हर किसी को लगता है, वह आजाद है. वह अपनी समझ से सोच रहा है, विचार कर रहा है. लेकिन क्या सच नहीं है! हम कानूनन आजाद हैं, लेकिन विचार प्रक्रिया, निर्णय लेने और सामाजिक कुरीतियों को छोड़ने के संघर्ष में मीलों पीछे हैं.
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आप कितने स्वतंत्र हैं! यह एक ऐसा सवाल है, जिस पर सवाल करने वाले की ओर ही निगाहें टिक जाती हैं. हमें आजादी मिले आधी सदी से अधिक वक्त हो चला है. ऐसे में पहली नजर में यह सवाल ही बेईमानी हो जाना चाहिए था, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. हम संवैधानिक रूप से आजाद हैं. हर ओर अभिव्यक्ति की आजादी का शोर है. हर किसी को लगता है, वह आजाद है. वह अपनी समझ से सोच रहा है, विचार कर रहा है. लेकिन क्या सच नहीं है! हम कानूनन आजाद हैं, लेकिन विचार प्रक्रिया, निर्णय लेने और सामाजिक कुरीतियों को छोड़ने के संघर्ष में मीलों पीछे हैं. हमारे भीतर एक 'पैटर्न' बन गया है. अच्छे,बुरे का. सही और गलत का. जीने और यहां तक कि मरने का भी. ऐसे में खुद को स्वतंत्र कहना एक छल जैसा लगता है. स्वयं के प्रति! कितने लोग हैं हमारे आसपास, जिनकी सोच स्वतंत्र है. हम बच्चों को जन्म देने से लेकर उनके बड़े होने, सोचने-समझने, देखने और सुनने तक में पहरे लगाए बैठे हैं.
हम हर कदम पर अपना नजरिया दूसरों में 'ट्रांसफॉर्म' करने में लगे हैं. ऐसे प्रार्थना करो, जैसे तुम्हें सिखाया है. ऐसे सोचो, जैसे तुम्हें सिखाया है. ऐसे रहो, जैसे तुम्हें बताया है. हमारे बच्चों की दुनिया हमारी नकल से नहीं संवरेगी, उन्हें अपना स्नेह दीजिए, अनुसरण का आदेश नहीं. अनुसरण करते-करते बच्चे मनुष्य से 'रोबोट' बनते जा रहे हैं. एक-दूसरे की नकल करते-करते उनके भीतर की विविधता, अंतर्दृष्टि, जिज्ञासा अब शून्यता की ओर बढ़ रही है. इसलिए बहुत जरूरी है कि बच्चों के भीतर सोच की स्वतंत्र दृष्टि विकसित हो. ध्यान रहे, हमारी भूमिका बच्चों के प्रति केवल माहौल देने तक सीमित रहनी चाहिए. उन्हें अपने ढंग से बढ़ने का साहस दें, उन्हें संस्कार और पंरपरा के सही वैज्ञानिक अर्थ समझाएं. हमारे मानस में अभी भी एक-दूसरे के प्रति असमानता, दुराग्रह जैसी चीजें शासन कर रही हैं, जो हमारे ही विरुद्ध हैं, लेकिन सामंतवाद ने उसका घोल ऐसे तैयार किया है कि हमारी रगों से उसका असर आसानी से नहीं जाएगा. समाज में दिखावे और पुरुष 'सत्ता' ने परंपरा का ऐसा घोल तैयार किया है, जिसमें जीवन की सहज स्वतंत्रता के विचार भी अपना अस्तित्व खो बैठे हैं.
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मैं आपसे एक अनुभव साझा करने जा रहा हूं. ऐसे परिवार के बारे में जो स्वतंत्रता का राग ऊंचे स्वर में जो बजाते हैं. 'नेमप्लेट', पहनने, ओढ़ने तक में आधुनिक होने का बोध झलकता है. इस उदाहरण को हमारे समाज के नजरिए और स्वतंत्रता से जोड़कर देखना चाहिए. वह प्रोफेसर हैं. इतिहास पढ़ाते हैं. आजादी और मानवाधिकार पर उनके लेख, भाषण लाजवाब हैं. आर्थिक रूप से पर्याप्त सक्षम हैं. एक ही बेटा. शिक्षित और उनके अनुरूप संस्कारित. प्रोफेसर साहब अंतरजातीय विवाह के प्रोत्साहन के लिए भी जाने जाते हैं. एक पूरा 'आजाद' ख्याल परिवार.
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इस आजादी पर पहला खतरा कुछ महीने पहले आया. जब उनके बेटे ने उन्हें बताया कि वह उनकी ही होनहार शिष्या से विवाह करना चाहता है, जिसकी वह न जाने कितनी तारीफें मुल्क में कर चुके हैं. शिष्या ने भी अनेक रिसर्च पेपर का श्रेय प्रोफेसर को दिया हुआ है. जैसे ही खबर प्रोफेसर परिवार को पता चली, दोनों को ठेस लगी. इतने आजाद ख्याल की लड़की शिष्या तो ठीक, लेकिन बहू के रूप में कैसे सफल निभेगी! ऊपर से प्रोफेसर के खानदान में बड़ी और शाही शादियों का चलन था. उसका क्या होगा, क्योंकि लड़की लेकिन एक सामान्य क्लर्क की बेटी है, लेकिन इंकार करने का आधार नहीं मिल रहा था, क्योंकि लड़की के पास सजातीय 'आधार कार्ड' भी था. उसके बाद प्रोफेसर और उनके बेटे के बीच की दुनिया बदल गई. बेटे ने उन्हीं उसूलों और आजाद ख्यालों का वास्ता दिया, जो उसे समझाया गया था, लेकिन पिता आजादी के सही मायने और 'आजादी के साथ कर्तव्यों' पर टिके रहे. पिता ने समझाया कि आजादी का मतलब घर में आग लगाना नहीं है. रिवाजों और परंपरा (शाही शादी और बराबरी वालों में रिश्ता) जिंदगी के जरूरी आयाम हैं. लेकिन बेटा नहीं माना. उनसे उस आजादी को चुना जो उसके पिता ने सिखाई थी. वह उस रोशनी के सहारे आगे बढ़ा, जिसका संबंध मनुष्यता से है. एक दिन 'जीवन-संवाद' के एक सत्र में प्रोफेसर के बेटे से मुलाकात हुई, जब मैंने उससे शादी में न बुलाने की बात कही तो उसने कहा, 'पापा चाहते थे हम स्वतंत्रता पढ़ते हुए भी गुलाम बने रहें. उस परंपरा और रिवाज से बंधे रहे, जो मूल आजादी का खंडन है'.
आप किस आजादी के साथ हैं, प्रोफेसर या उनके बेटी की. बताइएगा जरूर…
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(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)
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