पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की लोकप्रियता इससे समझी जा सकती है कि उन्हें दीदी (बड़ी बहन) कहकर पुकारा जाता है. बंगाल में ममता बनर्जी के कद में जबरदस्त इजाफा हुआ है. बंगाल में अपना दम दिखाकर राजनीति में अपना लोहा मनवाने वाली ममता की छवि कैसे दमदार बनती रही, ये हम आपको 5 फैक्टर से समझाते हैं.
1). जब ममता बनीं देश की सबसे युवा सांसद
वैसे तो ममता बनर्जी के राजनीतिक सफर की शुरुआत 1970 में हुई थी, उन्होंने कांग्रेस का दामन बतौर कार्यकर्ता थामा था. ममता बनर्जी 1976 से 1980 तक महिला कांग्रेस की महासचिव रहीं. इसके बाद उन्होंने 1984 में देश की सबसे युवा सांसद बनने का खिताब हासिल किया.
उस वक्त ममता बनर्जी ने CPM के दिग्गज नेता माने जाने वाले सोमनाथ चटर्जी को जादवपुर लोकसभा सीट से मात दी और उस वक्त देश की सबसे युवा सांसद बन गईं. यही से ममता बनर्जी को एक बड़ी पहचान मिली.
2). कांग्रेस को कहा Bye और बनाई तृणमूल कांग्रेस
ममता का कद दिन पर दिन बढ़ता जा रहा था, वर्ष 1991 में जब नरसिम्हा राव की सरकार बनी तो दीदी को कई मंत्रालयों की जिम्मेदारी सौंपी गई, कुछ दिनों बाद विवाद बढ़ा और दीदी को 1993 में दरकिनार कर दिया गया.
असली खेल तो उस वक्त हुआ जब ममता बनर्जी ने अपनी ही पार्टी कांग्रेस के खिलाफ बागी तेवर अख्तियार कर लिए. दीदी ने 1997 में कांग्रेस को ये कहकर अलविदा कह दिया कि Congress पार्टी बंगाल में CPM की कठपुतली बन गई है. इसके बाद दीदी ने वही किया जिसका अंदेशा पूरी सियासी महकमे को था.
1 जनवरी 1998 को ममता बनर्जी ने अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस (AIMC) नाम से अपनी अलग पार्टी बना ली. दीदी की लोकप्रियता लगातार बढ़ती रही और इसी साल हुए लोकसभा चुनाव के नतीजों में दीदी का काम दिखने लगा, उनकी पार्टी ने 8 सीटों पर जीत का परचम फहरा दिया.
3). नंदीग्राम आंदोलन में ममता बनर्जी की हुंकार
वर्ष 2006 के दिसंबर माह में नंदीग्राम के लोगों को हल्दिया विकास प्राधिकरण (HDA) की तरफ से नोटिस थमा दिया गया था कि नंदीग्राम का बड़ा हिस्सा जब्त किया जाएगा. इसके तहत 70 हजार लोगों को उनके घर से निकालने का प्लान था. उस वक्त भूमि अधिग्रहण के खिलाफ आंदोलन की शुरुआत हुई और TMC ने इसमें बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया.
14 मार्च 2007 को 14 ग्रामीणों पर गोलियां बरसा दी गईं और कई सारे लोग गायब हो गए. ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस इस आंदोलन में डटी रही. दीदी को राजनीतिक तौर पर इस आंदोलन का सबसे बड़ा फायदा मिला.
2009 के लोकसभा चुनाव में ममता की पार्टी ने 19 सीटों पर विजय बिगुल बजाया. इसके बाद 2010 में हुए कोलकाता नगरपालिका चुनाव में भी ममता बनर्जी का जलवा दिखाई दिया. TMC ने 141 सीटों में से 97 सीटों पर कब्जा जमा लिया.
4). जातीय, धार्मिक गणित सबकुछ दीदी के फेवर में
2011 के विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी के नाम की ऐसी आंधी चली कि जो सामने आया उड़ता चला गया. उस वक्त सबकुछ दीदी के ही फेवर में था. 2011 के बंगाल चुनाव में जातीय गणित, धार्मिक फैक्टर सबकुछ दीदी के फेवर में था. तभी तो दीदी की पार्टी ने 30 सीटों से उछाल मारकर 184 सीटों को झपट लिया.
5). दीदी ने बंगाल की बेटियों के जीवन में लाया बदलाव
ममता बनर्जी ने 2011 में मां माटी मानुष का नारा दिया और इसका असर उनकी योजनाओं में दिखने लगा. 2011 में सत्ता के सिंहासन पर बैठने के बाद ममता बनर्जी ने बंगाल की बेटियों का खास ख्याल रखा.
ममता बनर्जी ने ‘कन्याश्री’ योजना की शुरुआत की. इसके तहत स्कूल जाने वाली बच्चियों को प्रतिमाह 700 रुपए दिए जाते थे. इसके साथ ही 18 वर्ष की आयु पूरी करने वाली उन लड़कियों को 25 हजार से अधिक रुपए दिए जाते थे, जिनकी शादी नहीं हुई हो.
इस योजना के चलते स्कूल जाने वाली बच्चियों की संख्या लगातार बढ़ने लगी और नाबालिग लड़कियों की शादी कम होने लगी. बंगाल के गांवों में इसकी खूब तारीफ हुई, जिसके दम पर दीदी ने अपनी इस योजना से गजब का बदलाव लाया.
बढ़ती गई लोकप्रियता और दीदी ने सोचा PM बन जाऊंगी
परिवर्तन का नारा देकर बंगाल में सियासत में अपनी अलग पहचान बनाने वाली ममता बनर्जी ने बंगाल से वामदलों का सफाया किया तो किया, वो बंगाल में इतनी लोकप्रिय हो गईं कि लोगों के दिलों पर राज करने लगीं.
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यूं कहें कि ममता बनर्जी को बंगाल के लोगों ने रोल मॉडल बना लिया. देखते ही देखते दीदी की छवि दमदार होने लगी. उनकी लोकप्रियता इतनी बढ़ने लगी कि ममता बनर्जी ने 2014 में खुद को प्रधानमंत्री पद का प्रबल दावेदार समझ लिया.
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