डियर जिंदगी: आत्‍महत्‍या और मन का 'रेगिस्‍तान'!
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डियर जिंदगी: आत्‍महत्‍या और मन का 'रेगिस्‍तान'!

हम ‘इग्‍नोर’ करना भूल गए. छोटी-छोटी बात ‘दिल से’ लगाए घूमते रहते हैं. एक-दूसरे को बर्दाश्‍त करना, सुन लेना, सहन करना जैसे गुण जीवनशैली से गायब होते जा रहे हैं.

डियर जिंदगी: आत्‍महत्‍या और मन का 'रेगिस्‍तान'!

बच्‍चों को रेत के महल बनाना बहुत पसंद है. जब भी वह समंदर, नदी किनारे होते हैं. इसी काम में जुट जाते हैं. उनकी एक आदत और है, वह जैसे ही रेत से विदा लेते हैं, हाथ झाड़ते ही उससे मुक्‍त भी हो जाते हैं! वह उलझे नहीं रहते. एक किनारे, छोर से दूसरे पर जाते ही पहले के मोह से खुद को स्‍वतंत्र कर लेते हैं.

यह तो उन बच्‍चों की बात है, जो हम पर निर्भर हैं. दूसरी ओर हम हैं. मन में इच्‍छा, मोह का जंगल इतना गहरा है कि उसमें जीवन की सारी ऊर्जा, शक्ति झोंकने के बाद भी विश्‍वास से यह नहीं कहा जा सकता कि आप किस ओर जा रहे हैं...किनारे बदलने के बाद भी हम ‘रेतमहल’ की स्‍मृतियों से मुक्‍त नहीं हो पाते! कितना अच्‍छा होता, हम बच्‍चों से भूलना सीख पाते. हम चीजों में अटकना छोड़ देंगे, तो संभव है कि हमारे भीतर 'रेगिस्‍तान' का बढ़ना थम जाए.

मन में 'रेगिस्‍तान' की शुरुआत रूखेपन के साथ आती है. रूखापन संवाद में कमी, रिश्‍ते में तनाव, एक-दूसरे के प्रति समझ का अभाव, सहनशीलता/बर्दाश्‍त करने की क्षमता में आती कमी से आरंभ होता है. हमारे अंदर इतनी अधिक ‘योजना’ आ गई है कि जिंदगी की राह में कुछ भंवर पड़ते ही, हम उनमें उलझ जाते हैं. ग्‍वालियर जैसे शहर में बीते सोलह दिन में आत्‍महत्‍या की 16 खबरें ऐसे ही भंवर में हमारे उलझते जाने का असर है!
    
‘डियर जिंदगी’ के पाठक बालेंद्र सिंह ने मध्‍य प्रदेश से प्रकाशित होने वाले प्रमुख अखबार की रिपोर्ट भेजते हुए ग्‍वालियर शहर में आत्‍महत्‍या की ओर बढ़ते झुकाव की ओर ध्‍यान दिलाया है. रिपोर्ट में शहर के मनोचिकित्‍सक बता रहे हैं कि अब ग्‍वालियर जैसे शहर में भी रिश्‍तों में तनाव इतनी तेजी से बढ़ रहा है कि छोटी-छोटी बात को लोग ‘दिल से’ लगा लेते हैं. एक-दूसरे को बर्दाश्‍त करना, सुन लेना, सहन कर लेना जैसे गुण अब हमारी जीवनशैली से गायब होते जा रहे हैं.

ग्‍वालियर में आत्‍महत्‍या के जो मामले सामने आए हैं, उनमें से कुछ लोग मनोचिकित्‍सक से अपना इलाज करवाने वाले भी हैं. इस बात पर हमें सबसे अधिक ध्‍यान देने की जरूरत है, क्‍योंकि जो व्‍यक्ति मनोचिकित्‍सक के संपर्क में है, अगर उसे घर, परिवार, मित्रों के बीच सहज, सरस वातावरण नहीं मिला, तो उसकी प‍रेशानी बढ़ती ही जाएगी.

तनाव हमारी जिंदगी का हिस्‍सा है. इसलिए जिंदगी है, तो तनाव रहेगा ही. तनावमुक्ति संभव नहीं. हां, यह संभव है कि हम उसे सही तरीके से नियंत्रित करें.

इस समय बेरोजगारी, पति-पत्‍नी में तनाव, अनबन, रिश्‍तों में रूखापन, स्‍वयं पर मुग्‍धता के अंधेपन में दूसरों के प्रेम, हित पर कब्‍जा करने का बढ़ता चलन, तनाव के सबसे बड़े कारण हैं.

हमारे एक परिचित जो दस बरस से संपर्क में हैं. मुझे फोन किया. वह इतने परेशान थे कि मोबाइल पर भी उनकी आवाज में घुले दर्द, मन में उठ रहे नकारात्‍मक विचार, पीड़ा को समझना मुश्किल नहीं था. मैंने मदद का पूरा प्रयास करने का भरोसा दिलाते हुए उन्‍हें अगले ही दिन मिलने के लिए तैयार किया. अब हम दोनों मिलकर रास्‍ता खोज रहे हैं.

इस प्रक्रिया में समय लगना स्‍वाभाविक है, लेकिन मैं इतना भरोसे से कह सकता हूं कि उनके अंदर की बेचैनी जरूर पहले से कम हुई है. उनने मुझसे पहले भी कुछ मित्रों से बात की थी, लेकिन संयोग से जितने मित्रों से मिलने का प्रयास किया, उनसे भेंट नहीं हो पाई. इससे उदासी, अकेलापन बढ़ता गया.

इस स्थिति में हमें यही लगता है कि कोई किसी काम का नहीं, सारी दुनिया स्‍वार्थी हो चली है. जबकि यह अधूरी बात है. असल में कई बार हम कुछ खास रिश्‍तों, परिवार, नौकरी के बीच इतने उलझ जाते हैं कि बाकी सबसे बहुत ज्‍यादा कट जाते हैं. यह हमारे भीतर 'रेगिस्‍तान' उपजने के आरंभिक कारण हैं. इनके प्रति थोड़ी सी सजगता, स्‍नेहन, आत्‍मीयता हमें बहुत अधिक खारा होने से बचाने में सक्षम है.

ईमेल : dayashankar.mishra@zeemedia.esselgroup.com

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(लेखक ज़ी न्यूज़ के डिजिटल एडिटर हैं)

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