भारत रत्न सर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया की आज 160वीं जयंती है. वे भारत के बेहतरीन इंजीनियर, विद्वान, राजनेता और मैसूर के दीवान थे. उन्हीं की याद में भारत में हर साल 15 सितंबर को अभियंता दिवस (Engineer's Day) मनाया जाता है.
एक बार आजादी से पहले एक ट्रेन कहीं जा रही थी, फर्स्ट क्लास के डब्बे में भारतीय गिनती के दिखते थे और ऐसे में कोई साधारण भारतीय दिख जाए तो उसका मजाक बनाए बिना नहीं चूकते थे और वही हो रहा था उस भारतीय के साथ. वो लगातार उसका मजाक उड़ा रहे थे, वो उसे अनपढ़ समझ रहे थे, जबकि वो बिना उनकी तरफ ध्यान दिए कुछ सुनने की कोशिश कर रहा था, बार बार कान को हाथों से सिकोड़ रहा था. अचानक उस व्यक्ति ने ट्रेन की चेन खींच दी, सारे अंग्रेज बौखला गए. ट्रेन रुक गई और सभी उस व्यक्ति पर गुस्सा होने लगे. तभी ट्रेन का गार्ड आया और उससे चेन खींचने की वजह पूछी. उसने कहा, आगे ट्रेन की पटरी टूटी हुई है, गार्ड ने कहा, तुम्हें कैसे पता? उसने कहा मैं ध्यान से सुन रहा था, ट्रेन की आवाज बदल गई है, मुझे गड़बड़ लग रही है. गार्ड उसके साथ थोड़ी दूर तक ट्रेन के आगे पटरियों पर चैक करने गया और वाकई में ट्रेन की पटरी एक जगह से उखड़ी हुई मिली, जोड़ खुले हुए थे, नट बोल्ड अलग पड़े हुए थे. आप समझ ही गए होंगे कि कौन था ये जीनियस? एम विश्वेश्वरैया के नाम पर ‘इंजीनियर्स डे’ ऐसे ही नहीं मनाया जाता.
एम विश्वेश्वरैया का जितना सम्मान होता था, उसके बारे में सबको पता है लेकिन किसी को ये नहीं पता कि तमाम मुद्दे ऐसे होते थे, जिन पर उनका बड़े बड़े दिग्गजों से विवाद भी होता था. देश या जनता के हित में जो उन्हें ठीक लगता था, उसके लिए वो गांधीजी और नेहरूजी की बातों का विरोध करने से बाज नहीं आए. एक बार गांधीजी ने तो सार्वजनिक बयान दे दिया था कि विश्वेश्वरैया और उनके विचारों में मतभेद है. दरअसल वो बात कर रहे थे इंडस्ट्रीज को लेकर, विश्वेश्वरैया हमेशा बड़ा सोचते थे, किसी भी समस्या का बड़ा समाधान चाहते थे, वो चाहते थे कि भारत में हैवी इंडस्ट्रीज को लगाया जाना चाहिए, जिससे देश आत्मनिर्भर बने. उन्होंने सिल्क, चंदन, स्टील और मेटल इंडस्ट्री को जापान और इटली के विशेषज्ञों की मदद से और अधिक विकसित भी किया था. जबकि गांधीजी कुटीर उद्योगों के हिमायती थे. गांधीजी से मिलकर भी विश्वेश्वरैया ने उन्हें काफी समझाया था. इधर नेहरूजी को भी उन्होंने कई खत लिख डाले थे, जब आजादी के बाद उन्हें लगा कि संघीय सरकार प्रांतों के मामले में ज्यादा दखल दे रही है. वो मैसूर राज्य के दीवान रहे थे, विकेन्द्रीकऱण में यकीन रखते थे.
उन दिनों बिजली बेहद कम शहरों में थी, जिन शहरों में थी भी तो आती बहुत कम थी. ऐसे में लैम्प, लालटेन के साथ साथ मोमबत्तियों का चलन काफी बढ़ गया था. विश्वेश्वरैया के बारे में मशहूर था कि वो दो मोमबत्तियां अपने घर पर रखते थे. इस मोमबत्ती वाली घटना से आप उनकी ईमानदारी का अंदाजा बखूबी लगा सकते हैं. जब वो घर पर ऑफिस का काम करते थे, तो ऑफिस से मिली मोमबत्ती को जलाते थे, लेकिन जब उन्हें निजी काम करना होता था तो अपनी निजी मोमबत्ती जलाते थे. हालांकि वो राज्य के दीवान थे, एक तरह से मुख्यमंत्री जैसी उनकी हैसियत थी. लेकिन उनको ये गवारा नहीं था कि निजी कामों के लिए जनता के टैक्स के पैसे से खरीदी गई मोमबत्ती तक जलाएं.
वो सिविल इंजीनियर थे, जाहिर है गणित से उनका बेहद लगाव था, ब्रिटिश सरकार की सरकारी नौकरी में रहते हुए भी आंकड़ों से उनका प्रेम कम नही हुआ था. जब भी कोई रिपोर्ट पेश करते थे, ना जाने कहां कहां से आंकड़े जुटाकर समस्याओं का समाधान सुझाते, वो भी उस युग में जब ना कोई गूगल हुआ करता था और ना ही ऐसी रिसर्च संस्थाएं, जिनके पास य़े आंकड़े रहते थे, वो फिर भी सरकारी-गैरसरकारी रिकॉर्ड्स से जुटाते थे. ऐसे ही 1920 में उन्होंने एक किताब लिखी थी ‘रिकंस्ट्रक्टिंग इंडिया’, इस किताब में उन्होंने लिखा कि इस वक्त देश में 19,410 पोस्ट ऑफिस हैं. उनकी किताबें इतिहास के शोधार्थियों के लिए भी इस दिशा में काफी उपयोगी हैं.
उनकी मौत के वक्त उनके पास केवल 36000 रुपए बचे थे, ना जाने कितने बच्चों की फीस वो भरते थे. किसी को नौकरी से निकालते नहीं थे. उनका क्लर्क उनके साथ 60 साल से काम कर रहा था, ड्राइवर 30 साल से काम कर रहा था, कुक 36 साल से और उनका घरेलू सेवक 50 साल से उनके साथ था. उनकी दो पत्नियों की मौत काफी पहले ही हो गई थी. तीसरी पत्नी से उनकी बनी नहीं थी, तो वो अलग रहती थीं. हर महीने उनको बिना मांगे या कोर्ट के ऑर्डर के वो उन्हें लगातार पैसा भेजते रहते थे, यहां तक कि उनकी मौत के बाद खुद जाकर अंतिम संस्कार भी किया.
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