नई दिल्लीः International Women's Day 8 मार्च को मनाया जाना इस बात की ओर बढ़ने की कोशिश है कि महिलाओं को उनके अधिकार मिलें और बराबरी का दर्जा भी. बराबरी की यह बहस अलग-अलग एंगल से बड़ी होती जाती है. यहां से इसका एक किनारा बाजार वाद को भी छूने लगता है.
दूसरी ओर, एशियाई देशों खासकर भारत और इसके पड़ोसी देशों पर महिला अधिकारों के हनन के आरोप लंबे समय तक लगते रहे हैं. इसमें सिर्फ भारत की बात करें तो यहां संस्कृति और लोक परंपराओं की वास्तविकता इन आरोपों को झुठलाया ही है, कमी शायद इस बात की रही कि या तो भारतीय संस्कृति का स्वरूप बाजारू नहीं हो सका या फिर दूसरे इसकी गहराई को समझ नहीं सके.
कुंभ की महिला साधु
भारतीय संस्कृति की पहचान का सबसे प्राचीन पारंपरिक दस्तावेज है महाकुंभ (Mahakumbh 2021) का आयोजन. लोक रंग में बिखरी इस परंपरा पर बारीक निगाह डालेंगे तो नजर आएंगें गंगा में डुबकी लगाते लोग, हाथों में त्रिशूलधारी नागा साधु, माथे पर त्रिपुंड लगाए विद्वान और विदुषी महिलाएं और इन्हीं में नजर आएंगी केसरिया-भगवा-पीली साड़ी पहनीं वह साध्वियां, जिन्हें महिला नागा साधु कहते हैं.
कुंभ में पिछले दिनों जूना अखाड़ा की पेशवाई की साथ इनकी भी पेशवाई निकली और भव्य स्वागत हुआ.
दशनाम संन्यासिनी अखाड़ा का मिला नाम
अखाड़ा परंपरा में सबसे प्राचीन है जूना अखाड़ा. इसी अखाड़े की कई शाखाओं में एक खास शाखा है, जिसे माई बाड़ा के नाम से जाना जाता है. माई बाड़ा, यानी कि वह अखाड़ा, जिनमें महिलाओं नागा साधु होती हैं. प्रयागराज में 2013 में हुए कुंभ में माई बाड़ा को और विस्तृत रूप देकर दशनाम संन्यासिनी अखाड़ा का नाम दिया गया.
इसके बाद से इनकी पेशवाई जूना अखाड़े के साथ ही भव्य होती है. हालांकि सदियों से परंपरा के तौर पर चले आ रहे माई बाड़ा को अभी लोक परंपरा में नहीं भुलाया जा सका है. इसकी एक वजह यह है जैसे कि पुरुष साधु बाबा जी कहलाते हैं, महिला संन्यासियों को माई कहा जाता है.
कितना कठिन है महिला का साधु बनना
एक दिलचस्पी हमेशा यह भी जगती है कि महिला नागा साधु का जीवन होता कैसा है? वे कैसे इस नए संसार में कदम रखती हैं, उनके लिए यह कितना कठिन है. दरअसल, महिला नागा साधुओं के लिए अलग से कोई प्रक्रिया नहीं होती है.
नागा संन्यासिन बनने से पहले अखाड़े के साधु-संत उस महिला के घर परिवार और उसके पिछले जन्म की भी जांच पड़ताल करते हैं. पिछले जन्म की जांच सामान्य जीवन के लिए यहग विषय थोड़ा जटिल-कठिन लग सकता है, साधु समाज के लिए आम बात है.
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इस तरह की परीक्षा में उतरती हैं खरी
इसके बाद संन्यासिन बनने से पहले महिला साधु को यह साबित करना होता है कि उसका अपने परिवार और समाज से अब कोई मोह नहीं है. इस बात की संतुष्टि करने के बाद ही आचार्य महिला को दीक्षा देते हैं.
इसके बाद वह अपने सांसारिक वस्त्र उतारकर पीला वस्त्र धारण कर लेती हैं. साधु बनने से महिलाएं भी अपने केश उतारकर खुद ही अपना ही पिंडदान करती हैं. इसके बाद नदी स्नान और तब शुद्ध होकर महिला नागा संन्यासिनों की साधना शुरू हो जाती है.
ऐसी होती है दिनचर्या
अवधूतानी मां पूरा दिन भगवान का जाप करती हैं और सुबह ब्रह्ममुहुर्त में उठकर शिव आराधना करती हैं. शाम के समय वह भगवान दत्तात्रेय की पूजा करती हैं. दोपहर में भोजन के बाद भी वह शिव आराधना करती हैं. अखाड़े में महिला संन्यासन सम्मानित पदवी होती है.
जब कोई महिला साधु इस साधना से जुड़ी परीक्षाओं में खरी उतरती हैं तो उन्हें माता की उपाधि दी जाती है. पूरी तरह महिला नागा संन्यासिन बनने के बाद अखाड़े के सभी साधु उन्हें माता ही कहकर पुरारते हैं.
मिलता है पूरा सम्मान
अखाड़े की महिला साधुओं को माई या अवधूतानी भी कहा जाता है. इसके अलावा उन्हें इलाके का प्रमुख बनाकर 'श्रीमहंत' का पद भी दिया जाता है. श्रीमहंत बनी माई शाही स्नान में पालकी से जाती हैं.
वह अखाड़े का ध्वज, डंका और दाना अपने धार्मिक ध्वज के नीचे लगाती हैं. जूना अखाड़े के ठीक बगल में ही माई बाड़ा भी स्थापित होता है. कुंभ जाने वाले श्रद्धालु मां संन्यासियों से आशीष लेने पहुंचते हैं.
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