गांधीनगर: Gujarat Election- 1985 के विधानसभा चुनावों में गुजरात कांग्रेस ने 55.55 प्रतिशत वोट शेयर के साथ 149 सीटों पर रिकॉर्ड तोड़ जीत हासिल की थी, जबकि भाजपा ने 14.96 प्रतिशत वोट शेयर के साथ केवल 11 सीटें जीती थीं. 2012 के चुनावों में, कांग्रेस पार्टी का वोट शेयर घटकर 38.93 प्रतिशत हो गया, जबकि भाजपा का वोट शेयर 47.85 प्रतिशत हो गया. यानी गुजरात में कांग्रेस सिर्फ घट रही है और आने वाले गुजरात विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस के लिए जंग मुश्किल है.
राज्य में कोई प्रयोग नहीं किया
एक वरिष्ठ पत्रकार और यहां तक कि पार्टी के नेताओं ने कहा कि ऐसा इसलिए है, क्योंकि पिछले 32 वर्षो में (2017 तक) कांग्रेस ने राज्य में कोई भी प्रयोग नहीं किया है. हर चुनाव में एक ही चेहरे को दोहराया, सरकार के खिलाफ लड़ने की आक्रामकता खो दी, इसके खराब राज्य नेतृत्व से उसके कार्यकर्ता निराश हैं.
क्या कहते हैं राजनीति के विशेषज्ञ
वरिष्ठ पत्रकार कांति पटेल ने राज्य में विपक्षी दल के रूप में कांग्रेस की विफलता के कारण बताए. उन्होंने कहा, "पार्टी ने आक्रामकता खो दी है, सही समय पर मुद्दों को उठाने में विफल रहती है, कार्यकर्ताओं को दांडी यात्रा जैसे अप्रभावी कार्यक्रमों में व्यस्त रखती है, और दिल्ली तक मार्च करती है. कार्यकर्ता राज्य के नेताओं से निराश हैं क्योंकि वे पार्टी को सही दिशा में ले जाने में विफल रहे हैं, कुछ नेताओं ने पार्टी के हितों से समझौता किया है."
वह बताते हैं कि कांग्रेस में चुनावी टिकट की मांग को लेकर इतनी हड़बड़ी क्यों है. पटेल के अनुसार, "कांग्रेस के उम्मीदवार चुनाव लड़ने में कम से कम रुचि रखते हैं, लेकिन पार्टी के फंड में अधिक रुचि रखते हैं और यहां तक कि राजनीतिक विरोधियों के साथ व्यापार भी करते हैं, वे चुनाव फंड का इस्तेमाल प्रचार के लिए भी नहीं करते हैं, बल्कि पैसे को जेब में रखते हैं."
क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी, मुस्लिम की सोशल इंजीनियरिंग
पटेल ने कहा कि सोशल इंजीनियरिंग की दृष्टि से कांग्रेस को अभी भी 'केएचएएम' (क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी, मुस्लिम) रणनीति के साये से बाहर आना बाकी है. इसके खिलाफ भाजपा सवर्णों को बहुत महत्व देती है, वे पिछड़े वर्गो के लिए शोर मचाते हैं, लेकिन केवल उच्च जातियों को राजनीतिक महत्व देते हैं, जिससे कांग्रेस सीख नहीं रही है.
लंबे समय से लांच नहीं हुए नए चेहरे
पार्टी के महासचिव संजय पटवा ने कहा, "यह सच है कि पार्टी ने लंबे समय से नए चेहरों को लॉन्च नहीं किया है, इसके दो कारण हैं. पार्टी अपने छात्रों और युवा विंग (एनएसयूआई और युवा कांग्रेस) से नया नेतृत्व विकसित करने में विफल रही, दूसरी समस्या यह है कि एनएसयूआई में शामिल होने वाले छात्र बाद में मुख्यधारा की राजनीति में शामिल होने के इच्छुक नहीं हैं."
दूसरी समस्या यह है कि एनएसयूआई में शामिल होने वाले छात्र बाद में मुख्यधारा की राजनीति में शामिल होने के इच्छुक नहीं हैं.
क्या कहना है कांग्रेस का
कांग्रेस उपाध्यक्ष और पूर्व राज्य मंत्री डॉ दिनेश परमार ने कहा कि यह कहना गलत है कि पार्टी लोगों को प्रभावित करने वाले मुद्दों को नहीं उठा रही है. उनका तर्क है कि जिस राज्य में लोकतंत्र दांव पर है, जहां विपक्ष को विरोध करने और लोगों के मुद्दों को उठाने का अधिकार नहीं है, जहां विपक्षी दलों के नेताओं को नजरबंद कर दिया जाता है, वहां कांग्रेस को दोष देना अन्यायपूर्ण और अनुचित है.
परमार ने कहा, "चाहे महंगाई हो, खराब स्वास्थ्य ढांचा, शिक्षा का निजीकरण, युवाओं को ठेके पर रखना, मुद्दों को जोरदार तरीके से उठाया जाता है और पार्टी कार्यकर्ता सड़कों पर उतरे हैं. एक भी मुद्दा ऐसा नहीं है जिसे सरकार ने नहीं उठाया है." दोनों नेताओं ने परोक्ष रूप से स्वीकार किया कि पार्टी के नेता कार्यकर्ताओं और लोगों से जुड़ने और लोगों का समर्थन हासिल करने में विफल रहे हैं.
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