जैसे ही हम किसी को स्वार्थी कहते हैं, वह तिलमिला उठता है. उसे गुस्सा आ जाता है. वैसे गुस्से के बारे में यह समझना जरूरी है कि यह अक्सर आता नहीं, लाया जाता है. अधिकांश खुद को गलत साबित होने से बचाने के फेर में.
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शब्द, केवल शब्द भर नहीं होते. उनमें एक भाव, चरित्र और आस्था भी होती है. इसलिए हम अपने होने को कुछ खास शब्दों से जोड़कर देखते हैं. जैसे किसी को परिश्रमी कहलाना पसंद है तो किसी को प्रतिभाशाली, किसी को जुनूनी तो किसी को संघर्षशील. किसी को यात्री, किसी को वह भी जो दूसरे को पसंद नहीं. इन शब्दों के बीच एक ऐसा शब्द भी है जो शायद ही किसी को भाता है. वह है- स्वार्थी.
जैसे ही हम किसी को स्वार्थी कहते हैं, वह तिलमिला उठता है. उसे गुस्सा आ जाता है. वैसे गुस्से के बारे में यह समझना जरूरी है कि यह अक्सर आता नहीं, लाया जाता है. अधिकांश खुद को गलत साबित होने से बचाने के फेर में. खैर, गुस्से के बारे में बात फिर कभी. अभी बात करते हैं, स्वार्थी की. यह शब्द न जाने कब से इतने नकारात्मक अर्थ में हमारे आसपास पसरा हुआ है कि इसकी खूबसूरती तो दूर इसकी गहरी सृजनात्मकता और भावबोध तक से हम बहुत दूर निकल आए हैं.
कुछ समय पहले भोपाल में सुपरिचित आलोचक डॉ. विजय बहादुर सिंह से संवाद के दौरान इस शब्द को जानने, समझने का मौका मिला. डॉ. सिंह के साथ हम जीवन के विभिन्न पहलुओं पर बात कर रहे थे. उसी दौरान उन्होंने ओशो के साथ अपने संवाद का जिक्र करते हुए इस कमाल के शब्द के नए अर्थ से परिचित कराया.
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उन्होंने बताया कि ओशो कहते थे, स्वार्थी वही है जो अपने अर्थ को जानता है. जो अपने अर्थ को नहीं जानता, स्व के होने को नहीं जानता. वह दूसरे को क्या दे पाएगा. इसलिए यह बहुत जरूरी है कि हर कोई स्वार्थी होने की यात्रा को पूरा करे. बिना स्वार्थी हुए हम जीवन में किसी भी अर्थपूर्ण कार्य का निर्वाह नहीं कर सकते.
अब जरा ‘स्वार्थी’ के इस फलसफे को एक उदाहरण से समझने का प्रयास करते हैं. मेरे एक बेहद नजदीकी रिश्तेदार हैं. वह परिवार में सबसे बड़े हैं. अपने पूरे करियर में उन्होंने कभी दूसरा स्थान जैसे शब्द सुने ही नहीं. पढ़ाई की उस परिभाषा में जो आज से तीस बरस पहले थी, अव्वल थे. उनके पिता शिक्षक थे. और भी अनेक नजदीकी लोग शिक्षक थे, इसलिए वह बेहद अनुशासित माहौल में पले-बढ़े.
स्कूल से लेकर कॉलेज और उसके बाद यूनिवर्सिटी तक वह टॉपर रहे. मेरे जैसे दूसरे औसत बच्चों के लिए उनका नाम ही भय पैदा कर देता था. वह बेहद सरल स्वभाव के हैं, लेकिन उनका नाम उस वक्त दूसरों को प्रेरित करने से अधिक डराने के काम आता था.
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उन्हें बताया गया कि उन्हें आईएएस की तैयारी करनी चाहिए, क्योंकि उस वक्त सारे पढ़ाकू बच्चे वही करते थे. तो वह करने लगे. उन्हें बताया गया कि इसके लिए अमुक शहर जाना चाहिए क्योंकि सब वहीं जाते थे. उन्हें बताया गया कि इतने साल तैयारी करो और इसके बाद भी बात न बने तो लौट आना.
दुर्भाग्य से उन्होंने सब वैसा किया. जैसा कहा गया. यही कहा गया, उनके जीवन के लिए सबसे बड़ी बाधा बन गया.
अत्यधिक अनुशासन और आदेश का पालन करने वाले बच्चों के जीवन में पिछड़ जाने का भय बना रहता है. इसके कारण अनजाने में बच्चे की निर्णय लेने की क्षमता, अपनी बात कहने के गुण परिवार के अनुशासन रूपी बरगद के तले दबकर हमेशा के लिए नष्ट हो जाते हैं.
इन मेरे अत्यधिक प्रिय, सम्मानित भैया के साथ भी ऐसा ही हुआ. वह दूसरों के उन सपनों, अर्थों को खोजने में जुटे रहे, जो उनके अपने भी नहीं थे. वह तो सब प्रतिष्ठा की चाह में उपजे सपने थे, जो समाज में सामूहिक रूप से उग आते हैं, लेकिन हर किसी का उससे हित नहीं हो सकता.
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काश! वह अपने अर्थ को तलाशते. थोड़ा स्वार्थी हो जाते. उनके भीतर समाज को विज्ञान, गणित के शोधार्थी के रूप में देने के लिए अकूत ज्ञान था, उनका स्वभाव ही वही था. लेकिन वह दूसरों के दिए अर्थ के प्रभाव में जीते रहे, इसलिए अपने अर्थ से बहुत दूर होते गए.
इसलिए मेरा निवेदन है, थोड़ा नहीं बहुत स्वार्थी बनिए. अपने अर्थ को खोजिए, तब तक जब तक वह मिल न जाए. निराश नहीं होना है, हताश नहीं होना है, क्योंकि यह इतनी शीघ्रता, सरलता से मिलने वाला नहीं है. लेकिन मिलेगा जरूर क्योंकि उसे भी आपकी उतनी ही प्रतीक्षा है.
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(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)
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