डियर जिंदगी : स्‍कूल, बच्‍चे और भूली बिसरी नैतिक शिक्षा
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डियर जिंदगी : स्‍कूल, बच्‍चे और भूली बिसरी नैतिक शिक्षा

अब शिक्षक से केवल एक दिन भेंट होती है. जिसे हम पीटीएम के नाम से जानते हैं. अगर इस दिन उनसे मुलाकात नहीं हुई तो अगली पीटीएम से पहले कोई विकल्‍प नहीं है. स्‍कूलों के गेट पर बड़े-बड़े सुरक्षा गार्ड हैं, ताले हैं. मानों वह बैंक हैं. सोने-चांदी की दुकानें हैं.

हममें से हर कोई आज शिक्षक होने को आमादा है. कौन भला शिष्‍य होना चाहता है.

आज शिक्षक दिवस पर शिक्षकों के प्रति सोशल मीडिया पर उमड़े प्रेम के बीच यह बात करनी भी जरूरी है कि हमने उनकी सीख को कितना माथे से लगाया. हमारे शिक्षकों ने जो पढ़ाया था, उसमें से बहुत सारा हमने खुद 'सुधार' दिया. उनके ज्ञान को हमने पुराना घोषित कर दिया. उनके जीवन मूल्‍य की जगह हमने अपने 'मूल्‍य' वाले शिलालेख बनवा लिए हैं.

हममें से हर कोई आज शिक्षक होने को आमादा है. कौन भला शिष्‍य होना चाहता है. स्‍कूलों, समाज ने इस रिश्‍ते को एकदम शापिंग मॉल की शैली में बदल दिया है. स्‍कूलों को सस्‍ते शिक्षक चाहिए. सरकार को चाहिए ही नहीं और समाज ने मान लिया है कि शिक्षा अब केवल बड़े स्‍कूलों की जिम्‍मेदारी है. इसलिए हर कोई बस बड़े स्‍कूलों की फिराक में घूम रहा है. जिसके बच्‍चे को प्रवेश मिल गया, उसने बच्‍चे को लगभग स्‍कूल के भरोसे छोड़ दिया है.

याद कीजिए, पहले निजी और सरकारी दोनों स्‍कूलों के शिक्षकों तक माता-पिता की सीधी पहुंच होती थी. अभिभावक और शिक्षक के बीच सीधा रिश्‍ता था. स्‍कूल उस रिश्‍ते की भूमिका भर थे. लेकिन अब स्‍कूलों से शिक्षक गायब हो गए हैं. शिक्षक, शिक्षा दोनों स्‍कूल के पैकेज में समाकर विलुप्‍त हो गए हैं.

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अब शिक्षक से केवल एक दिन भेंट होती है. जिसे हम पीटीएम के नाम से जानते हैं. अगर इस दिन उनसे मुलाकात नहीं हुई तो अगली पीटीएम से पहले कोई विकल्‍प नहीं है. स्‍कूलों के गेट पर बड़े-बड़े सुरक्षा गार्ड हैं, ताले हैं. मानों वह बैंक हैं. सोने-चांदी की दुकानें हैं. वहां संवाद के लिए कोई सुलभ नहीं हैं. और हममाता-पिता यह सोचकर सुखी हैं कि बच्‍चा सही जगह है!

इसलिए अब ज्‍यादातर बच्‍चे स्‍कूल, कॉलेज से निकलकर खुश होते हैं. चलो 'परीक्षा' से पीछा छूटा. हमें पास-फेल के गणित से मुक्‍ति मिली. इसके साथ ही यह भी कि अब शिक्षकों से कोई मतलब नहीं. अपनी जिंदगी अपने ढंग से जी सकते हैं! कुछ ही होते हैं, जो हर कहीं शिक्षक तलाशते, सीखते रहते हैं. वरना बहुसंख्‍यक वैसे ही मिलेंगे जो शिक्षा, शिक्षक दोनों को एक साथ खत्‍म मानकर आकाश में उड़ना शुरू कर देते हैं.

शिक्षक दिवस पर कुछ खोजते हुए यह कहानी मिली... संभव हो तो इसे बच्‍चों से साझा करिएगा...

एक गुरुकुल का बड़ा नाम था. सारे राजा-महाराजा के बच्‍चे वहीं पढ़ते थे. गुरुकुल के एक नियम की बड़ी चर्चा थी. वह नियम था, नैतिक शिक्षा का. अगर बच्‍चा सारी परीक्षाएं पास भी कर ले, लेकिन वह नैतिक शिक्षा में असफल हो जाए तो उसे फि‍र गुरुकुल में तीन साल बिताने होते थे.

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अक्‍सर बच्‍चे उस नैतिक शिक्षा में असफल हो जाते थे, इसलिए जब इस बार नैतिक‍ शिक्षा की परीक्षा नहीं हुई, तो बच्‍चों ने चैन की सांस ली. सभी बच्‍चों को गुरुकुल से जाने के लिए कह दिया गया. लेकिन विदाई समारोह में कुछ विलंब हो गया. जिससे छात्र आधे रास्‍ते ही पहुंचे थे कि शाम ने अपने पांव पसारने शुरू कर दिए.

तभी छात्रों ने देखा कि रास्‍ता बंद है. बीच रास्‍ते पर किसी ने कंटीले पेड़ और कांटे बिछा दिए हैं. छात्र एक-एक करके किसी तरह रास्‍ता बनाकर वहां से निकलने की कोशिश करने लगे. एक-एक करके सारे छात्र किसी तरह वहां से रास्‍ता पार करके निकल आए.
 
केवल एक बचा रहा. जब बाकी निकल रहे थे तो वह रास्‍ता साफ करने की तैयारी में जुटा था. छात्रों ने आवाज देते हुए कहा, 'तुम कहां चले गए थे. रात होने को है, जल्‍दी करो.'

उस छात्र  ने कहा, 'इसीलिए, तो मैं चिंतित हूं. रात होते ही यहां गुजरने वालों को कांटे नहीं दिखेंगे, लोग घायल हो सकते हैं. हम तो निकल जाएंगे, लेकिन आगे आने वाले फंस जाएंगे. इसलिए रास्‍ता साफ करना जरूरी है.'

यह कहकर छात्र रास्‍ता साफ करने में जुट गया. तभी गुरुकुल के प्रधान शिक्षक वहां पहुंच गए. उन्‍होंने उस छात्र की मदद शुरू कर दी. रास्‍ता साफ करने के बाद शिक्षक ने रास्‍ता साफ करने वाले को बधाई देते हुए कहा, 'तुम अकेले ही नैतिक शिक्षा में पास हुए. जाओ तुम्‍हारा भविष्‍य सुखमय हो. बाकी छात्र मेरे साथ वापस गुरुकुल जाएंगे.'
 
छात्र समझ गए कि नैतिक शिक्षा की परीक्षा क्‍यों नहीं हुई थी.
लेकिन हम भूल गए हैं कि हमने नैतिक शिक्षा पढ़ी थी...

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(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)

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