मीडिया विमर्श से लुप्‍त होते मूल मुद्दे
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मीडिया विमर्श से लुप्‍त होते मूल मुद्दे

प्रतीकात्‍मक तस्‍वीर

हर जरूरी बात की चर्चा करने वाला देश का मीडिया खुद भी इस समय चर्चा में है. विश्व मीडिया भारत की खबरें यहां के मीडिया से ही उठाता है. यानी अपने देश के मीडिया पर विश्व मीडिया की नज़र भी है. इसीलिए हमें सतर्क हो जाना चाहिए कि इस मामले में दुनिया में हमारे मीडिया की कैसी आलोचना हो रही होगी. हालांकि इस मामले में मीडिया रिसर्च या सर्वे बिल्कुल नहीं दिखते.  जो आंका जा रहा है उसका आधार बस यही है कि कौन सा अखबार या टीवी चैनल ज्यादा देखा जा रहा है. 

ख़बर के महत्व को आंकने का दूसरा और कोई पैमाना अब तक बन नहीं पाया. हर खबर को हम कहते जरूर हैं कि वह जनसरोकार की खबर है लेकिन उसका जनता से कितना और कैसा सरोकार है इसकी बात नहीं होती. सो यह कैसे जानें कि कौन सी घटना महत्वपूर्ण है और कौन सी बात मीडिया के लिए बस भरतू है या चौबीसों घंटे सातों दिन दिखाने की निरतंरता के लिए मज़बूरी है. 

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इन बातों के बीच एक सवाल पैदा होना स्वाभाविक है कि वह आधार क्या हो जो खबर के महत्व को तय करे. ऐसा कोई पैमाना तय करने के बारे में सोचें तो यह सुझाव मिलता है कि एक पैमाना मानव की बुनियादी ज़रूरतों को बनाया जा सकता है. संतोष की बात है कि बुनियादी जरूरतों को जानने समझने का काफी काम हो चुका है. 

हमारी बुनियादी ज़रूरतें हैं क्या?
जरूरतों की लिस्ट बनाना मुश्किल काम है. फिर भी मनोवैज्ञानिकों ने बुनियादी जरूरतों की एक छोटी सी लिस्ट बनाने में बड़ी मेहनत की है. मसलन एक मनोवैज्ञानिक हुए हैं मैस्लो. उनकी बनाई सूची को पूरी दुनिया में स्वीकारा जाता है और लगभग हर व्यावसायिक पाठयक्रम में भी शामिल किया गया है. मैस्लो ने मानव की पांच मूल आवश्यकताओं को बाकायदा महत्व के क्रम में लगाकर बताया है. पहली-शारीरिक आवश्यकता, दूसरी-सुरक्षा, तीसरी-प्रेम जिसे सामाजिक आवश्यकता के रूप में पढ़ाया जा रहा है.  चैथी- आत्म सम्मान और पांचवी सैल्फ एक्चुअलाईज़़ेशन जो समझने में ज़रा बारीक, जटिल और दार्शनिक प्रकार की है. 

लिहाज़ा मोटे तौर पर शुरू की चार आवश्यकताओं को मानव की बुनियादी जरूरत मानते हुए एक मीडियाकर्मी चाहे तो किसी भी ख़बर के महत्व को आंकने के लिए इस्तेमाल कर सकता है. इसे एक पैमाना बनाकर सोच विचार करेंगे तो मौजूदा मीडिया की समीक्षा भी होती चलेगी. 

शारीरिक आवश्यकताएं
मैस्लो के मुताबिक पहली आवश्यकता शारीरिक है. इसके तहत भूख और प्यास आती है. रोटी-कपड़ा और मकान में भी रोटी का जिक्र इसीलिए पहले होता है. पानी को तो वैसे भी जीवन का पर्याय मानते हैं. सो अनाज और पानी की चिंता सबसे बड़ी चिंता मानी जाती है. लेकिन मीडिया में इन मुद्दों की जगह देखें तो संकट काल में भी इनसे संबधित खबरें जगह नहीं पातीं. आजकल तो बिल्कुल भी नहीं. 

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सुरक्षा
जीवन में इस जरूरत के कई प्रकार हैं. चोट या वारदात से शारीरिक सुरक्षा, मौसम की मार से बचाव, भविष्य की जरूरतों को लेकर चिंता, और उससे भी ज्यादा बड़ी नौकरी या कामधंधे की सुरक्षा. मीडिया की दिलचस्पी इस समय किसी वारदात के बाद उसकी खबर दिखाने पर ज्यादा है.  कुछ साल पहले तक भ्रष्टाचार की खबरों को महत्व मिलता था वह मुददा भी लगभग गायब है. अपराध की रोकथाम के उपायों पर विशेषज्ञों के शोधकार्य या विद्वानों के सुझाव मीडिया में देखने को नहीं मिलते. जॉब सिक्योरिटी यानी नौकरी या कामधंधे को बचाए रखने की चिंता भी सुरक्षा की मांग का एक रूप है. सामाजिक सुरक्षा के रूप में पेंशन और ग्रेच्युटी जैसे करुणामयी मुद्दे क्या मीडिया की रुचि के विषयों में शामिल हो पाते हैं?

सामाजिक जरूरतें
क्हा जाता है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है. मैस्लो का कहना है कि हर इंसान को अपने आस पास कुछ लोग चाहिए जिनके साथ उसे भावनात्मक जुड़ाव महसूस हो. इस समय हालत यह है कि मीडिया में सिर्फ सामाजिक तनाव की ख़बरें आती हैं. इसी को हम मीडिया की तरफ से सामाजिक सुरक्षा से उसके सरोकार के रूप में देख सकते हैं. समाज में सौहार्द बढ़ाने वाली ख़बरें या विचार मीडिया के बाजार में बिक्री योग्य नहीं बची हैं. 

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आत्म सम्मान 
देश में यह दौर व्यक्ति के सम्मान को देश के सम्मान से जोड़ने का दौर है. इस समय हम राष्ट्रीय अस्मिता को महसूस करके ही अपनी इस व्यक्तिगत आवश्यकता की पूर्ति कर रहे हैं. सामान्य अनुभव है कि व्यक्ति के आत्मसम्मान को देश के सम्मान का पर्याय बनाने में बड़ा योगदान मीडिया का भी है. सौहार्द के पोषण या प्रचार या प्रसार का काम मीडिया को सूझ ही नहीं रहा है. 

लुप्त होते मुद्दे 
देश में कुपोषण, अनाज की कमी, पानी का इंतजा़म, रोजगार और सुरक्षा की खबरों को कितनी तरजीह मिलती है? क्या कोई यह मानने से इनकार कर सकता है कि दुनिया में हम विकासशील देश और तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था के दर्जे को बचाने के लिए जूझ रहे हैं. यहां उसके कारणों या इतिहास के पचड़े में पड़ना जरूरी नहीं है. ज़रूरी यह है कि इन हालात से कैसे निपटा जाए? आखिरी व्यक्ति के आंसू पोंछने के लिए हम क्या कर सकते हैं और वह काम कैसे हो? 

ये सवाल मीडिया की प्राथमिकता में लाने की दरकार है. खासतौर पर तब तो और जब सुबह से शाम तक हम अपने लोकतांत्रिक होने का गर्व करते नहीं थकते. लेकिन नागरिकों की आवश्कताओं की सूची में हनीप्रीत, राम रहीम, बगदादी, उत्तर कोरिया, चीन आदि ही दिख रहे हैं. इन्हीं ख़बरों के पास अधिकतम स्क्रीन स्पेस है और वे ही अख़बारों के पहले पेज पर हैं.

(लेखिका, प्रबंधन प्रौद्योगिकी विशेषज्ञ और सोशल ऑन्त्रेप्रेनोर हैं)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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