डियर जिंदगी : जिंदगी को चिड़ियाघर बनने से बचाएं...
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डियर जिंदगी : जिंदगी को चिड़ियाघर बनने से बचाएं...

उम्र कुछ भी हो... जिंदगी के नए मायने तलाशें. खुद को दूसरों के हिसाब से चलाना बंद करें. जिंदगी को चिड़ियाघर बनने से बचाएं. जहां उम्र गिनने के बदले भोजन मिलता है. जिंदगी प्रयोगशाला है. प्रयोग करें, आनंद में रहें. संग्रह को संतुलित करिए और तबियत को आजाद.

अगर कोई कह रहा है कि वह उदास हो रहा है. बिना वजह और वजह से भी. तो दोनों स्थितियों में संवाद बहुत जरूरी है.

'मैं ऊब गई हूं, इस एक जैसी जिंदगी से तंग आ गई हूं. रोज वही कहानी. मेरी जिंदगी हिस्‍सों में बंट गई है. पति, बच्‍चे और उनकी जिम्‍मेदारियां. मैं क्‍या हूं, मेरी भूमिका क्‍या है. मेरा अस्तित्‍व कहीं गुम हो गया है. मुझे लगता है, मैं गहरी निराशा की ओर जा रही हूं. कोई तरीका है, इन भावनाओं को नियंत्रित करने का.'
 
'डियर जिंदगी' की एक नियमित पाठक, प्रशंसक ने यह संदेश मुझे इनबॉक्‍स पर भेजा. हम इस विषय पर आगे बात करें उससे पहले यह देखें कि यह कितने लोगों का सवाल है! ऊब, एकरसता हमारी जिंदगी पर मंडराने वाले सबसे बड़े खतरों में से एक हैं, लेकिन दुर्भाग्‍य से यह सबसे ज्‍यादा उपेक्षित है. हम क्‍या करते हैं, क्‍या कहते हैं. जब कोई यह सवाल करता है!

मंगलवार को अमेरिका में एक महिला सब-वे स्‍टेशन की छत पर पहुंच गई. वह वहां से आत्‍महत्‍या करने ही वाली थी कि माइकल क्‍लेन नाम के बेहद सजग, संवेदनशील युवक ने उनकी जान बचा ली. उसे छत पर जाते हुए देखा तो उसके पीछे चला गया. और लगभग एक घंटे की बातचीत के बाद उसे समझा-बुझाकर सुरक्षित उतार लिया. यह कहानी विस्‍तार से आपको इंटरनेट पर मिल जाएगी. इसलिए हम उसकी बात नहीं करेंगे. हम बात करेंगे कि कैसे थोड़ी-सी सजगता, सरलता दूसरों का जीवन बचा सकती है. जैसे इस युवती की जिंदगी क्‍लेन ने बचाई.

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अगर कोई कह रहा है कि वह उदास हो रहा है. बिना वजह और वजह से भी. तो दोनों स्थितियों में संवाद बहुत जरूरी है. उदासी का कारण जानिए. उदास और उससे अधिक अगर किसी के भीतर निराशा गहरी दिख रही हो, तो दस काम छोड़कर उसकी फिक्र करें. कुछ ऐसा करें जो संवादहीनता के सारे खंडहर तोड़ दे. उदासी का मंजर उड़न-छू कर दे.

उदासी, निराशा की ओर पहला कदम है. यह कदम अगर समय रहते नहीं थामे गए तो निराशा किसी कोभी गहरे तनाव, अवसाद की ओर धकेल देगी. इसलिए जरूरी है कि जीवन में आ रही नकारात्‍मकता को पहले कदम पर दबोच लिया जाए.

हमें बचाने बाहर से कोई नहीं आएगा. हमें ही उलझनों, व्‍यस्‍तता के 'बाहरी' संसार से घर के भीतर प्रवेश करना होगा. घर में रिश्‍तों की जो सुगंध महसूस होती है, वह मकान में नहीं होती. घर रिश्‍तों की चाहरदीवारी है. दिक्‍कत यह है, हम इन दिनों प्रॉपर्टी बनाने में जुट गए हैं और उस घर से दूर होते हैं, जहां प्रेम, स्‍नेह और एक-दूसरे का ख्‍याल बुनियादी काम थे.

हम अपने दोस्‍तों, परिचितों, पड़ोसियों के साथ काम करने वालों को भी उनके हाल पर नहीं छोड़ सकते. हम सोशल मीडिया, चैटिंग को अपने रिश्‍तों की फ्रेंचाइची नहीं दे सकते. हुआ यही है, हम निजी संबंधों, रिश्‍तों को मोबाइल और गैजेट भरोसे छोड़ते जा रहे हैं. हमने जानकर और कुछ अनजाने में खुद को इंटरनेट का मरीज बना लिया है.

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इंटरनेट हमारे व्‍यवहार, जीवन को नियंत्रित करने के बहुत नजदीक पहुंच गया है. इसका जरूरत से अधिक उपयोग दिमाग और व्‍यवहार में असंतुलन का कारण बन रहा है. यह बच्‍चों को मनोरोगी बना रहा है. नेशनल इंस्‍टीटयूट ऑफ मेंटल हेल्‍थ एंड साइंसेज, बेंगलुरू की रिपोर्ट कहती है कि देश में 13 से 17 साल के बच्‍चे बहुत बड़ी संख्‍या में मनोरोग के खतरों के करीब पहुंच रहे हैं. इस उम्र के बच्‍चों के लिए भी फेसबुक बड़ी आदत बनकर उभर रहा है.

 फेसबुक का बड़ी आदत बनना घर में कम होती हमारी अहमियत को भी बताता है. जब रिश्‍तों में स्‍नेह का निवेश कम होगा, तो स्‍वाभाविक रूप से उसकी जगह कोई लेने आ जाएगा. हमारी जिंदगी में इस समय सोशल मीडिया 'कोई और' बनकर उभरा है.
 
अंत में वह जवाब जो मैंने बोरियत और उदासी के विरुद्ध दिया. 'उम्र कुछ भी हो... जिंदगी के नए मायने तलाशें. खुद को दूसरों के हिसाब से चलाना बंद करें. जिंदगी को चिड़ियाघर बनने से बचाएं. जहां उम्रगिनने के बदले भोजन मिलता है. जिंदगी प्रयोगशाला है. प्रयोग करें, आनंद में रहें. संग्रह को संतुलित करिए और तबियत को आजाद.'

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(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)

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