आत्ममुग्धता बढ़ने से स्वयं के प्रति सजगता कम हो जाती है. जैसे ही अपने प्रति सजगता गायब होती है, हम दूसरों का अनुसरण करने लगते हैं. जो दूसरों की नकल न करे, जाहिर है अधिक संख्या में मौजूद नकलची उसका विरोध ही करेंगे.
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इस समय हम स्वयं पर जितने मोहित हैं, पहले शायद ही कभी रहे होंगे. हम मोबाइल, उससे खींची जा रहीं अपनी ही तस्वीरों के प्रति पागलपन की हद तक पागल हैं. इस 'सेल्फी' नशे की चपेट ने हमें खुद से दूर कर दिया है. हम खुद पर मुग्ध तो हैं, लेकिन अपने प्रति सजग नहीं हैं. स्वयं पर मुग्ध होना एक बात है और स्वयं की गतिविधियों के प्रति सजगता दूसरी बात.
आत्ममुग्धता बढ़ने से स्वयं के प्रति सजगता कम हो जाती है. जैसे ही अपने प्रति सजगता गायब होती है, हम दूसरों का अनुसरण करने लगते हैं. जो दूसरों की नकल न करे, जाहिर है अधिक संख्या में मौजूद नकलची उसका विरोध ही करेंगे. अगर आपकी दृष्टि सजग नहीं है, यदि आप इस बात के प्रति सचेत नहीं हैं कि कर क्या रहे हैं, और केवल करने में जुटे हैं तो कुछ ही समय में अपने को मनुष्य की जगह भेड़ में बदलता हुआ पाएंगे, क्योंकि भेड़ अनुसरण करने (दूसरों की नकल करने) में मनुष्य से दस कदम आगे होती हैं. भेड़ केवल और केवल आगे वालों को 'कॉपी' करने का काम करती हैं. बिना किसी सवाल-जवाब, तर्क-वितर्क, विवाद के. इसलिए इस बात को बहुत अच्छे से समझने की जरूरत है कि लोग आपका अनुसरण करने, आपको 'फॉलो' करने को बेकरार हैं या आप सफल होने की चाह में दूसरों के पीछे दौड़ने को उतावले हैं.
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हम दूसरों के बारे में रात-दिन विश्लेषण करते हैं. उनकी कमियों की चिंता में घुले जा रहे हैं, लेकिन अपने प्रति हम सजग नहीं हैं. हमारी गतिविधियों, सोचने, समझने के तैार-तरीकों पर से हमारी नजर 'गायब' है. हमारे पास इसके लिए समय ही नहीं है. हम व्यस्त हैं, इसी भ्रम में जिए जा रहे हैं. हमें लगता है कि भला हमको किस सुझाव की जरूरत है. हम सब सही कर रहे हैं, यह सबसे बड़ा भ्रम है. दूसरों की बरसों से नकल करते रहने के कारण अनुसरण करने की आदत एक मनोवैज्ञानिक विकार का रूप से लेती है. इसका सबसे खराब असर बच्चों पर देखा जा रहा है. बच्चे बहुत जल्द किशोर, युवाओं से प्रभावित होते हैं. उनके प्रभाव को अगर ठीक से नहीं संभाला गया, तो उन पर संकट बढ़ जाता है.
पिछले दिनों मुझे उदयपुर से छाया त्रिपाठी का ई-मेल मिला. उनकी दस बरस की बेटी का ध्यान पढ़ाई की जगह मोबाइल, फैशन, टीवी और दावतों की ओर इतना चला गया कि वह अपना फोकस खो बैठी. जबकि वह बेहद संवेदनशील, पढ़ाकू हुआ करती थी. कुछ देर संवाद के बाद छायाजी और मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि उनके यहां आने वाले मेहमानों का ही इसमें बड़ा योगदान होता है. मेहमान युवा हैं. हर समय मोबाइल पर चिपके हुए. सेल्फी, फोटोशूट में व्यस्त. दिन-रात चैटिंग. छोटी-छोटी बात पर पार्टियों में मशगूल. संवाद में कोई मर्यादा नहीं, शब्दों के चयन में लापरवाही. चौबीस घंटे शॉपिंग 'मोड' में.
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मिलनसार छाया, उनकी बेटी जल्द ही इन युवाओं के कूल नजरिए की चपेट में आ गई. मुझे खुशी है कि छाया ने बच्चे के फोकस पर सही समय पर ध्यान दिया. जिससे कुछ ही दिनों में उनकी बेटी ट्रैक पर आ गई. बेटी को कड़े परिश्रम, अपने काम को समय पर करने, अनुशासन को समझाने में छाया को संघर्ष करना पड़ा. हमें यह समझने की जरूरत है कि हर चीज का एक समय है. अनुशासन हमारा दुश्मन नहीं, निवेश है. खुद में. जोउसकी अनदेखी करेगा, उसे इसकी कीमत चुकानी ही होगी. आज नहीं तो कल. अपने काम के अतिरिक्त दूसरी चीज में उलझे रहने का जो 'कूल' चलन चल रहा है, इसने हमारे ताने-बाने की बुनियाद तबाह कर दी है.
हम भेड़ होते जा रहे हैं. कॉपी करने को क्रिएटिव होना कहे जा रहे हैं. कट, कॉपी और पेस्ट. कंप्यूटर से होते हुए यह जुमला जिंदगी में समा गया है. बाढ़ के पानी की तरह. बाढ़ का पानी बिना सूचना के शहर में घुसता है, तबाही के तेवर के साथ. वैसे ही हम दूसरों की नकल करते जा रहे हैं. बेतहाशा. भेड़ बनने को बेकरार.
(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)
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