नई दिल्ली: देश को आजादी मिले 73 साल बीत गए. वैसे तो भारत जैसी हजारों साल पुरानी सभ्यता के इतिहास में सात दशक कुछ नहीं हैं. लेकिन आजादी के साथ मिले बंटवारे के दंश और फिर दिशाहीन राजनीतिक व्यवस्था ने हमारे रास्ते में बहुत सी बाधाएं खड़ी कर दीं. आज भले ही देश हर मोर्चे पर सफलता के नए कीर्तिमान गढ़ रहा है. हमारी तरक्की की मिसालें दी जा रही हैं. लेकिन आध्यात्मिक और सांस्कृतिक मूल्यों पर आधारित राष्ट्र का लक्ष्य अब तक अधूरा है. लेकिन खुशी इस बात की है कि हमने भारत माता को सृष्टि के सर्वोच्च सिंहासन पर बिठाने का अपना स्वप्न कभी नहीं त्यागा और इसके लिए निरंतर प्रयास करते रहे. हमारी कोशिशें अब फलीभूत होती नजर आ रही हैं.   

आजादी के तुरंत बाद देश का था बुरा हाल
याद करें सन् 1947 का साल. हर तरफ अफरा तफरी और हायतौबा मची हुई थी. पूरे उपमहाद्वीप में लोग बंटवारे के घाव सहला रहे थे. पूरा देश अलग अलग तरह की कट्टरपंथी मानसिकता के बीच टुकड़ों में बंटा हुआ दिख रहा था. ब्रिटिश शासन खत्म होने के बाद दिल्ली में उपर से स्वदेशी लेकिन अपनी चाल ढाल में पूरी तरह पश्चात्य जीवन शैली वाले पहले पीएम की चिंताएं अलग तरह की थीं.  
प्रधानमंत्री नेहरु को न्याय से ज्यादा सामाजिक सद्भाव बरकरार रखने की फिक्र थी.  गृहमंत्री वल्लभभाई पटेल को दंगों के साथ साथ दर्जनों रियासतों में बंटे देश के एकीकरण की चिंता थी. बाहरी दुश्मनों का बहादुरी से मुकाबला करने वाली भारत की सेना आंतरिक विद्रोह और सांप्रदायिक तनाव से जूझने में व्यस्त थी. 


वित्तीय स्थिति नाजुक थी. देश का खजाना लगभग खाली पड़ा हुआ था. सन् 1757 में जिस भारत की वैश्विक व्यापार में हिस्सेदारी 24 फीसदी थी, वह 1947 में मात्र दो फीसदी बच गई थी. क्योंकि सोने की चिड़िया के पंख नोच लिए गए थे. 
देश के गद्दार ताक में बैठे थे 
जिन्ना जैसे सांप्रदायिक दानव इस फ़िराक में बैठे थे कि कैसे भारत की आध्यात्मिक परंपरा को ज्यादा से ज्यादा नुकसान पहुंचा दिया जाए. कश्मीर, हैदराबाद, जूनागढ़, उत्तरपूर्व जैसे इलाकों में रजवाड़े देश को तोड़ने पर आमादा थे. यही सब देखते हुए ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री चर्चिल ने कहा था कि ‘भारत को आजादी दी गई तो सत्ता चंद बेईमानों और लुटेरों के हाथ में पहुंच जाएगी और जल्दी ही भारत अपनी आजादी गंवा बैठेगा’. मुश्किलें इतनी ज्यादा थीं कि आम भारतीय आजादी का मोल पहचानने के लिए तैयार नहीं थे. यही वजह है कि अक्सर छोटी मोटी समस्याओं पर लोग ये कहते हुए सुने जा सकते थे- अरे इससे तो अंग्रेजी शासन ही बेहतर था. 
देश के दुश्मन अब भी सक्रिय हैं
भारत में अलगाववाद के गर्म थपेड़े अब भी देश की आत्मा को झुलसा देते हैं. मजहबी कट्टपंथी अपनी साजिश में लगे हुए हैं. कभी वो लोकतांत्रिक व्यवस्था के स्तंभ संसद के दोनों सदनों से बनाए गए कानूनों के विरोध के नाम पर राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली को फूंकने की कोशिश करते हैं तो कभी फेसबुक पोस्ट का बहाना बनाकर बेंगलुरु में आगजनी करते हैं. 


अलगाव और आपसी नफरत के गर्म थपेड़े रह रह कर देश को कष्ट देते हैं. कभी कश्मीर का इस्लामिक आतंकवाद, चीन समर्थित नक्सलियों का उग्रवाद, नफरत में पगे जातीय आदोलनों की आंच, कभी टोपी, दाढ़ी, तिलक जैसे मुद्दों पर एक दूसरे से तकरार मोल लेते हुए लोग सुर्खियों में बने रहते हैं. ऐसे में ख्याल आने लगता है कि आखिर हमारा देश कहां जा रहा है. फिर ध्यान आता है कि देश को आजाद हुए मात्र 73 साल ही तो हुए हैं. हजारों सालों के इतिहास वाले देश में ये 73 साल कुछ भी नहीं हैं.  
भारत जैसे बहुलतावादी लोकतांत्रिक समाज में तेजी से बदलाव मुश्किल
 अगर आपको भारत की विकास की गति धीमी होने की शिकायत है तो जरा याद करिए दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र अमेरिका का हाल. जहां आजादी मिलने के नवासी(89) सालों बाद तक गुलामी की अमानवीय प्रथा जारी रही.  बाद में अब्राहम लिंकन ने अपने देश को इस जिल्लत से मुक्ति दिलाई. लेकिन इसकी कीमत उन्हें भी जान देकर चुकानी पड़ी थी.
पड़ोसी देश पाकिस्तान में तो बार बार सैनिक शासन लग जाता है. या फिर सेना की कठपुतली इमरान खान जैसे कम अक्ल शासकों की सरकारें बनती हैं.


लेकिन भारत ने अपनी आंतरिक प्रेरणा और आध्यात्मिक ताकत के बल पर इस तरह की मुश्किलों से खुद को दूर रखा. लोकतंत्र के सत्तर दशकों में हमने बिना रक्तपात के सोलह बार अपने देश के भाग्य विधाता का चुनाव किया है. भारत में लोकतांत्रिक प्रक्रिया का ये चरणबद्ध विकास एक बड़ी उपलब्धि है. आज जातिवाद, क्षेत्रवाद, धार्मिक संकीर्णता की घटनाओं को देखकर दिल में दर्द तो जरुर होता है. लेकिन हमें भूलना नहीं चाहिए कि देश को आजाद हुए मात्र 73 साल ही हुए हैं. 
वंचितों को न्याय दिलाया
भारत का सबसे भीषण रोग जातिवाद था. जिसके कारण हम कई हिस्सों में विभाजित हुए. नतीजों के रुप में हमें हजारों सालों की गुलामी का दंश झेलना पड़ा. लेकिन यह कटु समस्या भी धीरे धीरे दम तोड़ रही है. आज लोग एक दूसरे की जाति पूछना शर्मनाक समझते हैं. इसी बात का संकेत है कि जिस देश में छुआछूत जैसी गंभीर सामाजिक बुराइयां मौजूद थीं. वहीं डॉ. अंबेडकर के बनाए संविधान को हर समुदाय पवित्र मानता है. 


दलित और अल्पसंख्यक समुदाय के लोग राष्ट्रपति के पद तक पहुंचने में सफल रहे हैं. महिलाएं प्रधानमंत्री बनी हैं और अब तो वह सेना में शामिल होकर अगले मोर्चों पर तैनात हो रही हैं. दबे कुचले वंचित तबके के लोग सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की कुर्सी को सुशोभित कर पाते हैं. ये हमारे 73 सालों की सफल यात्रा की मील के पत्थर हैं.
आज हर भारतीय शान से अपना सिर उँचा करके कह सकता है कि ‘चर्चिल साहब, अगर आज आप जीवित होते तो देख पाते कि जिनकी तुलना आप जानवरों से करते थे. वही भारतीय अब विश्वगुरु बनने जा रहा है. भारत ने पश्चिम से मिली बैसाखियां फेंक दी हैं.


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आज पूरी दुनिया मार्गदर्शन पाने के लिए भारत की तरफ टकटकी बांधे देख रही है.


 भारत की उपलब्धियों के आगे छोटा है आसमान
- हमने अंतरिक्ष में कदम बढ़ा दिये हैं.  पूरा संसार सैटेलाइट प्रक्षेपण के लिए हमपर निर्भर करता है. हम एक साथ सबसे ज्यादा सैटेलाइट छोड़ने वाले देश बन चुके हैं. 
- आजादी के समय हमारी GDP ₹2.7 लाख करोड़ थी, जबकि वर्ष 2020 में हमारे देश की GDP ₹ 215.5 लाख करोड़ है. 
- 1947 में हमारे देश का विदेशी मुद्रा भंडार $ 2 बिलियन था, जबकि वर्ष 2020 में हमारे देश का देश का विदेशी मुद्रा भंडार $ 513.25 बिलियन है.
- 1951 में 18 फीसदी साक्षरता की तुलना में हमारी वर्तमान साक्षरता दर 74 फीसदी है.
- देश की औसत आयु 32 साल से बढ़कर 69 साल हो चुकी है. 
- मार्च 2014 में ही देश पोलियोमुक्त घोषित हो चुका है. 
- देश के आखिरी गांव तक बिजली पहुंच चुकी है. 


- आयुष्मान भारत योजना की वजह से गरीबों लोगों तक उच्च स्तरीय स्वास्थ्य सेवाएं पहुंच रही हैं. 
- उज्जवला योजना के तहत महिलाओं को चूल्हे के धुएं से छुटकारा मिल चुका है. 
- विदेश में भारतीय पासपोर्ट धारक होना गर्व की बात हो गई है. 
-1947 में हमारे देश में स्कूल में बच्चों की तादाद 46% थी, जबकि वर्ष 2020 में हमारे देश में स्कूली बच्चों की तादाद 96% है. 
- आज करोड़ो लोगों तक स्वच्छ पेयजल पहुंच चुका है. 
- महिलाओं को खुले में शौच की शर्मनाक व्यवस्था से आजादी मिल गई है.
ये भी पढ़ें- पिछले 73 सालों में भारत के विकास की पूरी कहानी यहां पढ़ें 
माना कि मंजिल नहीं मिली लेकिन रास्ता तो तय हुआ ही है 
हालांकि अंधेरा अब तक पूरा छंटा नहीं है. अब भी छत्तीसगढ़ में स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी के कारण गर्भवती महिलाएं रास्ते में ही बच्चों को जन्म देने के लिए मजबूर हो जाती हैं. धार्मिक उन्मादी दंगा फसाद करने लगते हैं. महिलाओं के खिलाफ जुल्मों की घटनाएं दिल दहला देती हैं. 
देश के कई इलाकों में बाढ़ की घटनाएं वार्षिक त्रासदी का कारण बनती हैं. बैंकों का पैसा लेकर आर्थिक अपराधी विदेश भाग जाते हैं. समाज में धन का असमान वितरण होता है. 


लेकिन इसका मतलब ये कतई नहीं कि हमारी आजादी बेकार चली गई. हम कभी लड़खड़ाते हैं. कभी गिरते भी हैं. लेकिन फिर संभलकर अपने रास्ते बढ़ जाते हैं. 73 सालों में हमारी विकास यात्रा कभी धीरे तो कभी तेजी से हुई है. लेकिन हम कभी भी रुके नहीं हैं. यही हमारी जीत है. 


अब हमारा लक्ष्य आध्यात्मिक और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के मार्ग पर चलते हुए भारत को विश्वगुरु बनाना है. अब भारत के सामने निराशा की कोई वजह नहीं है. देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था से चुना गया हमारा सशक्त राष्ट्रयोगी नेतृत्व इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए सक्षम है. हमें अपना भरोसा हिलने नहीं देना है. 


जय भारत, जय मां भारती


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