत्रता आई है, वैसी उन्मुक्त आजादी की कल्पना मात्र भी भारतीय समाज में आ गई तो फिर हमारी भारतीय संस्कृति को अधोपतन से कोई नहीं बचा सकता. फैशन और रहन-सहन के तौर-तरीके पश्चिम से लिए जा सकते हैं लेकिन अंदर से सबकुछ बदल गया तो हमारी भारतीयता का गौरव करने लायक कुछ भी नहीं बच सकता.'
(लेखक वरिष्ठ कला संपादक और मीडियाकर्मी हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)