ऐसे अनेक उदाहरण हमें मिलते हैं, जिसमें गांधीजी ने अपने कदम वापस खीचे हैं और उसके युगांतरकारी परिणाम सामने आये हैं. इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण चौरा-चौरी कांड के बाद आन्दोलन का वापस ले लिया जाना है. यहाँ वे स्वीकारते हैं कि भारत अभी उनकी तरह से स्वतंत्रता पाने के लायक नहीं बन पाया है.
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व्यक्ति कितना व्यापक हो सकता है, कितना सर्वज्ञ हो सकता है और इस सबके रहते कितना अकेला भी हो सकता है, इसका सर्वश्रेष्ठ या कहें तो एकमात्र उदाहरण महात्मा गाँधी के रूप में हमारे सामने आता है. वे भारत व दुनिया के बड़े वर्ग के लिए महात्मा हैं तो भारत का एक बहुत बड़ा वर्ग उन्हें बापू यानी पिता के रूप में आत्मसात करता है. महात्मा या संत बन जाने के बाद परिवार या समाज से एक किस्म का अलगाव हो जाता है परन्तु बापू उस अलगाव को जुड़ाव में बदल देते हैं. गाँधी वसुधैव कुटुंबकम की परिकल्पना को अपनी वास्तविक ज़िन्दगी में चरितार्थ करतें हैं. बापू यानी पिता. पिता जब जाते हैं तो अपनी विरासत छोड़ जातें हैं. यह अनूठा संयोग है कि इस वर्ष गांधीजी की 149वीं जयंती पितृपक्ष में आ रही है. इन दिनों में हम अपने पुरखों को याद करते हैं, उनके मोक्ष की कामना करते हैं. उनकी विरासत को याद करते हैं. तो महात्मा गाँधी जो हमारे राष्ट्रपिता हैं, उनकी विरासत क्या है?
गाँधी शताब्दियों से दुनिया में चली आ रही उस रीत को तोड़ देते हैं जो स्थापित करना चाहती है कि ईंट का जवाब पत्थर से दिया जाना चाहिये. भारत में प्रचलित रहा है, “शठे शाठ्यम समाचरेत” अर्थात जो स्वभावतः दुष्ट है उसके प्रति दुष्टता का व्यवहार करो. परन्तुं गाँधी कहते हैं, “शठ प्रत्यपि सत्यम” यानी शठ अर्थात दुष्ट के साथ भी स्नेह और सत्य का व्यवहार रखना चाहिये. वहीं विचारणीय यह है कि हम भारतीय नागरिक और हमारी सरकार जो गाँधीजी की 150वीं जयंती मनाने को एक राष्ट्रीय गतिविधि का स्वरूप देने हेतु मचल रहे हैं और ऐसा मान रहे हैं कि हम ही वास्तव में गाँधी के वास्तविक उत्तराधिकारी हैं, क्या वास्तव में गाँधी की विरासत को अंगीकार कर पाने के अधिकारी हैं? वर्तमान आचरण से तो कम से कम ऐसा प्रतीत नहीं हो रहा है.
अभी दो दिन पहले की ही बात करें. संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत की विदेश मंत्री ने साधारण सभा में अपने भाषण में पड़ोसी पकिस्तान के खिलाफ जबरदस्त आक्रामकता का प्रदर्शन किया. सोचने वाली बात यह है कि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र क्या संयुक राष्ट्र संघ जैसे मंच का उपयोग पकिस्तान जैसे निरीह राष्ट्र के खिलाफ करेगा और यह समझाने की कोशिश करेगा कि जैसे भारत-पकिस्तान विवाद ही दुनिया की एकमात्र समस्या है और यदि इसका समाधान हो जाता है, तो सारी दुनिया भूख, गरीबी, बीमारी, सामाजिक असमानता, लिंगभेद, जलवायु परिवर्तन, युद्ध की आसन्नता, और बड़ती आर्थिक असमानता से छुटकारा पा लेगी? भारत में व्याप्त सांप्रदायिक व जातिगत वैमनस्य समाप्त हो जाएगा?
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बहरहाल, इस घटना का जिक्र इसलिए किया कि यह भाषण सुन जनवरी, 1948 की याद हो आई. हिन्दू-मुस्लिम-सिख दंगों से दुखी होकर बापू 13 जनवरी 1948 को दिल्ली में अनशन पर बैठ गए. तब भारत और पाकिस्तान दोनों ही देशों में दंगे चरम पर थे. अनशन के एक हफ्ते के भीतर ही दोनों देशों में शांति छा गई. हिंसा समाप्त हो गई. बापू से अनशन तोड़ने का आग्रह किया गया. उन्होंने अपना अनशन तोड़ा. तब संयुक्त राष्ट्र संघ की बैठक चल रही थी और बापू के अनशन तोड़ने की सूचना तत्कालीन पाकिस्तानी विदेश मंत्री देते हैं और बताते हैं कि गाँधीजी के इस अनशन की वजह से दोनों देशों में सौहार्द की एक लहर सी चल पड़ी है. परन्तु 70 साल बाद भारतीय विदेश मंत्री अत्यधिक आक्रामकता और कटुता से अपनी बात रखती हैं. वे एक बार भी मन से गाँधी को अपने भाषण में याद नहीं करतीं. तीन दिन बाद गाँधी 150 समारोह की औपचारिक शुरुआत होने वाली है और हमारी सोच से गाँधी नदारद हैं?
बात यहीं समाप्त नहीं होती. 30 जनवरी 1948 को गांधीजी की हत्या पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद अपनी बैठक रद्द कर देती है और मुख्यालय का झंडा आधा झुका दिया जाता है. आज हम वहीँ पर समझा रहें हैं कि पकिस्तान से बातचीत संभव नहीं है और दूसरी ही सांस में कहते हैं कि बातचीत के अलावा और कोई रास्ता नहीं है. बापू के देहावसान पर मित्र राष्ट्रों के सर्वोच्च सेनापति जनरल डगलस मैक आर्थर ने कहा था, “सभ्यता के विकास में, यदि उसे जीवित रहना है, तो सब लोगों को गाँधी का यह विश्वास अपनाना होगा कि विवादास्पद मुद्दों को हल करने में बल के सामूहिक प्रयोग की प्रक्रिया बुनियादी तौर पर न केवल गलत है, बल्कि उसी के भीतर आत्मविनाश के बीज विद्यमान हैं.”
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यह बात वह व्यक्ति कर रहा है जो कहीं न कहीं हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम गिरा चुका है. गौरतलब है उसके यह विचार द्वितीय विश्व युद्ध को जीतने के बाद के हैं, हारने के बाद के नहीं. जीत के बावजूद वह हिंसा और युद्ध की निर्थकता को समझ चुका है. इस सीख के लिए वह ईसा मसीह और गौतम बुद्ध जैसे किसी आदि पुरुष की बात नहीं करता, वह महात्मा गाँधी का उदहारण देता है. हम न जाने क्यों गाँधी को केवल सफाई और झाड़ू लगाने में ही आदर्श बनाना चाहतें हैं? उन्हें सम्पूर्णता में अपनाने का प्रयत्न ही नहीं करना चाहते. गाँधी संभवतः भारत की भविष्य की राजनीति को ताड़ गए थे, तभी उन्होंने सन् 1930 में दांडी यात्रा की सफलता के बाद कहा था, “यदि मैं स्वराज्य तक जिन्दा रह पाया तो हमें इसे पाने के बाद और भी कठोर सत्याग्रह करना पड़ेगा.”
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आज की स्थितियां हमारे सामने हैं और इनकी विकरालता भी किसी से छुपी नहीं है. विदेश मंत्री पकिस्तान से वार्ता रद्द कर देने को भले ही उचित ठहराएं, परन्तु इससे समाधान नहीं निकलेगा. जनरल डगलस मैकआर्थर जीत के बावजूद गाँधी को ही मार्ग बताते हैं और हम आज गाँधी को गुजरे जमाने की चीज मान बैठे हैं. अपनी जटिलतम समस्याओं के समाधान के लिए उनकी ओर देख ही नहीं रहे हैं. इसे आत्ममुग्धता कहा जाए या अनभिज्ञता?
महात्मा गाँधी के भौतिक वारिस उनके पोते गोपालकृष्ण गाँधी अपने पितामह को कुछ इस तरह परिभाषित करते हैं,
वह मृत्यु और पराजय से कभी भी भयभीत नहीं हुए.
उन्हें स्वयं के मूर्ख दिखाई देने में भी डर नहीं लगता था. और
अपनी गलती मानने में उन्होंने कभी डर महसूस नहीं किया.
गाँधी की इस परिभाषा में उनका पूरा दर्शन नज़र आता है. मृत्यु से न डरने वाले बहुत से लोग होते हैं, पराजय से भयभीत न होने वाला शायद ही कोई और होगा. ऐसे अनेक उदाहरण हमें मिलते हैं, जिसमें गांधीजी ने अपने कदम वापस खीचे हैं और उसके युगांतरकारी परिणाम सामने आये हैं. इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण चौरा-चौरी कांड के बाद आन्दोलन का वापस ले लिया जाना है. यहाँ वे स्वीकारते हैं कि भारत अभी उनकी तरह से स्वतंत्रता पाने के लायक नहीं बन पाया है. दांडी यात्रा के दौरान भी वे एक महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए कहते हैं, “जीवन मरण (यह निरंतर चलने वाला क्रम है), यह महाधर्म युद्ध है, (हम) एक महाव्यापक यज्ञ कर रहें हैं. और इसमें हम सबको अपनी आहुति दे देनी है. आपमें शक्ति न हो तो हट जाएँ. आपकी कमजोरी यह आपकी शर्म नहीं बल्कि मेरी शर्म है, क्योंकि मुझे भगवान ने जो शक्ति दी है, वह आप सब में है. आत्मा-मात्र एक है.” वे असाधारण रूप से साधारण व्यक्ति की क्षमता में विश्वास रखते रहे और उसका फल सिर्फ उन्हें ही नहीं पूरे राष्ट्र और विश्व को मिला.
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वे हिन्दू होते हुए धर्मांध नहीं रहे. वे भारतीय होते हुए विश्व नागरिकता के पोषक बने रहे. वे कहते थे कि मैं अपने देश की सेवा करते हुए जर्मनी या इंग्लैड को किसी प्रकार चोट नहीं आने दे सकता. सच्चे सभ्य समाज के लिए ऐसी राष्ट्रीयता स्वार्थपूर्ण भावना कहलाएगी. गाँधी यह बात तब कह रहे हैं, जब जर्मनी विश्वयुद्ध छेड़ चुका था और भारत इंग्लैड का गुलाम था. परन्तुं गाँधी इनमे से किसी के लिये भी दुराग्रह या कठोर शब्दों का प्रयोग नहीं करते. यहाँ उनकी इस बात पर या दूसरे शब्दों में कहें तो उनकी स्वीकारोक्ति पर भी गौर करना होगा कि मेरे पास कुछ भी मौलिक नहीं है. मैंने जो कुछ भी ग्रहण किया है, वह भारतीय संस्कृति/ सभ्यता में पहले से मौजूद था. यानी वह स्वयं को महज एक शोधार्थी के तौर पर ही मान्यता देने हैं. इसलिए हमें आज सोचना होगा कि पिछले कुछ दशकों में ऐसा क्या हो गया कि हमारे समाज में आपसी प्रेम, सौहार्द व त्याग कमोवेश नदारद सा हो गया?
वे मानते थे कि सत्यंवद धर्मचर अर्थात सच बोलो और सही आचरण करो. इसके आगे वे संस्कृत का एक और शब्द जोड़ते हैं नान्यः पन्था यानी दूसरा कोई रास्ता नहीं है. हमारे सामने भी आज गाँधी के अलावा कोई रास्ता नहीं है. राष्ट्रीय व अन्तराष्ट्रीय दोनों ही स्तर पर. डा. राममनोहर लोहिया के शब्दों में कहें तो बीसवीं सदी के दो ही अविष्कार हैं महात्मा गाँधी और परमाणु बम. इन दो चरम ध्रुवों में से हमारा चुनाव ही मानवता का भविष्य तय करेगा. याद रखिए गाँधी का पूरा कार्य (भारत में) दोनों विश्वयुद्ध के मध्य का है और ये दोनों युद्ध उन्हें एक क्षण के लिए भी शांति के पथ से विचलित नहीं कर पाए. यदि हम बापू के वारिस हैं तो हमें उनको साधना होगा.