डियर जिंदगी : इस 'नींद' की सुबह कब होगी!
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डियर जिंदगी : इस 'नींद' की सुबह कब होगी!

कोई समाज जब अपने सरोकार, प्रश्‍न राजनीति की ओर से खिसका देता है, तो उस पर संकट गहरा जाता है. जैसा एक समाज के रूप में हम भारत में कई दशक से देख रहे हैं. हमारे भीतर से प्रश्‍न, संवाद की क्षमता हर दिन कम हो रही है.

डियर जिंदगी : इस 'नींद' की सुबह कब होगी!

नींद, हमारी जिंदगी का अहम हिस्‍सा है. जागने का महत्‍व तभी है, जब सोने के लिए पर्याप्‍त समय है. अगर नींद गायब हो जाए तो उसके बाद जागना अर्थहीन हो जाएगा. लेकिन अगर जागते हुए भी हम नींद में रहेंगे तो इस जागने का क्‍या अर्थ! ऐसा जागना किस काम का, जिसमें जागे हुए भी हम नींद की खुमारी में ही रहें. ऐसी नींद का भी कोई अर्थ नहीं, क्‍योंकि वह मन और चेतना के लिए किसी स्‍तर पर सहयोगी नहीं. कहने को नींद है और कहने को ही हम जागे हुए हैं. असल में हम दोनों में ही नहीं हैं. क्‍योंकि आधे-अधूरे चित्‍त का कोई अर्थ नहीं होता. ऐसे चित्‍त, ऐसे मानस से हम किस सृजन की आशा रख सकते हैं. जिसके अपने चित्‍त का कोई भरोसा नहीं है.

एक देश के रूप में हम कुछ ऐसी नींद में हैं, जिसका टूटना तो बहुत जरूरी है, लेकिन उसे कौन तोड़ेगा! भारत अपनी चेतना, अपनी संस्कृति और सोच-विचार के दायरे की ऐसी नींद में गहरे जाता दिख रहा है, जहां से उजाले की आस तो दूर आहट भी नहीं दिखती. कोई समाज जब अपने सरोकार, प्रश्‍न राजनीति की ओर से खिसका देता है, तो उस पर संकट गहरा जाता है. जैसा एक समाज के रूप में हम भारत में कई दशक से देख रहे हैं. हमारे भीतर से प्रश्‍न, संवाद की क्षमता हर दिन कम हो रही है. हम सवालों की शैली में उलझ जाते हैं. प्रश्‍नकर्ता को ही सवाल के कठघरे में खड़ा कर देते हैं. क्‍योंकि उसे सवाल किया. जबकि मनुष्‍यता के सफर में सवाल और प्रश्‍नकर्ता दो सबसे अहम पड़ाव रहे हैं.

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हमारे हर दिन आधुनिक होने के दावे किए जा रहे हैं, लेकिन यह आधुनिकता असल में हमारी बाह्य त्‍वचा का हिस्‍सा भी नहीं है. बल्कि उल्‍टा हम अंतर्मन की ओर से कठोर, अनुदार और पूर्वाग्रही समाज हुए जा रहे हैं. हम 'आधुनिक' के 'अ' से भी मीलों दूर हैं.

भारत के अधिकांश शहरों में युवा की सारी दृष्टि 'भौतिक' प्रश्‍नों पर टिकी है. इसमें कुछ भी अनुचित नहीं है, सिवाए इसके कि वह अपने समय के रिवाजों, रस्‍म और सोचने-समझने, तर्क करने से अब भी कोसों दूर है.

दहेज प्रथा, दलितों-स्‍त्रियों से भेदभाव और जाति की मजबूत स्थिति यह बताने के लिए पर्याप्‍त है कि हम किस तरह उन कथित मूल्‍यों की कैद में हैं, जिन्‍हें पंरपरा का नाम देकर समाज की 'नेमप्‍लेट' पर टांग दिया गया है.

कोई भी 'राम-रहीम' अचानक कहीं से आकर उनकी चेतना पर अतिक्रमण कर लेता है. यह समझना बिल्‍कुल मुश्किल नहीं कि यह 'राम-रहीम' उस खाली जगह को भर रहे हैं, जो समाज में वैज्ञानिक सोच, तर्क की कमी से उपजी है. मजेदार बात यह है कि इन 'राम-रहीम' और कृपा दूर करने वाले चमत्‍कार के बीच लाखों युवा हैं. जो आधुनिकता का लिबास पहनकर खुद के 'मॉडर्न' होने का उत्‍सव मना रहे हैं.

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हम आज एक समाज के रूप में जो भी हैं, केवल इसलिए हैं, क्‍योंकि पूर्वजों ने कभी सवालों को सहज होकर सुना था. संसार में असंतोष और अन्‍याय हमेशा से हैं. कभी कोई समय इनसे परे नहीं था. असल में सर्वोत्तम समय जैसा कोई समय होता ही नहीं. हर समय के अपने संकट होते हैं. लेकिन उस समाज को बेहतर 'श्रेणी' मिलती है, जो अपने पर सवाल करने की क्षमता बढ़ता जाता है.

मनुष्‍यता और दुनिया के उदार, एक-दूसरे के प्रति संवेदनशील और सहनशील होने का सफर कितना मुश्किल रहा होगा. क्‍योंकि राज्‍य और सत्‍ता कभी कमजोर के साथ सहर्ष नहीं होते. वह वंचित के साथ कभी खुद नहीं आते. यहीं पर किसी समय के नायक की भूमिका तय होती है. जिनके प्रश्‍न हमें सोचने पर मजबूर करते हैं. जिसके सवालों में दुनिया के लिए संवदेना होती है, असल नायक वही हैं. गांधी, मंडेला और लिंकन इसलिए समय से परे हैं. क्‍योंकि उनके पास हम सबसे कहीं अधिक करुणा, प्रेम और सरोकार था. यह प्रेम अब दुनिया से हर दिन गायब होता जा रहा है. दुख की बात यह नहीं कि प्रेम गायब हो रहा है, बल्कि यह है कि एक समाज के रूप में हमें इसकी चिंता ही नहीं है.

इस समय भारत ही नहीं पूरी दुनिया में प्रश्‍नकर्ता खतरे में हैं. क्‍योंकि हम सवाल सुनने का संयम खोते जा रहे हैं. हमारे भीतर किसी को भी सुनने का धैर्य खत्‍म हो रहा है. क्‍योंकि हम मानकर चल रहे हैं कि जो कुछ कहा जा रहा है, वह बेकार है. ऐसा इसलिए हुआ क्‍योंकि हमने दूसरे के प्रति अपनी संवदेना को खो दिया है.

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(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)

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