Madhya Pradesh Chunav: प्यास और पलायन से जूझते बुंदेलखंड की कहानी कोई नई नहीं है. बुंदेलखंड की इस बदहाली का जिम्मेदार कौन है ये तो नहीं पता, लेकिन यहां के लोगों ने अब शायद उम्मीद छोड़ दी है.
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Ground report from Bundelkhand: प्यास और पलायन से जूझते बुंदेलखंड की कहानी कोई नई नहीं है. चुनाव आते हैं, वादे किए जाते हैं, सरकारें बनती और गिरती हैं. लेकिन, बुंदेलखंड की ना तस्वीर बदलती है और ना यहां रहने वालों की किस्मत. मध्य प्रदेश के टीकमगढ़, छतरपुर, दतिया, सागर, दामोह और निवाड़ी जिले बुंदेलखंड के इलाके का हिस्सा हैं. आंकड़ों के मुताबिक, काम की तलाश में बड़े शहरों की ओर जाने वालों में टीकमगढ़ के लोगों की संख्या सबसे ज्यादा है. गुजरते सालों के साथ क्या टीकमगढ़ की तकदीर बदल पाई है. इसका पता लगाने के लिए Zee News की टीम बुंदेलखंड के टीकमगढ़ पहुंची...
पीने का पानी लेने के लिए जाना पड़ता है 3-4 किलोमीटर
Zee News की टीम टीकमगढ़ जिले में आने वाले दो गांव बनगांय और कौड़िया पहुंची. इन दोनों गांवों में जो तस्वीरें देखने को मिलीं वो सवाल खड़े करती हैं कि क्या ये वाकई 21वीं सादी के भारत की तस्वीर है. वो भारत जो बुलेट ट्रेन और चंद्रयान के सपने को साकार करने की हिम्मत रखता है. टीकमगढ़ के बनगांय गांव में जब हमारी टीम पहुंची तो गांव में ज्यादातर महिलाएं और बच्चे ही दिखाई दिए. महिलाओं ने बताया ना पानी है और ना एक साल से लाइट आई है. पीने का पानी लेने सुबह 3-4 किलोमीटर दूर चलकर या साइकिल से जाना पड़ता है. गांव में बुज़ुर्ग और महिलाएं ही ज्यादा हैं, क्योंकि पुरुष मजदूरी के लिए ग्वालियर, झांसी और दिल्ली जैसे बड़े शहरों में चले गए हैं.
कुछ घरों में लगे तालों पर लग गया है जंग
हमारी टीम ने गांव की महिलाओं से बात की. इन्हीं महिलाओं में से एक सुनीता ने हमारी टीम को गांव के वो घर दिखाने लगीं. सुनीता 6 साल पहले शादी करके इस गांव में बहू बनकर आई थीं. अब उनका एक छोटा बच्चा भी है. गोद में बच्चा लिए सुनीता ने हमारी टीम को गांव के उन घरों को दिखाया, जिन पर ताले लगे हुए हैं. कुछ ताले ते इतने पुराने हैं कि उन पर जंग भी लग गया है. घरों में रहने वाले लोग काम की तलाश में दूसरी जगहों पर चले गए हैं. कभी कभी आते हैं और फिर वापस चले जाते हैं. सुनीता कहती हैं इस बार दिवाली के बाद वो अपने पति के साथ ही दिल्ली चली जाएंगी, क्योंकि यहां गांव में कुछ नहीं है, ना उनके लिए ना उनके बच्चों के लिए.
पीने के पानी के लिए करनी पड़ती है कड़ी मेहनत
इसी गांव में हमें स्कूल ड्रेस पहने करीब 6-7 साल की एक बच्ची पानी के मटके ले जाते हुए दिखाई दी. पूछने पर बच्ची ने अपना नाम हीरा बताया. हीरा अक्सर स्कूल जाने से पहले और स्कूल से आने के बाद छोटी सी पहाड़ी पर बने अपने घर से गांव के एक हैंडपंप पर पानी लेने जाती है और ऐसे कई चक्कर लगाती है. लेकिन, हैरान कर देने वाली बात ये है कि जो पानी हीरा इतनी मेहनत से भरकर लाती है वो पीने लायक तक नहीं है. सिर्फ बर्तन कपड़े धोने के काम आता है. पीने का पानी बहुत दूर से लाना पड़ता है. इसलिए, हीरा की मां या पिता पीने का पानी भरने जाते हैं.
प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत बने घर पड़े हैं खाली
टीकमगढ़ जिले के ही एक और गांव कौड़िया भी Zee News की टीम पहुंची. सुबह सुबह Zee News की टीम जब कौड़िया गांव की आदिवासी बस्ती में पहुंची तो गांव की महिलाएं मटके और बाल्टी लेकर करीब 1 किलोमीटर दूर एक हैंडपंप पर पानी भरने जा रही थी. इनमें कई वृद्ध महिलाएं भी थीं. गांव में प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत कुछ आधे बने पक्के मकान तो दिखे, लेकिन उन पर ताले पड़े थे. लोग ईंट की दीवार खड़ी करके कामकाज के लिए बाहर चले गए.
पानी लाने के लिए हाथगाड़ी खरीदना सबके लिए मुमकिन नहीं
महिलाएं या तो कुंए से पानी लाती हैं या हैंडपम्प से. ज्यादातर महिलाएं हाथ में ही मटके पकड़कर ले जा रही थी तो किसी के पास लोहे की बनी हाथगाड़ी थी. हाथगाड़ी खरीदना भी सबके लिए मुमकिन नहीं है, क्योंकि उसकी कीमत ज्यादा होती है. महिलाओं ने बातचीत में बताया कि सिर्फ एक हैंडपंप है, जिसमें पीने लायक पानी आता है वो भी कभी कभी. गर्मियों में तो वो भी नहीं आता. गांव में कोई रोजगार ना होने के चलते ज्यादातर नौजवान पीढ़ी बाहर चली गई है. बुज़ुर्ग और महिलाएं ही बाकी हैं.
और अब कहानी के इस आखिरी और अहम किरदार से मिलिए नाम है बी एन लौंगसोर, अपनी बेबसी की कहानी बताते हुए उनकी आंखों में आंसू आ जाते हैं. बी एन लौंगसोर विकलांग हैं, कच्चा घर है जिसकी छत काली पन्नी से ढक दी है ताकि बारिश में पानी छत से ना टपके, कोई रोजगार नहीं है. खेती से जो मिल पता है उससे काम चला लेते हैं. गांव में पानी पीने के लिए नहीं है तो शौचालय में कहां से आएगा. इसलिए शौचालय को भंडार गृह बना लिया है. इस शौचालय को बनवाने में उन्होंने 6 हजार रुपए अपनी जेब से लगाए वो भी वापस नहीं मिले.
बुंदेलखंड की इस बदहाली का जिम्मेदार कौन है ये तो नहीं पता, लेकिन यहां के लोगों ने अब शायद उम्मीद छोड़ दी है.