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बीएचयू में लड़की को छेड़ा गया. लड़कियों ने अपनी सुरक्षा की मांग की. उस पर घ्यान देने की बजाए प्रशासन ने पीड़ित लड़की को ही अपनी सुरक्षा के लिए सावधानी बरतने की समझाइश दे डाली. जबकि लड़कियां ये मांग कर रही थीं कि विवि परिसर में जहां अंधेरा रहता है वहां रोशनी और सीसीटीवी कैमरे लगाए जाएं. अपनी मांग के लिए वे धरने पर बैठ गईं. प्रशासन को यह नागवार गुजरा और आखिर कई तरह के मुददे बनाते हुए लड़कियों पर लाठी चार्ज हो गया. यानी देखते ही देखते पूरी धटना एक बड़े कांड में तब्दील हो गई.
यहां गौर करने की पहली बात यह है कि मुद्दा छेड़खानी की वारदात नहीं बल्कि धरना बना. दूसरी अहम बात यह कि उन लड़कियों को अपने खिलाफ हुई छेड़खानी का विरोध करने पर जवाब यह मिला कि पीडि़त होने की जिम्मेदार वे खुद हैं. वैसे इस बीच मामला बहुत आगे बढ़ गया है और एक आंदोलन का रूप लेने लगा है. इस बारे में तरह-तरह से टीका टिप्पणियां और राष्टीय स्तर पर विमर्श शुरू हो गए हैं. इस बहसबाजी को सुनते हुए मुझे प्रबंधन के क्षेत्र में अपने प्रोफेशनल करियर में सबसे पहले मिले एक काम की याद आ गई.
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उस कांफ्रेंस की याद...
यह 16 और 17 जुलाई 2011 की बात है. कंस्टीट्यूशन क्लब में भ्रष्टाचार पर नेशनल कान्फ्रेंस का प्रबंधन करना था. दो दिन की इस कान्फ्रेंस में आठ सत्रों की संयोजना के लिए प्रबंधन टीम के दो महीने खर्च हुए थे. हर सत्र के लिए देश के प्रतिष्ठित समाजशास्त्रियों, अर्थशास्त्रियों, मनोवैज्ञानिकों, अपराधशास्त्रियों और राजनीतिकों के नाम भी प्रबंधन दल को सुझाने थे. आठ में से एक सत्र था भ्रष्टाचार का अपराधशास्त्र.
इस सत्र के लिए तय हुआ था कि अपराधशास्त्र पढ़ाने वाले प्रोफेसरगणों को बुलाया जाए. वे आए. उस सत्र के पहले और उसके बाद आमंत्रित अपराधशात्रियों के बीच हुई अनौपचारिक बातचीत को सुनने का मौका भी मुझे मिला. उसी दौरान मुझे पता चला कि अपराधशास्त्र के पाठयक्रम में अपराधी के अध्ययन के साथ पीड़ित का भी अध्ययन होता है. इसके लिए एक स्वतंत्र विषय के रूप में ज्ञान विज्ञान की एक शाखा भी बन चुकी है जिसे अंग्रेजी में विक्टिमॉलोजी कहते हैं. विक्टिमॉलोजी के लिए उपयुक्त हिंदी शब्द पीड़ितशास्त्र ही सूझता है. यही पीड़ितशास्त्र बीएचयू में धरने पर बैठी पीड़ित छात्राओं के मामले में याद आ रहा है. इस कारण से याद आ रहा है कि इन पीड़ित छात्राओं के विरोध को नकारते हुए यह तर्क दिया जा रहा था कि अपने पीड़ित होने के लिए वे खुद ही जिम्मेदार हैं.
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क्या मानकर चलती है विक्टिमॉलोजी
यह बताने का काम वैसे तो अपराधशास्त्री का है. लेकिन उनकी अनुपस्थिति में उनके प्रबंधक की हैसियत से इतना तो कह ही सकती हूं कि पीड़ित में वे खोट ढूढ़ें जाते हैं जिसके कारण वह विक्टिम बना. इस तरह से अपराधी का अपराध के परिदृश्य से गायब हो जाना स्वाभाविक है और कानून का पालन कराने वाली एंजसियों की जिम्मेदारी कम हो जाना भी स्वाभाविक है. जहां तक सवाल इस नए विज्ञान की विषय सामग्री का है तो इसमें आमतौर पर अपराध का शिकार होने से बचने के तरीके बताए जाते हैं. मसलन घर ऐसा मजबूत बनाइए कि चोर घुस न पाए, घर में कैमरे वगैरह लगाकर रखिए ताकि चोर पकड़े जाने के डर से चोरी ही न कर पाएं. इस मामले के संदर्भ में देखें तो लड़कियों को किस समय तक हॉस्टल पहुंच जाना चाहिए? कैसे कपड़े पहनने चाहिए? वगैरह-वगैरह. इस मामले में विक्टिमॉलोजी की विषय सामग्री का एक बिंदु मोरल पुलिसिंग से जोड़कर भी दिखा.
अपराधी का विमर्शों से गायब हो जाना
किन लोगों ने छात्रा से वैसा व्यवहार किया? यानी वे कौन थे? प्रशासन ने उनके खिलाफ क्या किया? ये सारे सवाल अपराध के परिदृश्य से गायब हैं. पूरा का पूरा चिंतन पीड़िता और उसकी साथी छात्राओं के सही या ग़लत होने के इर्द गिर्द किया गया. यानी इस कांड में सिर्फ पीड़ितशास्त्र इस्तेमाल हो गया और बुनियादी अपराधशास्त्र गायब हो गया.
अपराधशास्त्रीय पहलू
समाज में बढ़ते अपराध का विषय सीधे-सीधे अपराधशास्त्र का विषय है. अपराधशास्त्र जब अपराध के समाधान को सोचना शुरू करता है तो उसके कारणों पर सबसे पहले गौर करता है. इसीलिए समाजशास्त्र और असमान्य मनोविज्ञान उसके अध्यापन क्षेत्र में सबसे पहले आते हैं. बीएचयू का यह मामला जितना प्रशासन की लापरवाही और सुरक्षा में ढील का है उतना ही सामाजिक बदलाव पर अलग-अलग सोचों का भी है. यहां कुछ सवाल एक देश के नागरिकों के बुनियादी अधिकारों और सामाजिक मूल्यों के भी बन सकते हैं. सिर्फ भारत नहीं पूरी दुनिया की सरकारें अपने-अपने नागरिकों के बदलते व्यवहार से चिंतित है. अगर यह व्यवहार का मामला है तो बात नैतिकता की चिंता पर जाकर टिकेगी.
जैसा मैंने अपराधशास्त्रियों के बीच आपस में होने वाली बातचीत को सुनकर जाना है, उससे पता चलता है कि अपराधशास्त्र सिर्फ अपराध का अध्ययन ही नहीं करता बल्कि अनैतिकता, सामाजिक कुरीतियों, अपचार, कदाचार और कुव्यवहार जैसी प्रवृत्तिायों का भी अध्ययन करता है. छात्रा के साथ छेड़खानी होना? कथित रूप से वहां खड़े सुरक्षाकर्मियों का उसकी मदद न करना? फिर प्रशासन से मदद भी नहीं मिलने के आरोप और उसका जवाब यह मिलना कि वह छात्रा उस समय वहां क्या कर रही थी? अंत में धरने पर बैठी छात्राओं पर लाठी चार्ज होना. ये सारी घटनाएं कई स्तरों पर अनैतिकता के पोषण या कहें नैतिकता के शोषण की ओर इशारा करती हैं.
कहा यह भी जा सकता है कि हम वक्त के उसे दौर में हैं जहां हमें अनैतिकता की दशा में ही रहकर अपना वक्त गुजारने के लिए तैयार किया जा रहा है. अगर एक समाज के रूप में हम अभी गंभीर नहीं हुए तो आगे स्थिति और बिगड़ने से कौन रोक पाएगा.
(लेखिका, प्रबंधन प्रौद्योगिकी विशेषज्ञ और सोशल ऑन्त्रेप्रेनोर हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)