नई दिल्ली. जिसे दिखाना चाहिये, मीडिया ने उसे दबा दिया और जिसे दिखाना कम महत्वपूर्ण है मीडिया ने उसे दिखा दिया और लगातार दिखा रहा है. इस मीडिया गैंग को भारत राष्ट्र या भारत के धर्म का विरोध करना होता है तो वह ऐसे ही मौकों की तलाश में रहता है और अपनी मन-माफिक रिपोर्टिंग करता है जबकि बेवकूफ बनता है सिर्फ इन चैनलों को मुंह खोल कर देखने वाला दर्शक.
एक ही दिन हुई हैं दो घटनायें
आपको फैसला करने की भी जरूरत नहीं पड़ेगी कि कौन सी घटना अधिक महत्वपूर्ण है - क्योंकि ये तो कोई अनपढ़ या कोई अंधा भी बता देगा. जिस दिन मध्यप्रदेश के गुना जिले में सरकारी भूमि पर कब्जा करने वाले किसान के विरुद्ध प्रशासन ने कार्यवाही की ठीक उसी दिन इसी प्रदेश के मंडला नामक जिले में भी जमीन को लेकर ऐसी ही और इससे भी बहुत बदतर घटना हुई. मंडला के बीजाडांडी औद्योगिक थाना क्षेत्र में दो भाइयों ने अपने चचेरे भाई और उसके परिवार के छह लोगों को तलवार से काट डाला. एक छोटे से प्लाट पर कब्जे के इस झगड़े में जिन भाइयों ने हत्या की वो थे हरीश और संतोष और जिस चचेरे भाई और उसके परिवार के छह लोगों को इन्होंने मौत के घाट उतारा वह था राजेन्द्र - और ये सभी भाई दलित ही थे - जो मरे वे भी औऱ जिन्होंने मारा वे भी.
मीडिया गैंग ने गुना की घटना पर बवाल काटा
गुना मामले को लेकर मीडिया गैंग ने सारे दिन जम कर बवाल किया और गुना की इस घटना के इन्च इन्च को क्षण क्षण की घटना में बदल कर जोरदार हल्ला बोल किया. ऐसा लगा जैसे लाश देखते ही गिद्ध टूट पड़े हों. किन्तू लाशें तो इस तरफ नहीं बल्कि दूसरी तरफ मंडला में पड़ी हुईं थीं छह-छह लाशें तो फिर गिद्ध इधर क्यों टूट पड़े? अपना गिद्ध धर्म भूल कर दूसरी तरफ हमला करने वाले ये मीडिया के गिद्ध अवसरवादी मीडिया गैंग है जो राष्ट्र और धर्म की धज्जियां उड़ा डालने की मन्शा रखता है और यहां उसे जाति नामक एक छिद्र नजर आ गया तो बस फिर क्या था, हमला बोलते देर न लगी. किन्तु उधर भी तो जाति का ही मामला था - मरने वाले भी दलित थे और मारने वाले भी. फिर उस घटना को क्यों दबा दिया गया? क्या उस घटना से किसी किस्म की कमाई या एजेन्डे की पूर्ति नहीं होने वाली थी?
पुलिस की 'बर्बरता' देखी है कभी?
गुना की मनपसंद घटना पर शोर मचाने वाले मीडिया गैंग से आवाजें आ रही थीं - ये देखिये पुलिस की बर्बरता, किस बर्बर तरीके से लाठी चला रही है पुलिस. सेन्सेटाइज करके पत्रकारिता का धंधा चमकाने की कोशिश करने वाले मीडिया गैंग के पत्रकारों को समझना चाहिये कि देखने वाले दर्शकों की भी अपनी आंखें हैं और उनको साफ तौर पर दिख रहा है कि किस तरह की 'बर्बरता' से पुलिस लाठी चला रही है. मीडिया गैंग ने या तो पुलिस को कभी बर्बरता से लाठी चलाते देखा नहीं है या फिर उसे लगा होगा कि उनके चैनलों के दर्शकों ने कभी पुलिस को लट्ठ बजाते नहीं देखा होगा. पुलिस इस वीडियो में जिस तरह लाठी चला रही थी, ऐसा लग रहा था कि बीआर चोपड़ा की महाभारत में जैसे पैदल सैनिक नाच-नाच कर तलवार भांजते हैं वैसे ही पुलिस भी अपनी लाठीबाजी की शूटिंग करवा रही थी.
क्या यह अनुकरणीय आदर्श है?
क्या सिद्ध करना चाहता था ये मीडिया गैंग कि बीस बीघा सरकारी जमीन पर कब्जा कर के उस पर खेती करने की आपराधिक हरकत करना एक अनुकरणीय आदर्श है जिसका विरोध नहीं होना चाहिये? क्या ऐसा दुस्साहस करने वाला व्यक्ति एक गरीब मजबूर दलित मान कर छोड़ दिया जाना चाहिये? क्या ये धूर्तता आपराधिक नहीं है? क्या कोई भी इस तरह सरकारी जमीन पर कब्जा कर सकता है? क्या ऐसा करना स्वीकार्य है या संविधान के अंतर्गत आता है? क्या दलितों को या समाज के किसी भी वर्ग को ऐसा करने की छूट मिलनी चाहिये? या फिर क्या ये नहीं होना चाहिये था कि इस तरह कब्जा करने वाले लोग पुलिस के आने पर खुद ही अपनी गलती मान कर जमीन छोड़ दें ताकि पुलिस को सख्त होने की जरूरत न पड़े?
हांथ जोड़ कर पुलिस कार्रवाई करे?
मीडिया गैंग ने इस पुलिस कार्रवाई पर ऐसे शोर मचाया है जैसे कि पुलिस ने तलवारें चला दी हों जो कि मंडला में दलित भाइयों ने चलाई हैं. इसका मतलब है अब अगली बार से जब पुलिस महकमा सरकारी जमीन खाली कराने जाए तो हाथ जोड़ कर जाए और हाथ जोड़ कर ही खाली कराये. और डंडे तो बिलकुल न चलाये भले ही डंडे खा के वापस आ जाए.
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