Mirza Ghalib's Birthday: अमीर घर में ससुराल फिर भी आर्थिक तंगी से जूझते रहे ग़ालिब, हिंदू दोस्त उठाते थे खर्चा
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Mirza Ghalib's Birthday: अमीर घर में ससुराल फिर भी आर्थिक तंगी से जूझते रहे ग़ालिब, हिंदू दोस्त उठाते थे खर्चा

 Mirza Ghalib's Birthday: उर्दू के मशहूर शायर मिर्ज़ा असदउल्ला बेग़ ख़ान 'ग़ालिब' की आज यौम -ए- पैदाइश है. दुनिया उन्हें उनके शेर-ओ-शायरी से जानती और पहचानती है. उनकी ज़िन्दगी बेहद तंगहाली में गुजरी थी, लेकिन उनके शान-ओ- शौकत में कोई कमी नहीं दिखती थी. जवाहर लाल नेहरु यूनिवर्सिटी के साबिक प्रोफेसर और हिंदी के मशहूर कवी, लेखक और आलोचक डॉ. जगदीश्वर चतुर्वेदी मिर्ज़ा ग़ालिब के निजी ज़िन्दगी पर रोशनी डाल रहे हैं. 
 

उर्दू के शायर मिर्ज़ा असदउल्ला बेग़ ख़ान 'ग़ालिब'

Mirza Ghalib's Birthday: मिर्ज़ा ग़ालिब हमेशा किराये के मकानों में रहे, अपना मकान तक न बनवा सके. वह ऐसा मकान ज़्यादा पसंद करते थे, जिसमें दीवान खाना और ज़नान खाना अलहदा हों और उनके दरवाज़े भी अलग हों, जिससे यार-दोस्त बेझिझक आ-जा सकें.

5 अक्टूबर को (18 सितम्बर को दिल्ली पर अंग्रेज़ों का दुबारा से कब्ज़ा हो गया था) कुछ गोरे, सिपाहियों के मना करने पर भी, दीवार फाँदकर मिर्ज़ा  ग़ालिब के मुहल्ले में आ गए और मिर्ज़ा के घर में घुस गए. उन्होंने माल-असबाब को हाथ नहीं लगाया, पर मिर्ज़ा, आरिफ़ के दो बच्चों और चन्द लोगों को पकड़कर अपने साथ ले गए और कुतुबउद्दीन सौदागर की हवेली में कर्नल ब्राउन के सामने उन्हें पेश किया.  वहां उनके मजाहिया लहजे और एक दोस्त की सिफ़ारिश ने उनकी हिफाज़त की. बात यह हुई थी कि जब गोरे अँगरेज़ मिर्ज़ा  ग़ालिब को गिरफ़्तार करके ले गए, तो अंग्रेज़ सार्जेण्ट ने उनकी अनोखी लिबास और सज़ा- धजा देखकर पूछा-‘क्या तुम मुसलमान हो?’ मिर्ज़ा ने हँसकर जवाब दिया कि, "मुसलमान तो हूँ पर आधा." अँगरेज़ इनके जवाब से हैरत में पड़ गए.  पूछा-"आधा मुसलमान हो, कैसे?" मिर्ज़ा बोले, "साहब, शरीब पीता हूँ; हेम (सूअर) नहीं खाता." 

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मिर्ज़ा ग़ालिब जब कर्नल के सामने पेश किए गए, तो इन्होंने महारानी विक्टोरिया से अपने खात-ओ- किताबत के जरिये राब्ते वाली बात बताई और अपनी वफ़ादारी का यकीन दिलाया. कर्नल ने पूछा, "तुम दिल्ली की लड़ाई के वक़्त पहाड़ी पर क्यों नहीं आये, जहाँ अंग्रेज़ी फ़ौज़ें और उनके मददगार जमा हो रहे थे?" मिर्ज़ा ने कहा, "तिलंगे दरवाज़े से बाहर आदमी को निकलने नहीं देते थे. मैं क्यों कर आता? अगर कोई फ़रेब करके, कोई बात करके निकल जाता, जब पहाड़ी के क़रीब गोली की रेंज में पहुँचता तो पहरे वाला गोली मार देता. यह भी माना की तिलंगे बाहर जाने देते, गोरा पहरेदार भी गोली न मारता पर मेरी सूरत देखिए और मेरा हाल मालूम कीजिए. बूढ़ा हूँ, पाँव से अपाहिज, कानों से बहरा, न लड़ाई के लायक़, न मश्विरत के क़ाबिल. हाँ, दुआ करता हूँ सो वहाँ भी दुआ करता रहा," कर्नल साहब ये सुनकर हँसे और मिर्ज़ा को उनके नौकरों और घरवालों के साथ घर जाने की इजाज़त दे दी.

1857 के ग़दर की कई तस्वीरें मिर्ज़ा 'ग़ालिब' के खतों में और इनकी किताब ‘दस्तंबू’ में मिलते हैं. इस वक़्त उनके इस बात का फैसला लेने कि सलाहियत काम नहीं कर रही थी कि किस कि हिमायत करें.  सोचते थे कि पता नहीं ऊँट किस करवट बैठे? इसीलिए क़िले से भी थोड़ा राब्ता बनाये रखते थे. ‘दस्तंबू’ में उन वाक्याओं का ज़िक्र है जो ग़दर के वक़्त इनके आगे गुज़री थीं. उधर, फ़साद शुरू होते ही मिर्ज़ा की बीबी ने उनसे बिना पूछे अपने सारे ज़ेवर और क़ीमती कपड़े मियाँ काले साहब के मकान पर भेज दिए ताकि वहाँ वह हिफाज़त में रहेंगे. पर बात उलटी हुई. काले साहब का मकान भी लुटा और उसके साथ ही ग़ालिब का सामान भी लुट गया. चूँकि इस वक़्त राज मुसलमानों का था, इसीलिए अंग्रेज़ों ने दिल्ली फतह के बाद उन पर ख़ास ध्यान दिया और उनको ख़ूब सताया. बहुत से लोग जान बचने क गरज़ से भाग गए. इनमें मिर्ज़ा के भी कई दोस्त थे. इसीलिए, ग़दर के दिनों में उनकी हालत बहुत ख़राब हो गई. घर से बाहर बहुत कम निकलते थे. खाने-पीने की भी मुश्किल थी. ऐसे वक़्त में उनके कई हिन्दू दोस्तों ने उनकी मदद की. मुंशी हरगोपाल ‘तुफ़्ता’ मेरठ से बराबर रुपये भेजते रहे, लाला महेशदास इनकी शराब का इंतज़ाम करते थे.  मुंशी हीरा सिंह 'दर्द', पं. शिवराम और उनके पुत्र बालमुकुन्द ने भी इनकी मदद की. मिर्ज़ा ने अपनी चिट्ठियों में अपने इन दोस्तों का शुक्रिया अदा किया है. 

जब असदउल्ला ख़ाँ 'ग़ालिब' सिर्फ़ 13 वर्ष के थे, इनका विवाह लोहारू के नवाब 'अहमदबख़्श ख़ाँ' (जिनकी बहन से इनके चचा का ब्याह हुआ था) के छोटे भाई 'मिर्ज़ा इलाहीबख़्श ख़ाँ ‘मारूफ़’ की बेटी 'उमराव बेगम' के साथ 9 अगस्त, 1810 ई. को हुआ था. उमराव बेगम शादी के वक्त सिर्फ 11 वर्ष की थीं. इस तरह लोहारू राजवंश से इनका ताल्लुक और मजबूत हो गया. पहले भी वह बीच-बीच में दिल्ली जाते रहते थे, पर शादी के 2-3 साल बाद तो दिल्ली के ही हो गए. वह खुद ‘उर्दू-ए-मोअल्ला’ (इनका एक ख़त) में इस वाकये का ज़िक्र करते हुए लिखते हैं कि- "7 रज्जब 1225 हिजरी को मेरे वास्ते हुक्म दवा में हब्स (सादिर) हुआ. एक बेड़ी (यानी बीवी) मेरे पाँव में डाल दी गई और दिल्ली शहर को ज़िन्दान मुक़र्रर किया और मुझे इस ज़िन्दाँ में डाल दिया."

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मुल्ला अब्दुस्समद 1810-1811 ई. में अकबराबाद आए थे और दो साल के शिक्षण के बाद असदउल्ला ख़ाँ (ग़ालिब) उन्हीं के साथ आगरा से दिल्ली गए. दिल्ली में हालाँकि वह अलग घर लेकर रहे, पर इतना तो यकीनी है कि ससुराल की तुलना में इनकी अपनी सामाजिक हालात बहुत हलकी थी. इनके ससुर इलाहीबख़्श ख़ाँ को शहजादों जैसी हसियत हासिल थी. जवानी में इलाहीबख़्श की ज़िन्दगी जीने के अंदाज़ को देखकर लोग उन्हें ‘शहज़ाद-ए-गुलफ़ाम’ कहा करते थे. इससे अन्दाज़ा लगाया जा सकता है कि, उनकी बेटी का पालन-पोषण किस लाड़-प्यार के साथ हुआ होगा. असदउल्ला ख़ाँ (ग़ालिब) शक्ल और सूरत से कोई बड़ी शख्सियत मालूम पड़ते थे. उनके पिता-दादा फ़ौज में आला अफसर रह चुके थे. इसीलिए ससुर को उम्मीद रही होगी कि, असदउल्ला ख़ाँ भी आला रुतबे तक पहुँचेंगे और बेटी ससुराल में सुखी रहेगी, पर ऐसा हो न सका. आख़िर तक यह शेरो-शायरी में ही पड़े रहे और उमराव बेगम, पिता के घर बाहुल्य के बीच पली लड़की को ससुराल में सब सुख सपने जैसे हो गए.

ग़ालिब या मिर्ज़ा असदउल्ला बेग़ ख़ान (अंग्रेज़ी:Ghalib अथवा Mirza Asadullah Baig Khan, उर्दू: غالب या  مرزا اسدللا بےغ خان) (जन्म- 27 दिसम्बर, 1797 ई. आगरा - 15 फ़रवरी, 1869 ई. दिल्ली) जिन्हें सारी दुनिया 'मिर्ज़ा ग़ालिब' के नाम से जानती है, उर्दू-फ़ारसी के मशहूर रहे हैं. इनके दादा 'मिर्ज़ा क़ौक़न बेग ख़ाँ' समरकन्द से भारत आए थे. बाद में वे लाहौर में 'मुइनउल मुल्क' के यहाँ नौकर के तौर पर काम करने लगे. मिर्ज़ा क़ौक़न बेग ख़ाँ के बड़े बेटे 'अब्दुल्ला बेग ख़ाँ से मिर्ज़ा ग़ालिब हुए. अब्दुल्ला बेग ख़ाँ, नवाब आसफ़उद्दौला की फ़ौज में शामिल हुए और फिर हैदराबाद से होते हुए अलवर के राजा 'बख़्तावर सिंह' के यहाँ लग गए, लेकिन जब मिर्ज़ा ग़ालिब महज 5 वर्ष के थे, तब एक लड़ाई में उनके पिता शहीद हो गए. मिर्ज़ा ग़ालिब को तब उनके चचा जान 'नसरुउल्ला बेग ख़ान' ने संभाला. पर ग़ालिब के बचपन में अभी और दुःख व तकलीफें शामिल होनी बाकी थीं. जब वे 9 साल के थे, तब चचा जान भी चल बसे. मिर्ज़ा ग़ालिब का सम्पूर्ण जीवन ही दु:खों से भरा हुआ था. आर्थिक तंगी ने कभी भी इनका पीछा नहीं छोड़ा था. क़र्ज़ में हमेशा घिरे रहे, लेकिन अपनी शानो-शौक़त में कभी कमी नहीं आने देते थे. इनके सात बच्चों में से एक भी जीवित नहीं रहा. जिस पेंशन के सहारे इन्हें व इनके घर को एक सहारा मिलता था, वह भी बन्द कर दी गई थी.

:- डॉ. जगदीश्वर चतुर्वेदी
लेखक जवाहर लाल नेहरु यूनिवर्सिटी के साबिक प्रोफेसर और हिंदी के मशहूर कवि, लेखक और आलोचक हैं. 

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