नई दिल्लीः साल था 1941. दुनिया द्वितीय विश्व युद्ध की आग में झोंक दी गई थी. भारत के वे लोग जो ब्रिटिश आर्मी में भर्ती थे उन्हें भी इंग्लैंड की तरफ से फ्रंट मोर्चे पर लड़ने पर जाना पड़ा था. इस दौरान ब्रिटिश सरकार खुद अपने ही कारिंदों से परेशान थी, उधर लंदन तक की गलियों में इस बात का शोर शुरू हो गया था कि भारत में रहने वाले अधिकारी दोनों हाथों से माल लूट रहे हैं और अकूत संपत्ति बना रहे हैं.
कहानी जो 1941 से शुरू हुई
इस तरह के भ्रष्टाचार के जांच की मांग लगातार हो रही थी और अब तो दोतरफा दबाव बढ़ता जा रहा था. ब्रिटिश सरकार के खर्चों में तेजी से बढ़ोतरी हुई थी, जिसकी वजह से देश में भ्रष्ट कारोबारियों तथा सरकारी अधिकारियों की लूट-खसोट काफी बढ़ गई थी.
ये इस तरह का अपराध था जिसे पहले तो यही मानने में मुश्किल हो रही थी कि इसे किस तरह का अपराध माना जाए, दूसरा ये कि स्थानीय पुलिस इस लायक नहीं थी कि वह पहले जांच करे और आरोपी को भी पकड़े.
यह भी पढ़िएः PNB घोटाले का भगोड़ा आरोपी मेहुल चोकसी लापता
तब ब्रिटिश सरकार ने किया स्थापित
ऐसे में ब्रिटिश सरकार को जरूरत महसूस हुई एक दक्ष और विशिष्ट बल की. इसलिये युद्ध तथा आपूर्ति विभाग में रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार के मामलों की जांच-पड़ताल के लिए 1941 में विशेष पुलिस की स्थापना (Special Police Establishment-SPE) की गई थी.
इस कानून के तहत होता है संचालन
युद्ध के बाद दिल्ली स्पेशल पुलिस एस्टैब्लिशमेंट ऐक्ट, 1946 के प्रावधानों के तहत इस एजेंसी का संचालन होता रहा. अभी भी सीबीआई का संचालन इसी कानून के तहत होता है. शुरू में तो इसके जिम्मे भ्रष्टाचार के मामलों की जांच थी लेकिन धीरे-धीरे इसका दायरा बढ़ता गया. लेकिन बाद के साल में इसे एक संसदीय कानूनी प्रक्रिया के तहत स्वतंत्र भारत के लिए एक बड़ी और जिम्मेदार संस्था बनाया गया.
यह भी पढ़िएः सागर धनखड़ के पिता का बयान, 'सुशील को हो फांसी ताकि हर गुरु को मिले कड़ा सबक'
1963 में मिला नया नाम CBI
1963 में गृह मंत्रालय ने एक प्रस्ताव के माध्यम से स्पेशल पुलिस एस्टैब्लिशमेंट का नाम बदलकर सेंट्रल ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेशन यानी सीबीआई कर दिया. इसके संस्थापक निदेशक डी.पी.कोहली थे. उन्होंने 1963 से 1968 तक अपनी सेवा प्रदान की. बाद के सालों में आर्थिक अपराधों के अलावा और अन्य अपराधों की जांच भी CBI को दी जाने लगी.
1987 में बनीं दो शाखाएं
बीते दिनों आई 'हर्षद मेहता स्कैम 1992' वेबसीरिज आई थी. जिसमें CBI की जांच भी कहानी का हिस्सा बन गई थी. दरअसल CBI के कई केस में शामिल बोफोर्स घोटाला और हर्षद मेहता केस मुख्य हैं. इस तरह की जांच दिए जाने की भूमिका 1963 में ही बनी थी. खासतौर पर धोखाधड़ी और अपराध के हाई प्रोफाइल मामलों की जांच का जिम्मा भी सीबीआई को मिलने लगा.
सीबीआई सक्षम और प्रभावी ढंग से काम कर सके इसके लिए 1987 में इसकी दो शाखाएं गठित की गईं. एक शाखा भ्रष्टाचार निरोधी (ऐंटि करप्शन) डिविजन और दूसरी स्पेशल क्राइम डिविजन थी.
ऐसे मिलता है जांच का आदेश
कोई भी राज्य सरकार किसी आपराधिक मामले की जांच के लिए CBI से निवेदन करती है तो CBI को पहले केंद्र सरकार की मंजूरी लेनी पड़ती है. इसके अलावा दिल्ली स्पेशल पुलिस एस्टैब्लिशमेंट ऐक्ट, 1946 के मुताबिक, अगर राज्य या केंद्र सरकार सहमति की अधिसूचना जारी करती है तो CBI मामले की जांच के लिए जिम्मेदारी ले सकती है. सुप्रीम कोर्ट या राज्यों के हाई कोर्ट भी मामले की जांच का सीबीआई को आदेश दे सकते हैं.
सीबीआई के निदेशक को एक कमेटी नियुक्त करती है. इसमें पीएम, विपक्ष के नेता और सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस या उनके द्वारा सिफारिश किया गया सुप्रीम कोर्ट का कोई जज शामिल होते हैं. वर्तमान में CBI का निदेशक चुनने की प्रक्रिया चल रही है, जिसके लिए सोमवार 24 मई 2021 को कमेटी ने बैठक की है.
निदेशक को हटाना कठिन
1997 से पहले सीबीआई निदेशक को सरकार अपनी मर्जी से कभी भी हटा सकती थी. ऐसे में सीबीआई निदेशक स्वतंत्र काम नहीं कर पाते थे. बाद में सुप्रीम कोर्ट ने 1997 में विनीत नारायण मामले के बाद सीबीआई निदेशक का कार्यकाल कम से कम दो साल का कर दिया ताकि निदेशक स्वतंत्र होकर अपना काम कर सकें. अब किसी भी CBI निदेशक को दो साल काम करना होता है.
Zee Hindustan News App: देश-दुनिया, बॉलीवुड, बिज़नेस, ज्योतिष, धर्म-कर्म, खेल और गैजेट्स की दुनिया की सभी खबरें अपने मोबाइल पर पढ़ने के लिए डाउनलोड करें ज़ी हिंदुस्तान न्यूज़ ऐप.