नई दिल्लीः चैत्र नवमी की दुपहरी में जब महाराज दशरथ के घर नन्हें बालक का जन्म हुआ तो उसे गोद में लेकर उन्हें दिव्य शांति का अनुभव हुआ. वह किसी से कहते नहीं थे, लेकिन अनजाने में हुई श्रवण की हत्या का बोझ उन्हें कचोटता रहता था. उन्होंने एक बार पास ही खड़े कुलगुरु वशिष्ठ की ओर देखा और दोबारा बालक के मुखड़े को निहारने लगे.
राजा की मनोदशा को शब्द देने के लिए ऋषिवर बोले, जैसे चैत्र मास में सूखी पत्तियां तरुवरों से खुद ही अलग हो जाती हैं और नई कोपलें अपनी जगह बनाने लगती हैं, ठीक वही हरीतिमा मिश्रित लालिमा आपके मुख पर दमक रही है.
राम से राजा दशरथ को मिली दिव्य शांति
बालक के जन्म के अतिरिक्त क्या कोई और भी विशेष बात है. इतना कहकर उन्होंने अपनी आंखें राजा की झुकी हुई दोनों आंखों पर लगा दीं. महाराज बोले, हे कुलगुरु, मेरी मनोदशा तो आप जानते ही हैं. आपसे कुछ भी छिपा नहीं है, फिर भी मैं केवल इतना सोच रहा हूं कि जिस बालक के स्पर्श ने मुझे इतनी शांति दी है,
मैं उसे किस नाम से पुकारूं, क्या कहूं और कैसे स्मरण रखूं. जितना सहज यह मेरी गोद में है इसका नाम भी इतनी ही सहजता से मेरे मुख में रहे और स्मरण करते ही यही आत्मिक शांति मिले.
समाज ने ईश्वर माना, पर राम मानव ही बने रहे
महाराज की इच्छा जानकर ऋषि वशिष्ठ ग्रह-नक्षत्रों की गणना में जुट गए और फिर सभी तर्कों-विषयों पर मंथन कर सरल सा नाम खोज लाए. उन्होंने बेहद धीरे से उच्चारण किया राम.. और इस तरह संसार भर का चिंतक, उद्धारक, पालक नाम राम अस्तित्व में आया.
पौराणिक आदर्श चरित्र श्रीराम भारतीय समाज का आधार और प्राण हैं. समाज में भले ही श्रीराम की स्वीकार्यता अवतार और ईश्वर के तौर पर है, लेकिन खुद उन्होंने अपना जीवन मानवीय तौर पर ही सामने रखा.
उतार-चढ़ाव भरे जीवन में एकरस रहे श्रीराम
श्री राम का जीवन इतना मानवीय है कि उसकी प्रशंसा भी हो सके और आलोचना के स्तर में भी कोई कमी न आने पाए. बाली का वध और सीता त्याग जैसे प्रसंग यह याद दिलाने के लिए काफी हैं कि एक ही जीवन में सबकुछ सीधा-सादा और सरल हो यह संभव नहीं है, जरूरी है कि आप उस परिस्थिति से निकलकर कैसे आगे बढ़ जाते हैं और क्या सीख पाते हैं.
वनवास की आज्ञा मानकर श्री राम अपने जीवन के सबसे बड़े आदर्श त्याग को स्थापित कर चुके थे. भातृप्रेम और पत्नी के सम्मान की नींव रख चुके थे, मित्रता और क्षमाशीलता का परिचय दे चुके थे. इसके बाद भी उन्हें छिपकर बाली का वध करना पड़ा. एक मनुष्य के उतार-चढ़ाव भरे जीवन का इससे बड़ा उदाहरण और क्या होगा.
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जीवन तत्व के दर्शन करा देती है रामकथा
इसके अलावा भी मानस के पात्रों को थोड़ी सूक्ष्म दृष्टि से देखें तो यह सारे चरित्र हमें इसी जीवन में अपने आस-पास नजर आ जाएंगे. कोई हमें वशिष्ठ बनकर उचित-अनुचित बता रहा होगा तो कोई हमारे लिए सुमंत जैसा होगा जो हमारे निर्णय की क्षमता को सराह रहा होगा.
खोजने पर भरत-लक्ष्मण जैसे सहोदरों का प्रेम भी इसी समाज में मिल जाएगा तो ताड़का-मारीच जैसे नकारात्मक लोग आपकी राह में बाधा बनने के लिए भी खड़े रहेंगे. दरअसल, हम सभी का जन्म अपने-अपने जीवन में राम बनने के लिए ही हुआ है, बस ध्यान रखना है कि कहीं कोई मंथरा आपके अंदर की कैकेयी को भड़काकर आपकी उपलब्धियों का राज्य तो नहीं हड़पना चाहती है.
रामकहानी ऐसी मंथराओं से सतर्क रहने का मर्म भी समझाती है जो गाहे-बगाहे ही आपके वनवास का इंतजाम कर डालती हैं. मंथरा कोई व्यक्ति नहीं बल्कि हर व्यक्ति में छिपी उसकी ईर्ष्या (जलन) की भावना है. मनुष्य जलन तत्व से ही प्रतिस्पर्धी बनता है, लेकिन यह ईर्ष्या जब बढ़ जाए तो भस्म करने लगती है.
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हम भी बन सकतें हैं आज के राम
रामकथा कहती है कि हर युग में राम हैं. हर व्यक्ति में राम हैं. जरूरी है कि हर व्यक्ति त्रेता के श्रीराम की मर्यादा का लक्षांश भी पालन करे. उसे सोच-समझकर आगे बढ़ना चाहिए. उसे चाहिए कि बिना घबराए अपने हाथ बढ़ाए और जीवन का शिवधनुष उठा ले.
मेहनत की प्रत्यंचा को जोर से खींचकर बाधाओं का दंड तोड़ डाले. फिर देखिए उन्नति की सीता स्वयं चलकर उसका कैसे वरण करती है. बाबा तुलसी ने एक पंक्ति में यही बात समझाई है- कादर मन कहूं एक अधारा, दैव-दैव आलसी पुकारा.