मेरी राय में हम आंतरिक शक्ति को मजबूत करने, अंतर्मन से संवाद की जगह बाहरी चीजों में भटक रहे हैं. हमने खुद को दूसरों के साथ दौड़ में इस कदर उलझा लिया है कि हमारी नजरें हमेशा दूसरों पर ही टिकी रहती हैं.
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जिंदगी पर बोरियत का 'कथित' पहरा कड़ा होता जा रहा है. हर ओर से इसकी शिकायत बढ़ती जा रही है. उनकी ओर से भी जो जिंदगी की बेल को हरा-भरा रखने का काम किया करते थे. चुपचाप, गहरे मौन में. उनके भीतर बोरियत घर कर रही है.
मैं आज तक समझ नहीं पाया कि बोरियत क्या है. यह कहां से आती है. कैसे हमारे पास बोरियत के लिए समय मिल जाता है. जबकि जिंदगी में इतने काम, हसरतें, देखने, सुनने और बयां करने को हैं.
हम इस समय कुछ ज्यादा ही मनोरंजन की तलाश में हैं. हर जगह मनोरंजन के लिए भटक रहे हैं. घर, परिवार, दोस्त और उनके उत्सव भी अब हमारी 'बोरियत' को दूर नहीं कर पा रहे हैं. शिकायतें बढ़ती जा रही हैं कि पहले जैसी बात नहीं रही. क्या है, जो पहले जैसा नहीं रहा! क्या कभी कुछ पहले जैसा रहता है.
सबकुछ पहले जैसा चाहिए, किसको! दरअसल क्या यह एक किस्म की मानसिक जुगाली है, और कुछ नहीं. अतीत सबको सुहाना लगता है. हम हमेशा उसमें विचरते रहते हैं, क्योंकि उससे हमें एक किस्म की शांति मिलती है कि अब क्या करें. काश! वही दिन लौट आएं. यह बहुत कुछ ऐसा है, जैसे दिल्ली वाले हमेशा इस चिंता में डूबे रहें कि उनकी हवा आजादी के दिनों जैसी हो जाए. लेकिन क्या चिंता करने और पुराने दिनों में भटकते रहने भर से जिंदगी में कुछ बदलता है. निश्चित रूप से नहीं.
जिंदगी एक सफर का नाम है. जो बहुत हद तक हमने चुना है. कोई रास्ता न होने पर भी एक संकरी गलीसी तो होती है. अब यह हम पर है कि हम वहां से बाहर का रास्ता चुनते हैं, या रास्ता न होने का मर्सिया पढ़ते रहते हैं.
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इन दिनों शहरों में मध्यमवर्गीय परिवार अक्सर इस तरह की जुगाली करते मिल जाएंगे. कि क्या है, शहर की जिंदगी में. इस भागमभाग में! इससे भले तो गांव/ अपना शहर है. यह जुगाली मन पर कई बार इतनी भारी पड़ जाती है कि वह धीरे-धीरे उदासी की शक्ल में जिंदगी में दाखिल हो जाती है. जैसे धूप आंगन में एक साथ नहीं, आहिस्ता-आहिस्ता दाखिल होती है.
जबकि यह सभी जानते हैं कि उनकी आकांक्षा, हसरतों की पूर्ति गांव / छोटे शहर में संभव नहीं है. यह कोई आध्यात्मिक बात नहीं, ठोस व्यावहारिक बात है, क्योंकि वहां रोजगार के कम, संकुचित अवसर हैं. करियर की उड़ान के लिए जो पंख चाहिए, वह वहां नहीं हैं. यह तो नहीं कहा जा सकता है कि ऐसे पंख शहर में हैं ही, लेकिन कम से कम गांव से तो ज्यादा ही हैं.
तो ऐसे में गांव / अतीत की चिंता तब तक जुगाली है, जब तक इस चिंता को ठोस कदमों का सहारा न मिले. ऐसे ठोस कदम कई बार मजबूरी और अक्सर भविष्य की चिंता के कारण नहीं उठ पाते.
खैर, चलिए मूल संवाद की ओर बढ़ते हैं. आनंद है, कहां! अगर वह हमारे साथ नहीं है. तो कहां है! आनंद की तलाश किसी जगह विशेष में कैसे संभव है. स्थान परिवर्तन तो एकदम बाहरी बात है. जबकि आनंद एकदम आंतरिक बात है.
मेरी राय में हम आंतरिक शक्ति को मजबूत करने, अंतर्मन से संवाद की जगह बाहरी चीजों में भटक रहे हैं. हमने खुद को दूसरों के साथ दौड़ में इस कदर उलझा लिया है कि हमारी नजरें हमेशा दूसरों पर ही टिकी रहती हैं. हम उनके अनुपात में खुशी, तरक्की और आनंद चाहते हैं.
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अपने लिए नहीं, दूसरे के अनुपात में प्रसन्नता चाहने वालों को वह भला कैसे मिल सकती है. ऐसे चाहेंगे तोअपने हिस्से की भी नहीं मिलेगी. कभी आपने यह अनुभव किया है कि जिस सफर पर आपको जाना था, अगर वहां आपकी जगह दूसरा कोई चला गया, तो पहुंचता भी वही है, आप नहीं.
जैसे यह असंभव है, ठीक उसी तरह से दूसरे की यात्रा, दूसरे की प्रसन्नता के सहारे, नकल से हम अपने आनंद को कभी हासिल नहीं कर सकते. हमें अपने स्वभाव, चाहत के अनुसार खुद के मन को तैयार करना होगा.
अन्यथा, हम हमेशा व्यर्थ के कारणों, उनकी बातों, नजरिए में उलझे रहेंगे. हमारे भीतर एक देखादेखी पलती रहेगी, जिसका केंद्र कहीं और है, लेकिन वह दुखी हमें किए जा रहा है. ठीक वैसे ही जैसे भूकंप का केंद्र कहीं और होता है, लेकिन उसका असर दूर-दूर तक होता है.
हर किसी को अपने हिस्से की हर धूप सहनी ही है. उसके बाद ही छाया का समय शुरू होता है. जिंदगी में आशा की धूप के बिना आनंद की छाया संभव नहीं है. इसलिए अपनी आशा, अपने सपने दूसरे के हवाले मत कीजिए. वरना, वह आपके हिस्से की जिंदगी अपने नाम लिख लेगा.
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(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)
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