शुरुआत में पाकिस्तान सरकार ने भारत से आने वाले सभी विस्थापितों के लिए मोहाजिर शब्द का इस्तेमाल किया था. उस वक्त तक मोहाजिर शब्द काफी सम्मानित था और विशेषाधिकार जैसा माना जाता था.
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1947 में भारत विभाजन के उस काले अध्याय में कई दुर्भाग्यपूर्ण और दुखदायी घटनाएं हैं, जिनमें से एक है भारत से उर्दू बोलने वाले मुसलमानों का बड़ी संख्या में पाकिस्तान जाना. उन्हें वहां ‘मोहाजिर’ नाम दिया गया. तब सिंधी हिंदू जो उन दिनों पाकिस्तान में रह रहे थे, उनकी जमीनें और संपत्तियां इन मोहाजिरों को सौंप दी गईं क्योंकि सिंधी हिंदू भारत विस्थापित हो गए थे. ये माना जाता है कि ‘मोहाजिर’ शब्द अरबी शब्द हिजरत से लिया गया है, जिसे पैगंबर मोहम्मद साहब के मक्का से मदीना विस्थापित होने की घटना से जोड़ा जाता है.
शुरुआत में पाकिस्तान सरकार ने भारत से आने वाले सभी विस्थापितों के लिए मोहाजिर शब्द का इस्तेमाल किया था. उस वक्त तक मोहाजिर शब्द काफी सम्मानित था और विशेषाधिकार जैसा माना जाता था. विभाजन के फौरन बाद, उन्होंने पाकिस्तान के कई क्षेत्रों में अपनी जगह बनानी शुरू कर दी, जैसे बिजनेस, पॉलिटिक्स, ब्यूरोक्रेसी समेत और भी कई महत्वपूर्ण सामाजिक पदों पर. यहां तक कि मोहाजिर जमात-ए-इस्लामी और जमीयत-ए-उलेमा जैसे पाकिस्तानियों की श्रद्धा से जुड़े संगठनों में भी पर्याप्त रूप से पहुंच गए और अपने प्रयासों से उन्होंने धीरे-धीरे विभिन्न संस्थाओं में अपना प्रभाव दिखाना शुरू कर लिया.
जुल्फिकार अली भुट्टो की संकीर्ण सोच
अफसोस की बात है कि अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं और संकीर्ण सोच से प्रभावित जुल्फिकार अली भुट्टो ने राजनीति में अपनी जगह बनाने के लिए मोहाजिरों के खिलाफ कई ऐसे कानून पेश करने शुरू कर दिए जो मोहाजिरों के विकास और बढ़ती लोकप्रियता पर लगाम लगाते हों. मोहाजिरों के प्रति भय से प्रेरित होकर 1972 में एक और कड़ा कदम भुट्टो ने उठाया, सिंधी लैंग्वेज एक्ट लाकर उसे आधिकारिक भाषा का दर्जा दे दिया. ये उर्दू भाषा का स्पष्ट तौर पर गला घोंटने वाला कदम था. इतना ही नहीं उर्दू बोलने वाले हजारों अधिकारियों को नौकरी से निकाल दिया गया. इस बात को भी नजरअंदाज करते हुए कि पाकिस्तान में उर्दू भी एक ताकतवर माध्यम थी और जो पूरे देश को एक स्वर में बांध चुकी थी.
सिंधी और मोहाजिरों के बीच डाला फूट
इतिहास सभी पहलुओं को देखते हुए निष्पक्ष रूप से काम करता है और ये जुल्फिकार अली भुट्टो था, जो सिंधी और मोहाजिरों के बीच बड़े ही बेशर्मी से पक्षपातपूर्ण तरीके से दरार डालने के लिए जिम्मेदार था. भुट्टो ने दोनों समुदायों के बीच नफरत के गहरे बीज बो दिए और वैमनस्य को बढ़ावा दिया. इसके बाद 1971 में भुट्टो के प्रचंड नफरत को बढ़ावा देने और दूसरे असहिष्णु पाकिस्तानियों की विकृत सोच व भाषाई भेदभाव की वजह से बांग्लादेश भी एक अलग देश के रूप में सामने आया.
ऐसे बिगड़ी मोहाजिरों की दशा
भुट्टो के लगातार विरोधी कदम के मोहाजिरों की दशा बिगड़नी शुरू हो गई थी. खास बात ये है कि हाशिए पर किए जाने के बाद अब चूंकि अस्तित्व बचाने का सवाल बन गया था, 1984 में अल्ताफ हुसैन की अगुवाई में मोहाजिर कौमी मूवमेंट (एमक्यूएम) अस्तित्व में आया और 1987 से काफी चमका भी. उनका जोर अपने अधिकारों और सम्मान पर था, जिसने पाकिस्तानी सरकार और मिलिट्री की रातों की नींदें हराम कर दीं. इसे मोहाजिरों की बढ़ती लोकप्रियता से भय के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए, पाकिस्तानी सरकार ने बड़े पैमाने पर मोहाजिर एक्टिविस्ट्स को फेक एनकाउंटर में मारना शुरू कर दिया और राजनीतिक व सामाजिक परिदृश्य से हटाने के लिए कई युवाओं को काफी यातनाएं दी गईं.
एमक्यूएम ने विदेशों से सरकार विरोधी अभियान शुरू कर दिया और ब्रिटेन, पाकिस्तान को निशाने पर लेने का एक ऐसा ही सेंट्रल प्वॉइंट था. पूरी सरकारी मशीनरी अपने सभी संसाधनों के साथ मोहाजिरों से छुटकारा पाने में जुट गई. लेकिन वो लगातार साबित करते रहे कि उनकी आवाज को दबाना इतना आसान नहीं. वो लगातार अपनी मौजूदगी दिखाते रहे.
पाकिस्तान में मोहाजिरों शोषण
आज की तारीख में भी मोहाजिरों को पाकिस्तान में दूसरे दर्जे का नागरिक समझा जाता है और जमकर उनका शोषण किया जाता है. इसमें भी हैरत नहीं होनी चाहिए कि शायद वो सोचते होंगें कि उनके पुरखों ने भारत से 1947 में पाकिस्तान आने की गलती ना की होती, तो आज वे भारत में इज्जत की जिंदगी बिता रहे होते. यहां ये बताना भी मुनासिब होगा कि कई उर्दू बोलने वालों ने पाकिस्तान जाने के प्रस्ताव को ठुकराते हुए भारत में ही रहने का फैसला किया था और आज उन्हें इस बात का कोई रंज नहीं है. इस वर्ग की बौद्धिक जमात में कैफी आजमी, मजरूह सुल्तानपुरी, असारुल हक मजाज, जां निसार अख्तर आदि शामिल हैं. हालांकि उर्दू कवि जोश मलीहाबादी पर फैसला लेने में शायद चूक हो गई, जबकि उन्हें राजनीति के कई दिग्गजों ने भारत में रुकने की सलाह दी थी. लेकिन उन्होंने पाकिस्तान जाने का फैसला किया. उनको वहां नीचा दिखाया गया, उनका मजाक उड़ाया गया, उनकी सारी बौद्धिक रचनाओं को लूट लिया गया और उनपर भारतीय एजेंट होने का इलजाम भी चस्पा कर दिया गया. बेचारे जोश मलीहाबादी, पाकिस्तान की धरती पर मोहभंग होकर दुख से मरे.
मोहाजिरों को फिर से मिले सम्मान
ये बिलकुल सही वक्त है कि जब पाकिस्तान को अपना आत्मनिरीक्षण करना चाहिए और मोहाजिरों के सम्मान और मोहाजिरों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मानवाधिकारों को वापस लौटाना चाहिए, जो पाकिस्तान बनने के शुरुआती दौर में उन्हें हासिल थे.
(लेखक एक रिटायर्ड आईपीएस अफसर हैं, एक सुरक्षा विशेषज्ञ हैं और मॉरीशस के प्रधानमंत्री के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार भी रह चुके हैं. ये उनके निजी विचार हैं.)