वो कहावत है न.. वक्त पर इलाज ना हो तो जख्म नासूर बन जाता है. कुछ इसी तरह किसानों का आंदोलन धीरे-धीरे हिंसा में तब्दील हो गया. देश का हर किसान समाधान चाहता था, समस्या का निदान चाहता था. पर अफसोस जो हुआ वो वाकई बेहद डरावना था, क्योंकि गणतंत्र दिवस के पावन पर्व पर देश की राजधानी दिल्ली में जो कुछ भी हुआ उसके बाद इस आंदोलन पर कालिख पुत गई. किसी भी आंदोलन का चेहरा जब इतना भयानक हो जाता है तो सवाल तो उठेंगे ही.
आंदोलन को शर्मसार करने वाले 5 'गुनाह'
वैसे तो कई कारण हैं जिसके चलते किसान आंदोलन की खूबसूरती कलंकित हो गई, लेकिन उन 5 मुख्य कारणों को समझना जरूरी है. जिसने आंदोलन को बदनाम किया और साबित कर दिया कि अब ये आंदोलन नहीं रहा. 26 नवंबर 2020 को किसानों ने जब आंदोलन के लिए दिल्ली कूच किया था, वह तरीका बिल्कुल सही था. आंदोलन का मतलब ही ये होता है कि वह अनुशासित रहे, इसमें लोग स्वतः आए और सरकार को झुकने पर मजबूर कर दें. इसका तरीका हिंसा कतई नहीं हो सकता.
संवाद की समाधान का मूल मंत्र है, लेकिन ऐसा लग रहा है कि किसान नेताओं ने ये प्लानिंग कर रखी थी कि आंदोलन खिंचे और 26 जनवरी को राजधानी में हिंसा हो, खैर.. आपको इन 5 कारणों से रूबरू करवा देते हैं.
1). आंदोलन में किसानों का हक कहां?
नाम है "किसान आंदोलन" मगर देश का असल अन्नदाता परेशान था, परेशान है और परेशान...... पहले दिन से खुद को किसानों का नेता बताने वाले ठेकेदारों ने इस आंदोलन को हाईजैक कर लिया. सरकार ने संवाद करने की अपील की, मगर कुछ मुखौटाधारी किसान नेताओं ने ये ऐलान किया कि संवाद तभी होगा, जब आप तीनों कृषि कानूनों को रद्द करेंगे. जिद के कारण ही आंदोलन का सकारात्मक अंत नहीं हुआ और वो बढ़ता चला गया.
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संवाद में किसानों के हक की बातें कब की गई? क्या इस आंदोलन के बाद किसानों ने आत्महत्या करना छोड़ दिया? क्या कभी उन मुद्दों पर बात हुई, जो परेशानी उन्हें मंडियों में उठानी पड़ती रही है. क्या कभी संवाद में इस बात पर चर्चा की गई कि किसानों के हक के पैसों को बिचौलिए गबन कर लेते हैं. उन्हें तय MSP नहीं मिलती हैं, क्या किसान नेताओं ने संवाद में सरकार के सामने ये मुद्दा उठाया? नहीं उठाया.. मतलब साफ है कि किसान नेताओं को किसान के हक से कोई लेना-देना नहीं है.
2). किसानों की छवि को तार-तार किया गया
आंदोलन किसानों का था, लेकिन सवाल हर कोई पूछ रहा था कि खेतों में कौन से किसान काम कर रहे हैं? चलिए मान लेते हैं कि आंदोलन की शुरुआत देश के अन्नदाताओं ने किया था, मगर इसमें धीरे-धीरे अराजक तत्वों की एंट्री हो गई. देखते ही देखते ये आंदोलन छेड़खानी और नशेबाजी का अड्डा बन गया. क्या किसान भाई ये चाहता था कि उसके पवित्र आंदोलन में गंदगी फैले और उसके हक की बातें होना बंद हो जाए? क्या अन्नदाता ये चाहता था कि इस आंदोलन के जरिए उसकी छवि की धज्जियां उड़ाई जाए? किसान की छवि उसी दिन धूमिल हो गई थी, जब आंदोलन में बैठे भेड़ियों ने महिलाओं के साथ बदतमीजी करनी शुरू कर दी. पूरा देश जानता है कि किसान कभी भी ऐसी नीच हरकतों को अंजाम नहीं दे सकता है, लेकिन किसानों के नाम पर आंदोलन हो रहा था जिससे किसानों की बदनामी होने लगी. नीचे दी हुई तस्वीर को ही देख लीजिए, क्या किसान ऐसा कर सकता है?
3). आंदोलन में क्यों हुई हिंसा की एंट्री?
आंदोलन एक अधिकार है, जो सत्ता में बैठे बड़े से बड़े दिग्गजों के सिंहासन को हिलाने की क्षमता रखती है. आंदोलन की सबसे बड़ी ताकत है शालीनता, संवेदनशीलता, संघर्ष.. गांधी जी ने भी कहा था "अहिंसा परमो धर्मः" आंदोलन देखना है तो आजादी से बड़ा आंदोलन क्या ही होगा? लेकिन क्या आपने कभी गांधी जी के हिंसा की वकालत करते हुए सुना था? तो फिर किसानों के आंदोलन में हिंसा की एंट्री क्यों हुई? सवाल इसलिए है, क्योंकि तलवार भाजने वाले दहशतगर्द कभी किसान नहीं हो सकते. जो किसान लोगों का पेट भरने के लिए खेतों में काम करता है, वो किसान देश की मर्यादा का कत्ल नहीं कर सकता. आंदोलनकारियों की ये सामूहिक जिम्मेदारी होती है कि हिंसा ना हो.
असली किसान कभी लालकिले पर चढ़ाई नहीं करता है. असली किसान कभी देश के जवानों का खून नहीं बहाता है. इन दंगाइयों ने अपनी करतूत से आंदोलन की आत्मा को मार डाला. आंदोलन अपने मकसद से भटक गया. संविधान भी हिंसा के दम पर अपनी जिद मनवाने की आजादी नहीं देता है, मगर गणतंत्र दिवस पर आंदोलन मर गया और हिंसा शुरू हो गई. आंदोलन हिंसक नहीं होती.. हिंसक रूप धारण करने के बाद आंदोलन दंगे का रूप ले लेती है. इसके कई सारे उदाहरण मौजूद हैं.
4). तिरंगे का अपमान करने वाले आंदोलनकारी कैसे?
देश की शान माना जाने वाला लाल किला रो रहा है, क्योंकि लाल किले में सरेआम तिरंगे को अपमानित किया गया. जिस तरह से लालकिले पर चढ़ाई की गई, वहां तिरंगे को 'फेंका' गया उससे हर देशवासियों का सिर शर्म से झुक गया. हर कोई सिर्फ अफसोस कर रहा है.
क्या देश का अन्नदाता ऐसी करतूत को अंजाम दे सकता है? लाल किला घायल है और देश रो रहा है, क्योंकि गांधी के देश में गणतंत्र पर गद्दारों ने पहली बार घात किया है. देश रो रहा है, क्योंकि तिरंगे के अभिमान पर, उसके मान पर चोट करने की कोशिश हुई है. कुछ बुजदिल, शातिर, राष्ट्रद्रोही लोगों ने हिंदुस्तान के किसान भाईयों का नाम बदनाम किया है. तिरंगे का अपमान करने वाले ये गद्दार किसान नहीं हो सकते, ये आंदोलन का तरीका नहीं है.
5). जिद से जीत का सफर कभी तय नहीं हो सकता
सरकार ने संवाद में कहा कि हम MSP पर गारंटी देने के लिए तैयार हैं आप बताइए क्या परेशानी है, इसपर किसान नेताओं ने कहा कानून रद्द करो.. सरकार ने संवाद में कहा हम मंडी के नियमों में बातचीत से बदलाव करने के लिए तैयार हैं आप बताइए क्या परेशानी है, इस पर भी किसान नेताओं ने कहा कानून रद्द करो. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कमेटी बनाकर समाधान किया जाए, किसान नेता इसपर भी तैयार नहीं हुए और नौटंकी करने लगे. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि चलिए हम कानूनों को होल्ड कर देते हैं, फिर भी किसान नेताओं ने आंदोलन खत्म नहीं किया. आखिरकार सरकार ने ये तक कह दिया कि इन कानूनों को 1.5 से 2 सालों तक कानूनों को होल्ड पर डालने का प्रस्ताव दिया, किसान नेता इसपर भी नहीं माने..
किसान नेता जिद पर अड़े रहे और आंदोलन हिंसक होने लगा. देखते ही देखते आंदोलन की आत्मा मरने लगी. क्योंकि जिद से जीत नहीं हासिल की जा सकती. जीत के लिए आपको विनम्र बनना पड़ेगा, आपको अपने अड़ियल रवैये को किनारे रखना पड़ेगा. मगर खुद को किसानों का नेता बताने वाले ठेकेदारों ने अन्नदाताओं को मोहरा बना दिया और आखिरकार वो हुआ जो नहीं होना चाहिए था.
लोकतंत्र की सबसे बड़ी खूबसूरती यही है कि यहां जनता सर्वोच्च स्थान पर विराजमान है. लोकतंत्र की परिभाषा ही यही है कि 'जनता का, जनता के द्वारा, जनता के लिए' ("OF THE PEOPLE, BY THE PEOPLE, FOR THE PEOPLE") 19 नवंबर 1863 को पॅन्सिल्वेनिया राज्य के गॅटीस्बर्ग शहर में अब्राहम लिंकन ने कहा था कि "स्वतंत्रता का एक नया जन्म लेगा - और वह सरकार जो 'जनता की हो, जनता से हो, जनता के लिए हो.' दुनिया से ख़त्म नहीं होगी." अब्राहम लिंकन के इस भाषण को अमेरिका के इतिहास के सबसे यादगार भाषणों में गिना जाता है.
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दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र यानी भारत.. लोकतंत्र में जनता सर्वोच्च होती है. किसान आंदोलन की गंदगी ने ये साबित किया है कि एक ऐसा वक्त आ गया, जब ये आंदोलन.. उग्र हो गया. आंदोलन किसे कहते हैं ये समझना बेहद जरूरी है. जब जनता द्वारा चुनी हुई सरकार अपने कर्तव्यों का ठीक से निर्वहन नहीं करता है, तो एक जनाक्रोश जन्म लेता है. जब जन समूह एकत्रित होकर विरोध प्रदर्शन करता है, तो इसे आंदोलन कहते हैं. किसानों के नाम पर दिल्ली को जलाने की जो साजिश रची गई वो आंदोलन नहीं, बल्कि दंगे की साजिश थी. आज पूरा देश कहना चाहता है कि ये आंदोलन भटक गया है, संभल जाओ क्योंकि अब और देरी हुई तो पानी सिर से उपर आ जाएगा. लोकतंत्र में आंदोलन की खूबसूरती पर कालिख पोतने वालों के नाम सिर्फ एक ही संदेश है- शर्म करो, तुम पर लानत है...