नई दिल्ली: बनारस बरुआए पोटेंशियल के लोगों का शहर है. हर बनारसी में इतना ताप है कि दुनिया के पानी को भाप बना कर उड़ा दे.आप खी-खी मत करिए और न ये सोचिए की भंग की तरंग में हूं. सच कहता हूं बनारसी अगर अपने पर आ जाए तो बहुत कुछ कर सकता है (अगर आए तो, अक्सर वो दूसरों पर आता है अपने पर नहीं).


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मदनपुरा के पहले और गोदौलिया चौराहा के आगे सुशील सिनेमा से एक गली कटती है, कटे हुए पाकेट की तरह बिना बताए. इसी सुमड़ही गली में एक दूसरे से ठसा-ठसा देहजोरी करते कई मकान हैं. इन मकानों की चमड़ी जगह जगह से उधड़ी है. इन उधड़ी चमड़ियों से से लखौरिया ईंटे पसलियों की तरह दिखती हैं.


गली इतनी चौड़ी है कि अगर आप चौबे जी के चबूतरे से खड़े होकर रमई यादौ के घर की तरफ देखेंगे तो नाक उनकी दीवार से टकराएगी. ये गली क्यों है? अगर गली है तो इसमें मकान क्यों है? मकान है तो इसमें लोकतंत्र कुमार क्यों रहते हैं? ये मसानी रहस्य है जो बाबा कीनाराम का आशीर्वाद प्राप्त व्यक्ति ही जान सकता है.



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अस्तु। न मुझे बनारस की इस सींकिया गली से कोई मतलब है, न मसानी रहस्य से. मुझे मतलब है लोकतंत्र कुमार से. जिनकी कद काठी भगवान ने गली के इकोसिस्टम के हिसाब से ही गढ़ी है. कमर दूरबीन के हाई फोकस में मिल जाएं तो समझिए भाग्य आपके साथ है. लंबाई बेतहाशा है जैसे देह गढ़ने का मसाला बाडी के चेसिस का खाका खींचने में खर्च हो गया हो. लोकतंत्र कुमार मृदुभाषी हैं. लोकतंत्र मीठा रहे तभी बचा रहता है. वर्ना हुमच कर कोई भी जमीन पर ला सकता है, इतिहास गवाह है.


लोकतंत्र कुमार से मेरी मुलाकात गोदौलिया के भूतपूर्व जायंट कूड़ाघर के पास हुई थी. वो कूड़ा घर जो गोदौलिया चौराहे की पहचान हुआ करता था. लोग रास्ता बताते कहते- 'चौराहा पर जइतै हवा बस्साए लगी तो समझा गोदौलिया आ गयल'.


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आप यकीन मानिए यह रामबाण पता जर्मनी के किसी एडोल्फ को भी गोदौलिया पहुंचा सकता है. लोकतंत्र कुमार ने मुझे उसी जगह बुलाया था. मैंने पूछा था- कूड़ा घर क्यों? तो उनका जवाब था- गंध की स्मृति ज्यादा गहरी होती है.



मेरी उनसे दूसरी मुलाकात थी. ठीक दस बजे चिलचिलाती धूप में सन 82 का लंबरेटा स्टाइल पैंट (लंबरेटा स्कूटर होता है पर उस पर बैठने वाले शख्स का पैंट) और चुड़ुक पीली कमीज पहने और सिर पर महीने भर के तेल का स्टॉक उड़ेले लोकतंत्र जी प्रगट हुए. बाल जटा रूपी प्रवाह में थे. जिन्हें डाबर आंवला तैल की गाढ़ी सीमाओं के अनुशासन में बांधने की भरसक कोशिश की गई थी.


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वो खुशबू अभी नाक में उतर रही ही थी, कि उनके बेहद करीब आते ही नाक में सड़े-गले गंधाते कूड़े की दुर्गंध ने अतिक्रमण किया. ये मेरे बर्दाश्त के बाहर चीज़ थी. ऐसा लगा यही गश खा गिरुंगा और ये कृशकाय लोकतंत्र मुझे यूं ही असहाय गिरता देखेगा.


क्या हुआ? - लोकतंत्र कुमार ने चौंक कर पूछा
कुछ नहीं अचानक बड़ी बदबू सी आई...माथा भन्ना गया...और चक्कर- मैंने थोड़ा संभलते उत्तर दिया
ओह..अभी कैसे हैं...- लोकतंत्र जी ने पूछा
जी नहीं अब कोई दिक्कत नहीं...अब ठीक हूं...- मैंने संकोचवश कहा


ओह...मैं समझ गया ऐसा क्यों हुआ? गलती मेरी ही है - लोकतंत्र जी कहा
क्यों? - मैंने उत्सुकतावश पूछा


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दरअसल अपनी पहली मुलाकात यहां कूड़ाघर के पास हुई थी न? याद है?- उन्होंने आंखें बड़ी करते पूछा
"जी हां...याद है और तब आपने कहा था गंध स्मृति से ज्यादा गहरी होती है"


जी बिल्कुल...पर अफसोस ये कि लोकतंत्र कुमार के नाम पर आपने स्मृति टेपरिकॉर्डर में कूड़ाघर की दुर्गंध रिकॉर्ड हो गई- वो हंसते हुए बोले


"अब जब कभी भी लोकतंत्र की चर्चा होगी....आपके नथूनों में यही गंध भरेगी...."


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सच यही है कि स्मृति सापेक्ष होती है. लोकतंत्र की स्मृति ऐसा लगता है कि हमने किसी कूड़ाघर के दुर्गंध के सापेक्ष रिकॉर्ड की है. गोदौलिया से कूड़ा घर हट चुका है. लेकिन जहां कहीं भी लोकतंत्र के नाम पर नेता छाती पीटते दिखते हैं बड़ी भारी दुर्गंध नाक में भरती है.


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