लिंगायत को हिन्दू समाज से अलग करना कांग्रेस की भयंकर भूल
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लिंगायत को हिन्दू समाज से अलग करना कांग्रेस की भयंकर भूल

कर्नाटक के लिंगायत समुदाय पर हाल के दिनों में बीजेपी की मजबूत पकड़ रही है. कर्नाटक में बीजेपी के कद्दावर नेता बीएस येद्दयुरप्पा लिंगायत समुदाय से ही आते हैं. अल्पसंख्यकों, पिछड़ों और दलितों के समर्थन पर आधारित राजनीति करने वाली कांग्रेस से लिंगायत समुदाय की दूरी है, जिसकी राज्य में आबादी 17 प्रतिशत (कुछ के मुताबिक 9.8 प्रतिशत) बताई जाती है.

लिंगायत को हिन्दू समाज से अलग करना कांग्रेस की भयंकर भूल

अगर कांग्रेस यह सोचती है कि इससे उसे कर्नाटक चुनाव में लाभ होगा, तो वह गलतफहमी में है. गैर-लिंगायत हिन्दुओं में इस फैसले के खिलाफ प्रतिक्रिया होगी और उनमें बीजेपी के पक्ष में गोलबंदी भी संभव है. यही नहीं, लिंगायत समाज के भीतर से इसके खिलाफ आवाज उठने लगी है. ट्विटर पर कई लोगों ने कहा कि वे लिंगायत हैं, उन्हें हिन्दू धर्म से कोई अलग नहीं कर सकता. इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि इससे कांग्रेस को आगामी चुनाव में अपेक्षित लाभ मिलने की संभावना कम है.

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी बहुत जोर-शोर से पार्टी सम्मेलन में कांग्रेस को ‘देश की आवाज’ बता रहे थे, लेकिन उसके एक दिन बाद ही कर्नाटक में कांग्रेस की सिद्धारमैया सरकार ने लिंगायत समुदाय को हिन्दुओं से अलग करने का विभाजनकारी फैसला ले लिया. कहा जा सकता है कि अप्रैल-मई में होने वाले विधानसभा चुनाव के मद्देनजर लिंगायत समुदाय में अपनी पैठ बढ़ाने की खातिर सिद्धारमैया सरकार ने यह फैसला किया है. राज्य विधानसभा की कुल 224 सीटों में करीब 100 सीटों पर लिंगायत समुदाय का प्रभाव है. लेकिन क्या यह फैसला केवल वोट हासिल करने का मामला भर है? इसे वोट की राजनीति तक सीमित करके देखना क्या इस मसले की गंभीरता को हल्का करना नहीं है? क्या यह हिन्दू समाज को बांटने की राजनीति नहीं है? क्या सरकार का काम एक नये धर्म की स्थापना करना है? इसका हिन्दू समाज तथा कांग्रेस और बीजेपी की राजनीति पर क्या असर होगा?

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कर्नाटक के लिंगायत समुदाय पर हाल के दिनों में बीजेपी की मजबूत पकड़ रही है. कर्नाटक में बीजेपी के कद्दावर नेता बीएस येद्दयुरप्पा लिंगायत समुदाय से ही आते हैं. अल्पसंख्यकों, पिछड़ों और दलितों के समर्थन पर आधारित राजनीति करने वाली कांग्रेस से लिंगायत समुदाय की दूरी है, जिसकी राज्य में आबादी 17 प्रतिशत (कुछ के मुताबिक 9.8 प्रतिशत) बताई जाती है. ऐसी स्थिति में लिंगायत समुदाय के भीतर अपनी पैठ बढ़ाने के लिए राज्य की कांग्रेस सरकार द्वारा ऐसा फैसला किया गया. 

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खास बात यह कि वह अनुमोदन के लिए इसे केंद्र सरकार के पास भेजेगी. चूंकि केंद्र में बीजेपी की सरकार है, अगर उसने इसका अनुमोदन नहीं किया, तो संभव है कि लिंगायतों के एक हिस्से में बीजेपी के प्रति नाराजगी बढ़े और चुनाव में उसे उसका खामियाजा भुगतना पड़े. अगर केंद्र सरकार इसका समर्थन करेगी, तो संपूर्ण हिन्दू समाज उसके खिलाफ उबल पड़ेगा. ऐसी संभावना है कि केंद्र सरकार इसका अनुमोदन नहीं करेगी और राजनीतिक नफा-नुकसान के मद्देनजर चुनाव तक इस पर कोई फैसला भी न ले. केन्द्र की अनुमति के अभाव में उन्हें अल्पसंख्यक होने का लाभ नहीं मिल सकेगा.

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अगर कांग्रेस यह सोचती है कि इससे उसे कर्नाटक चुनाव में लाभ होगा, तो वह गलतफहमी में है. गैर-लिंगायत हिन्दुओं में इस फैसले के खिलाफ प्रतिक्रिया होगी और उनमें बीजेपी के पक्ष में गोलबंदी भी संभव है. यही नहीं, लिंगायत समाज के भीतर से इसके खिलाफ आवाज उठने लगी है. ट्विटर पर कई लोगों ने कहा कि वे लिंगायत हैं, उन्हें हिन्दू धर्म से कोई अलग नहीं कर सकता. इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि इससे कांग्रेस को आगामी चुनाव में अपेक्षित लाभ मिलने की संभावना कम है. हालांकि इस मसले पर लिंगायत समाज में विभाजन बढ़ सकता है, जो भविष्य में हिन्दू समाज की एकता के लिए घातक हो सकता है. 

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इसके लिए 2021 की जनगणना पर नजर रखनी होगी. यानी यह देखना होगा कि वे अपने आपको हिन्दू के रूप में दर्ज कराते हैं या नहीं. अगर आरक्षण की चिंता बढ़ी तो कोई आश्चर्य नहीं कि वे अपने को हिन्दू के रूप में दर्ज कराएं, क्योंकि गैर-हिन्दू दिखाने से उनको प्रदत्त आरक्षण की सुविधा खतरे में पड़ सकती है. बहरहाल, यह भविष्य की बात है. अगर हिन्दू समाज विभाजित नहीं भी होता है, तो भी इससे कांग्रेस की मंशा उजागर हो चुकी है.

सरकर किसी धर्म विशेष को अल्पसंख्यक का दर्जा दे सकती है, लेकिन उसका काम किसी नये धर्म की स्थापना करना नहीं है. कर्नाटक के बाहर राष्ट्रीय स्तर पर इसके खिलाफ धीरे-धीरे प्रतिक्रिया बढ़ेगी और वर्षों से कांग्रेस की बनी-बनाई उस साख को धक्का लगेगा, जिसके तहत वह अपने आपको समावेशी राजनीति का वाहक बताती रही है. अब कांग्रेस पर विभाजनकारी और हिन्दू विरोधी राजनीति के आरोप और लगेंगे. इस मसले पर राहुल गांधी की चुप्पी इस धारणा को और पुष्ट करेगी. न केवल कर्नाटक चुनाव, बल्कि आगामी लोक सभा चुनाव में भी कांग्रेस को इसकी कीमत चुकानी पड़ सकती है. 2014 के लोक सभा चुनाव में काग्रेस की हार के पीछे एक कारण उसकी हिन्दू विरोधी छवि भी बताई जाती रही है.

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लोकतांत्रिक राजनीति में जाति और धर्म का इस्तेमाल किया जाना कोई नई बात नहीं है, लेकिन कर्नाटक की यह घटना इस पारंपरिक राजनीति से हटकर है. यह राजनीति में धर्म के इस्तेमाल तक सीमित नहीं है, बल्कि इससे हिन्दू समाज में विभाजन की प्रक्रिया को बढ़ावा मिलेगी. लिंगायत को अलग अल्पसंख्यक का दर्जा देने से हिन्दुओं की संख्या घटेगी, जो यूं ही कम होती जा रही है. यही नहीं, हिन्दुओं के दूसरे समुदायों में अल्पसंख्यक का दर्जा पाने की चाह बढ़ेगी, ताकि वे अल्पसंख्यकों को मिलने वाले फायदे उठा सकें. 

कांग्रेस की मनमोहन सरकार पहले ही 2014 में जैनियों को अल्पसंख्यक का दर्जा दे चुकी है. हिन्दू समाज पहले से ही धर्मांतरण कराने वाली ताकतों के निशाने पर है. यह पूरी कवायद हिन्दुओं में भय का संचार करने वाली है, जिससे समाज में अंततः कटुता बढ़ेगी. सवाल यह है कि धर्मनिरपेक्षता का दावा करने वाली कांग्रेस मुसलमानों और ईसाइयों के बारे में क्या ऐसा फैसला ले सकती है? अगर नहीं, तो उसने हिन्दू समाज के बारे में ऐसा फैसला क्यों किया?

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गौरतलब है कि लिंगायत समुदाय सदियों से हिन्दू समाज का अभिन्न हिस्सा रहा है, जो राज्य में पिछड़ी जाति की श्रेणी में आता है. पिछले दशक से लिंगायत समुदाय के एक हिस्से द्वारा लिंगायत को हिन्दू समाज से अलग कर उसे अल्पसंख्यक दर्जा देने की मांग तेज हो गई है. ऐसे में यह विचार करने की बात यह है कि इसके पीछे कौन है, उनका स्वार्थ क्या है, इससे किसे फायदा होगा? अल्पसंख्यक हो जाने पर लिंगायतों को अल्पसंख्यक मंत्रालय द्वारा धर्म के आधार पर चलाई जाने वाली विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं का लाभ मिलने लगेगा. लेकिन इसके पीछे एक और कारण बताया जा रहा है. 

इसके मुताबिक लिंगायत समुदाय के संपन्न लोगों व धार्मिक मठों द्वारा कर्नाटक में करीब एक-तिहाई निजी शैक्षणिक संस्थाएं चलाई जाती हैं. उन्हें लगता है कि उनकी शिक्षण संस्थाओं को अल्पसंख्यक का दर्जा मिल जाए, तो उनके संचालन में प्रायः सरकारी हस्तक्षेप नहीं हो सकेगा और उनकी संस्थाएं शिक्षा के अधिकार कानून के दायरे से बाहर हो जाएंगी. इस तरह वे समाज के कमजोर वर्ग के छात्रों को 25 प्रतिशत आरक्षण देने से बच जाएंगी, जो हिन्दुओं द्वारा संचालित स्कूलो को देना पड़ता है. किसी शिक्षण संस्थान को अल्पसंख्यक दर्जा प्राप्त करना कठिन नहीं है, क्योंकि उसके लिए उस संस्था में समुदाय के 50 प्रतिशत छात्र होने अनिवार्य नहीं हैं. 

अल्पसंख्यकों द्वारा संचालित संस्थाओं को अल्पसंख्यक दर्जा पाने में दिक्कत न हो, मनमोहन सरकार के दौरान राष्ट्रीय अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्था आयोग का गठन किया गया था. यहां लिंगायत समुदाय इसका फायदा तभी उठा सकता था, जब उसे हिन्दुओं से अलग कर अल्पसंख्यक समुदाय का दर्जा दे दिया जाए. कर्नाटक के राज्य अल्पसंख्यक आयोग ने जस्टिस नागमोहन दास समिति की रिपोर्ट के आधार पर इस आशय की सिफारिश राज्य सरकार के पास भेज दी, जिसके आधार पर उसने फैसला ले लिया. क्या आयोग के पास हिन्दुओं के बारे में ऐसी सिफारिश करने का अधिकार है? अगर राज्य में एक बहुसंख्यक आयोग होता, तो क्या ऐसा होता? ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या यह संविधान का दुरुपयोग नहीं है?

(लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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