डियर जिंदगी : कभी बिना मांगे किसी को कुछ दिया है...
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डियर जिंदगी : कभी बिना मांगे किसी को कुछ दिया है...

हम बच्‍चों के साथ जो भी समय बिता रहे हैं. उसमें उनके सामने कितने ऐसे उदाहरण हैं, जिनमें बच्‍चे यह समझ पाते हैं कि माता-पिता वही करने के लिए कह रहे हैं, जो वह खुद कर रहे हैं. इसलिए बच्‍चों के सामने आने वाले समय में यह उदाहरण रखना बेहद जरूरी है कि हम लोगों की कैसे मदद कर रहे हैं.

बच्चे के लिए सातांक्‍लॉज बनने से कहीं जरूरी है, उसके भीतर दूसरों के लिए कुछ स्‍पेस बनाया जाए.

इन दिनों अधिकांश माता-पिता इस बात से परेशान रहते हैं कि बच्‍चे चीजों को साझा नहीं करते. उनमें शेयरिंग की आदत नहीं है, बड़ी मुश्किल होती है, उनके लिए शेयरिंग समझना जंगल में शेर के दर्शन करने जितना ही मुश्किल होता जा रहा है. बच्‍चे के कोमल मन में साझा नहीं करने के विचार कहां से आते हैं. जबकि वह तो वही सब सीख रहा है जो उसके आसपास निरंतर घट रहा है. वही तो वह रट रहा है, क्‍योंकि पढ़ाने का काम तो स्‍कूलों में बंद है और समाज के पास शिक्षा के लिए संवाद का समय पहले ही समाप्‍त हो चुका है.

'डियर जिंदगी' को हर दिन मिलने वाले संदेशों को दो हिस्‍सों में बांटा जा सकता है. पहला जीवन, उदासी और आत्‍महत्‍या से जुड़े विषय पर बात होती है. दूसरा माता-पिता सबसे अधिक बच्‍चों के विकास, उनकी आदतों को लेकर खासे परेशान हैं. बच्‍चों में चीजों के साझा न करने की आदत एक ऐसी ही आदत है, जिससे हम सभी खासे परेशान हैं. लेकिन इसके लिए परेशान होने से अच्‍छा यह समझना है कि हम बच्‍चों के सामने ऐसा क्‍या करें कि वह चीजों को साझा करना सीखें. दूसरों को कुछ देने में उन्‍हें परेशान न हो.

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हम बच्‍चों के साथ जो भी समय बिता रहे हैं. उसमें उनके सामने कितने ऐसे उदाहरण हैं, जिनमें बच्‍चे यह समझ पाते हैं कि माता-पिता वही करने के लिए कह रहे हैं, जो वह खुद कर रहे हैं. इसलिए बच्‍चों के सामने आने वाले समय में यह उदाहरण रखना बेहद जरूरी है कि हम लोगों की कैसे मदद कर रहे हैं. हमारा जीवन मूल्‍य क्‍या है. हम दूसरों की मदद के लिए कितने इच्‍छुक रहते हैं. यह किए, कहे बिना बच्‍चों में हम उन संस्‍कारों की झलक नहीं देख पाएंगे, जो हम चाहते हैं.

आए दिन हम बच्‍चों के जन्‍मदिन की दावतों का हिस्‍सा होते हैं. उन्‍हें शुभकामनाएं देते हैं. लेकिन मैं अभी तक इस बात से सहमत नहीं हूं कि बच्‍चों के नाम पर हो रही दावतों से बच्‍चे को कुछ मिलता है. बच्‍चे को हम खूब सारे शोर, उपहारों के ढेर के बीच अकेला छोड़ देते हैं. क्‍या आपके उस दिन सेलिब्रिटी बने बच्‍चे ने कुछ ऐसा सीखा, शेयर किया, जिससे उसमें दूसरों को देने का संस्‍कार विकसित हो. शायद नहीं. क्‍योंकि हम बिना कुछ दिए ही यह मनवाने पर आमादा हैं कि बच्‍चा प्रेम, सदभाव और देने की आदत हवा में सीख लेगा. उसे बस दिए जा रहे हैं. उसके लिए सातांक्‍लॉज बनने से कहीं जरूरी है, उसके भीतर दूसरों के लिए कुछ स्‍पेस बनाया जाए. मेरे विचार में जन्‍मदिन इस दिशा में एक अच्‍छा दिन हो सकता है. वैसे दिन की जरूरत होनी ही नहीं चाहिए, लेकिन जब हम दिन के हिसाब से जीने लगे तो एक दिन थोड़ा-सा सीखने में लगा दिया जाए, तो इसमें कोई खराबी नहीं है.

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'डियर  जिंदगी' के पाठक, पत्रकार डॉ. सौरव मालवीय ने 'आर्ट ऑफ गिविंग' की छोटी से पहल साझा की है. उन्‍होंने बताया कि शहरों के फुटपाथ, झुग्‍गी बस्तियों से गुजरते हुए अक्‍सर उनके मन में जन्‍मदिन जैसे आयोजन को लेकर अपरोधबोध सा रहता था, इसलिए उन्‍होंने इस बार कुछ अलग करने का मन बनाया.

डॉ. सौरव और उनकी पत्‍नी सुमन मालवीय ने इस बार बेटी का जन्‍मदिन दिल्‍ली के शोर से दूर इलाहाबाद में एक अनाथालय में जाकर मनाया. डॉ. सौरव और सुमन ने वहां एक बच्‍चे की पूरे साल की शिक्षा की जिम्‍मेदारी का दायित्‍व लिया है. मेरे विचार मेंआठ बरस की सृष्टि को इससे बेहतर और कोई उपहार नहीं दिया जा सकता था. जब वह देने का महत्‍व समझने की अवस्था में है. उसके लिए यह उपहार एक तरह से संस्‍कार का काम करेगा.

एक बरस तक एक बच्‍चे की शिक्षा की जिम्‍मेदारी छोटी लेकिन बेहद खास पहल है. हम पहले भी 'डियर जिंदगी' में ऐसी कहानियां साझा करते रहे हैं, क्‍योंकि समाज में हर बड़ा बदलाव छोटे-छोटे कदमों से आता है. इसलिए अगली बार बच्‍चों के साथ जश्‍न के माहौल में डूबने से पहले किसी को 'पार' लगाने का ख्‍याल जरूर रखिएगा.

(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)

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