संकीर्तन: गाती-नाचती प्रार्थनाएं
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संकीर्तन: गाती-नाचती प्रार्थनाएं

फोटो : द हरे कृष्णा मूवमेंट की वेबसाइट से साभार

घर्षण, मिश्रण और प्रदूषण के इस दौर में दुर्भाग्य से जीवन को शांति और संबल देने वाली भक्ति की लोकतांत्रिक चेष्टा भी काफी हद तक प्रभावित हुई है. पवित्र आस्था और निर्मल आनंद का संचार करने वाला भक्ति संगीत जब फूहड़ सिने गीतों की पेरोडी का चोला पहनकर हमारा मानस प्रदूषित करने पर आमादा हो और जगरातों के नाम पर शोरभरी निरर्थक भक्ति की चकाचौंध भोली भीड़ को अपने व्यापार का ज़रिया बना रही हो, तब शायद ये जरूरी है कि हम उस विरासत को भी याद करें जहां जीवन का विश्राम है. सच्ची अन्तर्लय खोजने की राहें हैं. एक ऐसा ज्योति कलश, जो हमें भक्ति के शील, पावनता, वैभव और उसके विश्वास की अमृत धाराओं का आचमन कर दिव्य आनंद के लोक में पहुंचाने की ताकत रखता है. भारतीय लोक की मान्यता में 'संकीर्तन' एक ऐसी ही सहज विधि रही है जिसमें द्रवित और अभिभूत करने की विलक्षण क्षमता है. 'संकीर्तन' किसी भी समय के साथ ठहर जाने वाली प्रवृत्ति नहीं है. यह अपने सूफियाना अंदाज में सरहदों के पार तक फैली हुई है. मणिपुर के संकीर्तन से लेकर पाकिस्तान के सिंध, उत्तर भारत के बृज क्षेत्र, सौराष्ट्र-गुजरात और मध्य भारत के लोक अंचलों तक भक्ति के इतने रूप, रंग, अभिव्यक्तियां और उक्तियां है कि अचंभा होता है.

कुछ बरस पहले संकीर्तन विधा पर एकाग्र एक समारोह की परिकल्पना मध्यप्रदेश शासन के संस्कृति विभाग की आदिवासी लोककला अकादमी ने भोपाल में की. अकादमी के तत्कालीन निदेशक और संस्कृति के मूर्धन्य अध्येता डॉ. कपिल तिवारी इस उत्सव के परिकल्पक थे. यह आयोजन अपनी संरचना में अत्यंत पारंपरिक और सुंदर शिल्प में गढ़ा था. प्रसंगवश संकीर्तन को लेकर ज़रूरी विमर्श भी हुआ और बहुत से ज़रूरी मुद्दों पर पहली बार विस्तार से चर्चा संभव हुई. बकौल तिवारी संकीर्तन आध्यात्मिक अनुभूति को कला के ज़रिए अभिव्यक्त करने का अवसर देता है. प्रार्थना संगीत का यह रूप आज भी बाज़ार से अछूता है. वे कहते हैं कि यह पॉपुलर म्यूजिक की पकड़ में नहीं आया वरना इसके स्वरूप को बिगड़ते देर नहीं लगती.

लोक से शास्त्र तक संकीर्तन का एक विशाल वितान रहा है. वैदिक मंत्रोच्चार से लेकर बुल्लेशाह की कव्वालियां, कबीर की साखियां. दोहे, सूर-तुलसी और मीरा के पद... और इन सबके साथ अज्ञात-अनाम पुरखों के मन के गोमुख से फूटती रही है भक्ति की गंगा. हम विराट को कितने ढंग से पुकारते-मनुहारते हैं कितने रूपों में उसे अवतरित और चरितार्थ करने की कोशिश करते हैं. कितनी भाषाओं और बोलियों में उस रहस्य को नामांकित करते हैं, जो मानवीय अस्तित्व या उसकी चेतना पर आदिकाल से छाया है और जिससे आज तक छुटकारा नहीं मिल सका है और आज भी हमारी आत्मा में रचा-बसा है.

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यकीनन प्रार्थना की अभिव्यक्ति का नाम है 'संकीर्तन'. संकीर्तन अहोभाव है विराट के प्रति धन्यवाद है. संकीर्तन एक गीत है भाव भंगिमा है, तरंग है. नाचती-गाती प्रार्थना का उत्सव है. यह देह और आत्म की आनंदित लय-ताल का नाम है. भारत के संकीर्तन के कलारूपों पर गौर करें तो यह शब्द और ताल के मेल से खुद में खोजाने की आनंद-रस से छलछलाती विधि है. वह कला जो देह, मन और आत्मा की त्रयी को एक सूत्र में बांधती है.

आइए जानें उस आवेग को जो आज भी भारतीय लोक की सांसों में महफूज़ है. भारत के पर्वतीय प्रदेशों में मणिपुर मणिरत्न की तरह कुदरती खूबसूरती से जितनी धन्यता का हकदार रहा है कमोबेश उतना ही भाग्शाली वह अपनी गौरवशाली संस्कृति के कारण है. मणिपुर के 'महारास' में हमें इस राज्य की समृद्ध लोककला और संस्कृति के दर्शन होते हैं. यहां संकीर्तन के महाभाव को कई कलारूपों में देखा जा सकता है. यहां 'महारास' की मिसाल ली जा सकती है.

मणिपुर का 'महारास' वैष्णवी संस्कृति का सबसे उदात्त कलारूप है जिसमें भक्ति और श्रृंगार की अभिव्यक्ति आध्यात्मिक आनंद के लोक में पहुंचा देती है. यह मणिपुरी नट संकीर्तन से प्रेरित रचना है जिसमें संगीत, नृत्य, गीत और ताल अपनी समग्रता में एक अनूठे सौन्दर्यशास्त्र की सृष्टि करते हैं. महारास अपने नाम केअनुरूप कृष्ण-राधा और उनकी सखियों के दिव्यरास भाव की नृत्याभिव्यक्ति है. चांदनी से सराबोर शरद की रात देखते-देखते एक ललित कविता में बदल जाती है. कृष्ण और उनकी रसिक प्रिया एक मिथक में बदल जाते हैं और समूची सृष्टि के सौन्दर्य का केन्द्र बन जाते हैं. मणिपुर के महारास का सबसे उजला पहलू अपने प्रदेश की पारंपरिक वेशभूषा और आभूषण हैं. नृत्य की गतियां और अंग संचालन मंथर और सुकोमल. यह सबकुछ एकपवित्र अनुष्ठान का रूप धारण कर लेता है. इस नृत्य की परंपरा, लोक और शास्त्र दोनों ही दृष्टियों से समान प्रतिष्ठा पा चुकी है.

मणिपुर के सांस्कृतिक और आध्यात्मिक परिवेश में 'चुंग चोलम' संगीत और नृत्य का ऐसा मणिकांचन कला रूप है जिसमें भक्ति की अंतर्लय मनुष्य को एक दिव्यता के लोक में पहुंचाती है. चुंग मणिपुर का पारंपरिक तालवाद्य है और चोलम से आशय देह की विभिन्न मुद्राएं हैं. यानि ताल की ध्वनि पर देह का स्पंदन. मणिपुर में चुंग चोलम का संबंध वहां के नट संकीर्तन संगीत और शास्त्रीय नृत्य से रहा है जिसका प्रचलन 18वीं शताब्दी से पहले का माना जाता है. पहले यह संगीत नृत्य मंदिरों तक सीमित था लेकिन कालांतर में पारिवारिक-सामाजिक कर्मकांडों और पर्व-उत्सवों के दौरान इसे भक्ति तथा आनंद के लिए एक जरूरी साधन के बतौर अपनाया जाने लगा है. ताल के विभिन्न आवर्तनों के साथ शरीर की अत्यंत कोमलकांत मुद्राएं विस्मय जगाती हैं.
 
मणिपुरी 'संकीर्तन' भी इस राज्य का एक ऐसा ही वैभवशाली, उदात्त कलारूप है जिसमें वैष्णवी संस्कृति अपने समूचे सौंदर्यबोध के साथ उद्घाटित होती है. आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से जोड़कर देखें, तो इसे केंद्र में कृष्ण का गुणगान संगीत, नृत्य, गीत और ताल की समग्रता में एक सम्मोहन रचता है. यह संकीर्तन एक सात्विक अनुष्ठान है. वेशभूषा से लेकर संगीत और देह गतियों और भाव-मुद्राओं तक पवित्रता का संचार होता है. कह सकते हैं कि देह की आनंदित लय-ताल का नाम है- मणिपुरी संकीर्तन.

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पूर्वोत्तर की सरहद में बसे असम प्रदेश की गौरवशाली समृद्ध संस्कृति और परंपरा में अनेक ऐसे कलारूपों का समावेश है जिन्हें वहां के पूर्वज मनीषियों ने लंबी साधना के बाद गढ़ा. इस दृष्टि से पन्द्रहवीं सदी स्वर्णकाल मानी जाती है. इस शताब्दी में श्रीमंत शंकरदेव एक ऐसे महापुरुष के रूप में उभरे जिन्होंने विशेषकर अंकिया नाट्य और कई नृत्य रचनाओं का संगीत तैयार किया. उन्हीं के समकालीन एक और कलावंत माधवदेव थे. इनका योगदान भी असम की अनेक लोकधर्मी सांस्कृतिक और कलात्मक चेतना को समुन्नत करने में रहा. उन्होंने अपने प्रदेश के जनसमुदाय में साहित्य तथा संगीत के माध्यम से आध्यात्मिक रुझान जगाने में ऐतिहासिक भूमिका निभाई. 'भोरताल' माधवदेव की ही कल्पना और संज्ञान की कलात्मक परिणति है. इसे असम की सात्र संस्कृति का नया संस्करण भी कहा जा सकता है. इस नृत्य में बोरगीत का प्रयोग होता है. जबकि मृदंग के अलावा झांझ, रिद्म को साधने का काम करती हैं. भोरताल एक ऐसा अलौकिक अनुष्ठान है जिसमें कविता, संगीत और देह का दिव्ययोग भक्ति की उदात्त भावभूमि तैयार करता है.

गोवा की भक्ति परंपरा में प्रार्थना की कविता और प्रार्थना के संगीत का सुयोग है. मध्यकालीन संत-कवियों के प्रेरक पदों को चुनकर उन्हें पारंपरिक संगीत शैलियों में जनसमुदाय के बीच प्रस्तुत करने का चलन रहा है. महाराष्ट्र के संकीर्तन की स्पष्ट छाप गोवा की इस आध्यात्मिक विधि पर भी पड़ी है.

संत कबीर के अभंग से लेकर पंत मोरो पंत, ज्ञानेश्वर तुकाराम और तुलसीदास तक सोलहवीं सदी के महान कवियों की रचनाएं समाज प्रबोधन के लिए इस संकीर्तन में प्रयोग की जाती हैं. एक अर्थ में यह आध्यात्मिक सत्संग का सद्मार्ग है. साधकों ने इन भक्ति रचनाओं को गाने के लिए 'आर्या' और ओवी' जैसी संगीत शैलियों को अपनाया है.

उड़ीसा की संकीर्तन परंपरा में 'घट पटुआ' अर्धनारीश्वर की उपासना की एक कलात्मक विधि है जिसका आधार एक पौराणिक मिथक है जो भक्ति और सौंदर्य का आध्यात्मिक भाव जगता है. लोक मान्यता है कि तरकासुर का वध करने के लिए जब हज़ारों साल पहले उड़ीसा के लोगों ने देव प्रार्थना की तो शिव-शक्ति ने अर्धनारीश्वर के रूप में प्रकट होकर चैत्र माह की मीन संक्रांति के दिन इस आसुरी शक्ति से उन्हें मुक्त कर शांति की प्रतिष्ठा की. उड़ीसा के गांवों में हर वर्ष अवधि चैत्र माह अर्धनारीश्वर की आराधना का होता है. यानी भगवती, जगमाता, आदिमाता के प्रति अपनी अनन्य आस्था की अभिव्यक्ति का लोकरूप है 'घट पटुआ'.

घट का अर्थ है. घड़ा और 'पटुआ' से आशय विशेष प्रकार के पारंपरिक श्रृंगार से है जिसे एक पुरुष धारण करता है. इस अवतार के बाद उसे 'घट पटुआ' संबोधित कर देवी के रूप में पूजा जाता है. परवावज और घट की लयबद्ध ध्वनि के साथ 'घट पटुआ' की थिरकती देह वातावरण में अलौकिक अनुभृति जगाती है. यह तंत्र भीत्तिक नृत्य है जिसमें भक्त का समर्पण उसे अनुभूति के उच्च शिखर पर ले जाता है.

इठलाती नदियों और नीली पहाड़ियों वाले असम प्रदेश की कलाओं ने भारत के उत्तर-पूर्व की सांस्कृतिक धड़कनों को अपने दामन में सहेज रखा है. इन कलाओं के प्रणेता, पोषक वहां के अनेक पूर्वज मनीषी हैं जिनकी स्मृति आज भी वहां के जनजीवन में रची बसी है. 'गायन-बायन' असम के देवतुल्य श्री शंकरदेव की अनुपम रचना है. हालांकि इसका संबंध वहां की रंगमंचीय परंपरा से है लेकिन इसके मूल में संकीर्तन ही हैं जिस तरह संस्कृत नाटकों में पूर्वरंग की परंपरा है, असम के अंकिया नाट्य की शुरुआत गायन-बायन से होती है. इसमें देव चरित्रों की महिमा का बखान है. इसे धेमाली भी कहा जाता है. परंपरा के वाद्य और धीमी गति से शुरू हुए गीत समापन तक तेज़ रफ्तार पकड़ते हैं. एक अर्थ में गायन-बायन नाट्य देवता की प्रार्थना का संगीत है जिसके माध्यम से आत्मप्रकाश जगाने का उपक्रम संभव होता है.
 
मरुभूमि राजस्थान के लोकजीवन में 'तेरहताली' संकीर्तन की एक अनूठी विधि है. आस्था और श्रद्धा की अनुभूतियां यहां गायन, वादन तथा देह नर्तन का रंजनकारी ताना-बाना लिए है. दुनियाभर में तेरहताली राजस्थान के धार्मिक नृत्य के रूप में लोकप्रिय है जिसके मूल में बाबा रामदेव की पुकार, उनका गुणगान और उन्हें प्रसन्न करने का प्रयोजन है. बाबा रामदेव की महिमा के गीतों में राजस्थानी लोकजीवन की घटनाओं-प्रसंगों का बड़ा ही मर्मस्पर्शी चित्रण होता है. अपने नाम के अनुरूप इस नृत्य में तेरह मंजीरों की झंकार है जो एक भक्तिन की देह के विभिन्न अंगों से उठती है. मुंह में तलवार और सिर पर कलश धारण कर जब ढोलक, तंबूरा और झांझ की लय-ताल पर नर्तकी थिरकती है तो भक्ति का रोमांच अनुभूति के नए शिखरों पर हमें ले जाता है.

अपने नाम के अनुरूप चैतन्य संकीर्तन कविता, संगीत और नृत्य का मिला-जुला प्रार्थना रूप है जिसमें श्री चैतन्यमहाप्रभु का लीलागान है. उत्तरप्रदेश की जनपदीय आस्थाओं से जुड़ा यह भक्ति संगीत आज सरहद पार के देशों में अध्यात्मिक क्रांति का मंत्र बन गया है. एक ऐसी विधा जिसमें शब्द और भावों की संजीवनी शक्ति स्वर और देह को साथ लेकर अद्भुत नाद सम्मेहन का संचार करती है. चारों युगों में चैतन्य प्रभु की भक्ति अलग-अलग रूपों में रही है. सतयुग में प्रभु को प्राप्त करने का मार्ग तपस्या था, त्रेता युग में प्रभु की प्राप्ति दान से होती थी. द्वापर युग में पूजा-अर्चना और कलयुग में पतित जीव का उद्धार करने के लिए प्रभु का नाम और उनकी महिमा का गान ही उनकी भक्ति का माध्यम बन गया.

उत्तरप्रदेश की बृजभूमि की पवित्र भक्तिधारा के साथ रसिकप्रिया राधा और लीलापुरुष कृष्ण का सुमिरन कलाजयी है. मृदंग, ढोलक, झांझ, मंजीरा, खैजरी के आरोह-अवरोह और उनके साथ भक्त गायकों की सुरीली संगत में श्रीराधे-कृष्ण का उद्घोष पूरे माहौल को रूप, रस, गंध की प्रेमपगी अनुभूतियों से सराबोर कर देता है.

बंगाल की साधना पद्धति में काव्य रचना तथा अन्य धार्मिक सामाजिक मान्यताओं से भिन्न एक ऐसी सम्प्रदाय-परंपरा है जिसमें रूढ़ियों को कोई स्थान नहीं फिर भी वह इस समाज का अभिन्न अंग है. बंगाल में इसे 'बाउल' के नाम से जाना जाता है. तमाम मान्यताओं से अलग मस्तमौला, जिसे किसी की परवाह नहीं. परवाह है भी तो बस अपनी धुन की, अपने द्वारा खोजे और स्वीकृत सत्य की केवल उन्हें चिंता है. एक मन, एक तारा, एक गीत, एक राग एक ही मन का मानुष-मनेर मानुष. बाउल का सहज अर्थ बावरेपन से जोड़ा जा सकता है यानी वह उच्चतम आध्यात्मिक भाव जहां सच्चे भक्ति रस की उत्पत्ति होती है. विशुद्ध ईश्वर प्रेम और स्वाधीन चित्त जो तमाम बंधनों से उपर उठकर चरम आनंद की अनुभूति से जोड़ देता है.

बंगाल के एक संत कवि दुघुशाह ने कहा है. 'ये खोजे मानुष' खोदा सेई तो 'बाउल' यानी, जो मनुष्य में ईश्वर को खोजता है, वहीं बाउल है.

गुरुदेव रवीनन्द्रनाथ टैगोर अपनी जम़ीदारी के दौरान वर्तमान बंग्लादेश के शिलाइदह आवासकाल में लालन फकीर के बाउल गानों के संपर्क में आए और उन्होंने इन गानों की भाव-भाषा से प्रभावित होकर स्वयं इस गीत-संगीत का संग्रह किया. प्रकाशन भी किया.

पश्चिमी सरहद से जुड़ा महाराष्ट्र भी अपनी लोक स्मृतियों और परंपरा की पूंजी से समृद्ध रहा है. भक्ति परंपरा की विधियों में लोक संवेदनाएं वहां नृत्य-संगीत से जुड़े अनुष्ठानों को अपना आश्रय बना लेती हैं 'गोंधल' में यही आनंद उद्घाटित होता है. गोंधल में कथा और नृत्य की जुगलबंदी है. केवल मां भवानी की कथा ही गाई जाती है. इसे पेश करने वाले कलाकारों को गांधेली कहा जाता हैं. इसमें माता के जसगीत होते हैं. दरअसल यह धार्मिक विधि की तरह स्वीकार रहा है. संबल, मंजीरा और तुनतुना की स्वरलहरी के बीच कथा-प्रवाह बनाने वाला गोंधल भी एक आदर का पात्र बन जाता है.

हिंदुस्तानी मौसिकी के मुख्तलिक रंगों में 'नात कव्वाली' की रौशनी भी गुजश्ता दौर से आज तक पूरी पाकीज़गी के साथ अवाम की रूहों में महफूज़ है. इबादत का एक ऐसा ज़रिया जिसमें प्यार का इज़हार है तो प्रार्थना के पवित्र सुरों का दरिया भी उमड़ता है. हिंदुस्तानी मजहब में नात कव्वाली के गायन का रिवाज़ उर्स मेलों और मजारों पर अल्लाह के नाम सुरीला पैगाम भेजने और बिरादरी को परवर दिगार की दुआओं के लिए रुहानी दस्तक देने का ज़रिया है. ये वो सूफी गायन है जो अकेले राहें तय नहीं करता, सुर में सुर मिलाता, भक्ति रंग में सबको शामिल करता परवान चढ़ता है. नात कव्वाली बेहद रियाज़, समर्पण और ऊर्जा की दरकार रखती है. इसमें शास्त्र में बंधा राग रागिनियों का संगीत है, सुगम संगीत की मधुरता है तो लोक संगीत की स्वच्छंद उड़ानें भी हैं.

उड़ीसा का 'ताल मृदंगम' देह की यौगिक क्रियाओं और ताल के नाद का विस्मयकारी संगम हैं. सोलहवीं सदी के भक्ति आन्दोलन के दौरान उड़ीसा में सामाजिक समरसता, सांस्कृतिक सौहार्द और भावात्मक परस्परता जगाने के लिए संगीत-नृत्य का महत्वपूर्ण योगदान रहा. ये वे कलात्मक माध्यम थे जिनके ज़रिए आत्मशुद्धि, समर्पणऔर सामाजिक संवाद आसान था. 'ताल मृदंगम' अपने पारंपरिक स्वरूप में भक्ति के आध्यात्मिक आनंद की हिलोर पैदा करने वाला लोक लुभावन नृत्य है. उड़ीसा में कृष्ण के प्रति अपने अनन्य निवेदन हेतु इस नृत्य की परंपरा है. ताल मृदंगम नाद ब्रस्म की खोज है. उस ओंकार में विलीन होने की इच्छा है जिससे यह सृष्टि का आरंभ हुआ. यहां लोक और शास्त्र हमें आध्यात्मिक और दार्शनिक धरातल पर जुगलबंदी करते दिखाई देते हैं.

सदियों से लोक मानस अपने व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन के संशयों, प्रश्नों और चुनौतियों का समाधान संकीर्तन की इसी संचेतना में खोजता आया है. जीवन के अधेरों से निकलती इसी प्रकाशमणि ने मनुष्य को सहारा दिया. दुर्भाग्य से हमारे आधुनिक जीवन की संवेदनाओं और पूर्वाग्रहों ने भक्ति की इस शक्ति और व्याप्ति को अपने स्तर पर नकारने की कोशिश भी की लेकिन इस शाश्वत, सनातन भावधारा के आवेग को रोकना संभव नहीं.

-विनय उपाध्याय

(मीडियाकर्मी, लेखक और कला संपादक)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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