बसंत से प्यार करने वाले महाकवि निराला को West Bengal में सूखा क्यों नसीब हुआ?
कविता के छंद से स्वतंत्र निराला, अपने जीवन में भी स्वतंत्र ही थे. हालात ऐसे रहे कि परिवार के बंधनों से उन्हें दैवीय आपदाओं ने मुक्त कर दिया और फिर कष्ट इतने सहे कि सामाजिक बंधनों से खुद ही स्वतंत्र हो गए. पत्नी की मृत्यु हुई, पुत्री सरोज भी चल बसी, पिता-चाचा, भाभी, भतीजे एक-एक करके कई अर्थियां निराला के ही कांधों पर होकर निकलीं.
नई दिल्लीः पं. बंगाल में चुनाव हैं और इस वक्त वहां विरासतों पर अपना-अपना ठप्पा लगाने की होड़ मची हुई है. फिर चाहे वह महान विभूतियों के नाम हों या उनसे संबंधित शहर, जिले या गांव. अचानक ही सबकी सुध आ रही है. पं. बंगाल का मेदिनीपुर ऐसा ही है.
पिछले दिनों (जनवरी 2021) CM ममता बनर्जी यहां रैली करने गईं तो कहा कि यदि मुझसे कोई गलती हो जाए, तो मुझे थप्पड़ मार लेना. लेकिन, कभी भी आपलोग मुझसे मुंह मत फेरना.’
पं. बंगाल के मेदिनीपुर चलते हैं
मेदिनीपुर से ममता का यह प्यार और अपनापन इसलिए क्योंकि साल 2011 में इसी जिले ने TMC को राजभवन पहुंचाने में अहम भूमिका निभाई थी. ममता नंदीग्राम में थीं. इसी नंदीग्राम से कुछ किलोमीटर की दूरी पर अंग्रेजी शासन काल तक मौजूद रही एक रियासत थी महिषादल.
महिषादल का नाम सुनते ही साहित्यप्रेमियों के कानों में मिश्री घुल जाती है और जेहन में एक निराली ही तस्वीर उभरती है. यह तस्वीर किसी और की नहीं हिंदी साहित्य के महाप्राण निराला की है.
महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला. छायावाद के प्रमुख स्तंभ. निराला का असर ऐसा कि आज जो नई उम्र के अधिकांश युवा जो छंद से परे कविताएं कर रहे हैं वह निराला की भी देन है.
निराला: पहले कवि बने या फक्कड़ पता नहीं
कविता के छंद से स्वतंत्र निराला, अपने जीवन में भी स्वतंत्र ही थे. हालात ऐसे रहे कि परिवार के बंधनों से उन्हें दैवीय आपदाओं ने मुक्त कर दिया और फिर कष्ट इतने सहे कि सामाजिक बंधनों से खुद ही स्वतंत्र हो गए. पत्नी की मृत्यु हुई, पुत्री सरोज भी चल बसी, पिता-चाचा, भाभी, भतीजे एक-एक करके कई अर्थियां निराला के ही कांधों पर होकर निकलीं.
दुख इतना कि तन पर एक कपड़ा, शारीरिक सौष्ठव वाला शरीर और बिखरे लंबे बाल ही इस फक्कड़ की पहचान बन गए. पता नहीं, निराला पहले कवि बने या कि फक्कड़ या फिर दोनों साथ-साथ कहना मुश्किल है.
कविताओं में उनका अपना भी दर्द
निराला की खासियत रही कि उनसे अपना दुख कहा नहीं गया, लेकिन दिल की हर कसक उंगलियों में ऐसी कसमसाहट बनकर उतरी थी कि कलम से बताए बिना रहा नहीं गया. फिर तो ऐसा रहा कि निराला ने जब इलाहाबाद के पथ पर 'उसे' पत्थर तोड़ते देखा तो चुप नहीं रह पाए. जो मार खा रोई नहीं, लेकिन इसके बावजूद दर्द उसका था और शायद निराला का भी. यह कहा नहीं जा सकता था. लेकिन संकेत में बता दिया गया.
जब कड़ी मारें पड़ीं, दिल हिल गया पर न कर चूं भी कभी पाया यहां
मुक्ति की तब युक्ति से मिल खिल गया भाव, जिसका चाव है छाया यहां.
ऐसा ही दुख वह एक और राही को देखकर पन्ने पर उतारते हैं. वह एक भिक्षुक है. उसके साथ दो बेटे हैं. दोनों ही दाने-दाने को मोहताज. एक समय खुद निराला के साथ ऐसा बीता था.
कई छोटे भाई-बहनों के परिवार को पहले निराला के पिता संभाल रहे थे और जब वह इस बोझ से थक कर घरती पर गिरे तो यह सारा दारोमदार निराला पर आ गया. भिक्षुक को देखकर यही आह उनसे निकली थी.
वह आता, दो टूक कलेजे के करता पछताता, पथ पर आता.
पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक, चल रहा लकुटिया टेक,
मुट्ठी भर दाने को, भूख मिटाने को मुँह फटी पुरानी झोली का फैलाता.
दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता.
आज निराला की बात क्यों?
महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की बात आज इसलिए क्योंकि यह उनकी जयंती का दिन है. 21 फरवरी 1896 को पं. बंगाल के मेदिनीपुर तब की महिषादल रियासत में उनका जन्म हुआ था. बसंत ऋतु से ऐसा प्रेम था कि वह अपना जन्मदिन बसंत पंचमी को ही मनाते थे. जिस साल उनका जन्म हुआ उस दिन बसंत पंचमी ही थी.
जीवन में दुख के इतने पतझड़ झेले थे कि बसंत का मौसम ही उन्हें बहारों का अहसास करा पाता था. इस ऋतु को प्रेम करते हुए उन्होंने कई बार पन्नों को स्याही में भिगोया है. जिन सभी रिश्तों को उन्होंने खो दिया था उसे वसंत में ही फिर से जीवित कर पाते थे.
इसलिए कभी उन्होंने लिखा, सखि वसन्त आया, भरा हर्ष वन के मन, नवोत्कर्ष छाया.
वह यह भी लिखते हैं
अभी न होगा मेरा अन्त
अभी-अभी ही तो आया है
मेरे वन में मृदुल वसन्त
अभी न होगा मेरा अन्त.
कभी बसंत को परी ही मान लेते हैं. कवि की कल्पना देखिए-
आओ, आओ फिर, मेरे बसन्त की परी
छवि-विभावरी
सिहरो, स्वर से भर भर, अम्बर की सुन्दरी
छबि-विभावरी
कई बार सुखी डालियों और पत्तियों के सहारे अपने मन का सूखा पन भी उतार देते
रुखी री यह डाल वसन वासन्ती लेगी.
देख खड़ी करती तप अपलक
हीरक-सी समीर माला जप
शैल-सुता अपर्ण - अशना
पल्लव -वसना बनेगी.
लेकिन, बंगाल ने उन्हें फिर भी सूखापन ही दिया
पं. बंगाल में जब विरासतों को हथियाने का दौर चल रहा है तो एक बार फिर महाकवि निराला खाली हाथ और सूखा मन लिए रह जाते हैं. ममता मेदिनीपुर को अपनी जीत की वजह मानती हैं, लेकिन महिषादल को शायद ही कभी याद करती हैं. आलम तो यह था कि कई सालों तक निराला और निराला का गांव उपेक्षित रहा.
ममता से पहले भी लंबे समय तक वाम सरकार पं. बंगाल पर राज करती रही है, लेकिन लंबे समय तक निराला की याद करा सके ऐसी कोई प्रतिमा या स्मृति भी यहां नहीं थी. बहुत बाद में यूपी के राज्यपाल प्रो.विष्णुकांत शास्त्री ने उनकी मूर्ति लगवाई थी. ममता माटी और मानुष की बात करती हैं. बंगाली अस्मिता की बात करती हैं.
निराला से ज्यादा आम बंगाली या आम भारतीय को किसने समझा? क्या निराला की पहचान बंगाली अस्मिता की पहचान नहीं है? लेकिन राजनीति जो न करवाए. इन सबसे अलग, इन सबसे दूर निराला जो जीवन जीने आए थे वह जी चुके हैं. निराला को आज भी जीवंत देखना हो तो कवि रामविलास शर्मा की पंक्तियों में देखिए...
यह कवि अपराजेय निराला,
जिसको मिला गरल का प्याला,
ढहा और तन टूट चुका है
पर जिसका माथा न झुका है,
नीली नसें खिंची हैं कैसी
मानचित्र में नदियाँ जैसी,
शिथिल त्वचा,ढल-ढल है छाती,
लेकिन अभी संभाले थाती,
और उठाए विजय पताका
यह कवि है अपनी जनता का !
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