नई दिल्ली: उत्तर प्रदेश चुनाव से ठीक पहले अखिलेश यादव और चाचा शिवपाल यादव के बीच चुनावी समझौता होता नजर आ रहा है, लेकिन इसकी इनसाइड स्टोरी क्या है. जिस चाचा पर अखिलेश यादव भरे मंच पर भड़क उठते हैं, जिस चाचा को भतीजे ने एक समय इतना नाराज कर दिया कि उन्होंने अपनी पार्टी बना ली. आखिर उसी चाचा के दर पर अखिलेश हाजिरी लगाने क्यों और कैसे पहुंच गए.
चाचा कितने जरूरी, कैसी है चुनावी मजबूरी?
चाचा के घर जाकर भतीजे की कार रुकी. भतीजे को गले लगाने के लिए चाचा भी बेकरार थे. इसलिए वो दौड़े चले आएं और भतीजे का हाथ पकड़कर अपने साथ घर के भीतर ले गए. पहले गले मिले, गिले शिकवे दूर किए और फिर दोनों ने नई सियासी बिसात बिछाई.
22 के चुनावों से पहले विरोधियों पर पूरी ताकत से प्रहार करना जरूरी था और प्रहार के लिए 5 साल पुराने गिले शिकवे भुलाना जरूरी था. वोटरों को एकजुट रखने के लिए और साइकिल को 22 के चुनावों में कालिदास मार्ग की कुर्सी तक पहुंचाने के लिए ये चुनावी चाल काफी जरूरी थी.
चाचा-भतीजे मिले गले, भूले गिले-शिकवे
50 मिनट तक बंद कमरे में बात हुई और बात बन गई. पूर्वांचल की राह आसान बनाने के लिए अखिलेश ने तमाम छोटे दलों को साथ जुटाया है. राजभर और चंद्रशेखर को भी साइकिल सवार बनाया है. यदि अखिलेश की इस चाल को देखते हुए ये कहा जाए कि आगामी चुनाव के लिए अखिलेश ने हैंडल खुद ने पकड़ रखा है और पैडल चाचा को थमाया है, तो गलत नहीं होगा.
मिलन को बेकरार थे चाचा-भतीजा
चाचा से दूर होकर 2017 में अखिलेश को मात मिली और नई पार्टी बनाकर मैदान में उतरे शिवपाल ने 2019 में अपनी ताकत दिखाई थी. समाजवादी पार्टी को नुकसान पहुंचाया और समाजवादियों का गढ़ रही फिरोजाबाद और कन्नौज जैसी सीट पर भी बीजेपी ने परचम फहराया.
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इसके बाद से ही अखिलेश को समझ आ गया था कि चाचा के बिना 22 में सीएम बनने का सपना अधूरा ही रह जाएगा. लेकिन शिवपाल की बेकरारी भी कुछ कम नहीं थी वक्त-वक्त पर उन्होंने भी भतीजे का साथ पाने के लिए अपनी ख्वाहिशों का इजहार किया है.
8 नवंबर को अपने बयान में प्रगतिशील समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष शिवपाल यादव ने कहा था कि 'हम तो दो साल से इंतजार कर रहे हैं, हम तो बात भी कर चुके हैं. समाजवादी पार्टी से भी बात हुई है, अब अगर वो बात करेंगे तो बात आगे बढ़ेगी.'
शिवपाल को राजनीतिक करियर शून्य होता नजर आ रहा था. इसलिए वो 2016 में मंच पर हुई बेइज्जती को भी भुलाए बैठे थे. किसी भी कीमत पर गठबंधन को तैयार बैठे थे. सीधे शब्दों में अखिलेश को सिरमौर मान चुके थे और खुद अखिलेश भी चाचा को साथ लाने को तैयार थे.
जब शिवपाल यादव की बयानबाजी के बाद भी अखिलेश ने उन्हें भाव नहीं दिया तो उन्होंने अपने भतीजे का नाम लेकर ये कह दिया कि सीएम अखिलेश को ही बनना है. शिवपाल ने बीते 29 नवंबर को अपने एक बयान में कहा था कि 'सीएम तो मुझे बनना नहीं है, अखिलेश को बनना है. गठबंधन नहीं हुआ तो वो घाटे में रहेंगे.'
गठबंधन से झिझक रहे थे अखिलेश
चाचा के लाख इशारों के बाद भी अखिलेश यादव गठबंधन से झिझकते रहे, इसके पीछे के कई सारे कारण थे. चाचा से मिलने से भतीजे बच रहे थे. अखिलेश को राजभर पर पूरा भरोसा हो गया था और खुद राजभर भी अखिलेश की तारीफों के पुल बांध रहे थे. अखिलेश को सीएम बनवाने का ऐलान कर रहे थे.
चाचा की चाल से अखिलेश हुए बेहाल?
भतीजे को कन्नी काटता देख चाचा शिवपाल ने किले बंदी शुरू कर दी थी. ओवैसी से हाथ मिलता दिख रहा था और आजम से भी वो मुलाकात कर आए थे. यादव वोट बैंक में चाचा की सेंधमारी पहले ही अखिलेश की परेशानी बनी हुई थी. चाचा का विरोधी से हाथ मिलाना अखिलेश को रास नहीं आया. कुर्सी दूर जाती दिखी इसलिए अखिलेश ने मीटिंग का वक्त मुकर्रर किया और शिवपाल के घर जा पहुंचे.
अखिलेश के ऐलान के बाद ये साफ होता दिख रहा है कि उन्होंने चाचा को मना लिया और हम साथ साथ हैं वाली तर्ज पर 22 का यादव मुस्लिम समीकरण फिट बैठा लिया.
हर दिन बदल रहा है यूपी का सियासी समीकरण
उत्तर प्रदेश में जैसे जैसे चुनाव का समय नजदीक आता जा रहा है, नए-नए समीकरण भी बनने लगे हैं. यूपी में विधानसभा चुनाव की तारीखों का ऐलान होने में केवल कुछ हफ्ते का ही समय बचा हैं. हर पार्टी इस चुनावी महासमर को पार करने में जुटी है.
खुद अखिलेश यादव ने ट्वीट करके दोनों पार्टियों के बीच गठबंधन की बात लिखी. अखिलेश यादव ने लिखा कि 'प्रसपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जी से मुलाकात हुई और गठबंधन की बात तय हुई. क्षेत्रीय दलों को साथ लेने की नीति सपा को निरंतर मजबूत कर रही है और सपा और अन्य सहयोगियों को ऐतिहासिक जीत की ओर ले जा रही है.'
बीजेपी को कितना नफा-कितना नुकसान?
अखिलेश और शिवपाल यादव की इस मुलाकात पर BJP बेफ्रिक नजर आ रही है. भाजपा ने इस गठबंधन को आड़े हाथ लिया है. भले ही बीजेपी इस मामले में बेफिक्र हो लेकिन शिवपाल और अखिलेश यादव के साथ चुनाव लड़ने से इस गठबंधन को फायदा हो सकता है.
2018 में समाजवादी पार्टी छोड़ने के बाद से शिवपाल यादव लगातार वजूद की लड़ाई लड़ रहे हैं, वहीं अखिलेश यादव भी कुछ खास नहीं कर पाए हैं. शिवपाल यादव जब समाजवादी पार्टी में थे तो संगठन पर उनकी पकड़ मजबूत थी और जमीनी स्तर पर भी अच्छी पकड़ थी. 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ मिलकर समाजवादी पार्टी चुनाव लड़ी थी और उसे अकेले 21.82 फीसदी वोट मिले थे. ऐसे में दोनों पार्टियों का गठबंधन संजीवनी का काम कर सकता है.
शिवपाल के आने से फायदा?
चलिए अब ये भी समझ लीजिए कि शिवपाल के आने से क्या फायदा होगा. सबसे बड़ी बात कि वोटों का बंटवारा खत्म हो जाएगा. परंपरागत वोटर साथ आएंगे. चूकि जमीनी स्तर पर शिवपाल मजबूत हैं. यादव बहुल इलाकों बीजेपी को कड़ी चुनौती मिलेगी. शिवपाल का अनुभव काम आ सकता है. संगठन के तौर पर दोनों पार्टियां और मजबूत होंगी.
अखिलेश यादव ने ये भाप लिया है कि इस वक्त भाजपा काफी मजबूत स्थिति में है, भले ही वो बार-बार 400+ सीटें जीतने का दावा कर रहे हो, लेकिन असल हकीकत तो वो भी बखूबी जानते हैं कि उनकी राह इतनी आसान नहीं है, जितना कि वो अपने बयानों में बयां कर रहे हैं. ऐसे में चाचा शिवपाल को साथ लाने के बाद उन्होंने खुद की स्थिति थोड़ी और मजबूत कर ली है. यूपी चुनाव में हर दिन नए और चौंकाने वाले मोड़ आ रहे हैं. देखना होगा कि योगी अपना सिंहासन बचा पाते हैं या अखिलेश की सारी कोशिश और जद्दोजहद फिजूल रह जाती है. ये तो आने वाला वक्त ही बताएगा.
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