न्यूटन फिल्म का एक दृश्य 1952 के उस वक्त को जीवित कर देता है जब भारत में पहली बार चुनाव हुए. लेखक और इतिहासविद रामचंद्र गुहा अपनी किताब ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ में बताते हैं कि किस तरह वोट पड़ने से पहले वाली शाम को चीफ इलेक्शन कमिश्नर ने कहा था कि उन्होंने मानव इतिहास में लोकतंत्र का सबसे बड़ा प्रयोग किया है.
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फिल्म ‘न्यूटन’ का एक सीन है, जिसमें छत्तीसगढ़ के दंडकारण्य में बसे एक दूरस्थ नक्सल प्रभावित गांव के आदिवासियों को धकिया कर वोट देने के लिए बूथ तक लाया जाता है. ये वह लोग हैं जो बाहरी दुनिया से पूरी तरह कटे हुए हैं. ये न हिंदी जानते हैं और न ही विकास. इन आदिवासियों को वोटिंग मशीन के पास इस तरह अनभिज्ञ खड़ा हुआ देखकर प्रसाइडिंग ऑफिसर को यह समझ में आता है कि इन्होंने चुनाव जैसी किसी चिड़िया के बारे में कुछ सुना ही नहीं है तो वह उन्हें समझाने की कोशिश करता है. न्यूटन उन्हें बताता है कि उन्हें इस कागज में बने निशान में से किसी एक पंसदीदा निशान को चुनना चाहिए. तो उसके सामने सवाल आता है कि इससे आदिवासियों को क्या फायदा होगा, कितने पैसे मिलेंगे?
अधिकारी बोलता है कि इससे पैसे नहीं मिलेंगे लेकिन आपका चुना हुआ आदमी दिल्ली जाएगा इससे आपके गांव में विकास होगा. सड़क, पानी, बिजली, स्कूल जैसी सुविधाएं आपको मिलेंगी. तो 76 वोटरों वाले उस गांव के लोग अपने पटेल को खड़ा कर देते हैं कि हमारी तरफ से ये दिल्ली जाने को तैयार हैं. अधिकारी उन्हें समझाने की कोशिश करता है कि आप नहीं जा सकते हैं क्योंकि आप चुनाव में खड़े नही हुए हैं, यह कहते हुए वह उनके सामने एक पर्चा रखता है जिसमें उम्मीदवारों के चुनाव चिह्न होते हैं. वह कहता है कि आप इनमें से किसी को भी चुन सकते हैं. उसे जवाब मिलता है कि इनमें से किसी को भी वह जानते नहीं हैं.
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तभी वहां मौजूद सेना का अधिकारी बोलता है, 'मैं इन्हें समझाता हूं.' वह गांववालों को डांटना शुरू करता है कि ये बाबू लोग आपके चक्कर में इतनी दूर चलकर आए हैं औऱ आप इनकी इतनी सी बात नहीं सुन रहे हो. ये मशीन है इसमें टीवी है, फ्रिज है, लड्डू है, फूल है जो अच्छा लगे उसका बटन दबा दो.' अधिकारी नाराज़ हो जाता है कि ये वोटिंग का तरीका नहीं है. सेना का अधिकारी बोलता है कि इतनी देर से आप कोशिश कर रहे हैं, आपकी बात क्या इन्हें समझ में आई.
फिल्म का यह दृश्य 1952 के उस वक्त को जीवित कर देता है जब भारत में पहली बार चुनाव हुए. लेखक और इतिहासविद रामचंद्र गुहा अपनी किताब ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ में बताते हैं कि किस तरह वोट पड़ने से पहले वाली शाम को चीफ इलेक्शन कमिश्नर ने कहा था कि उन्होंने मानव इतिहास में लोकतंत्र का सबसे बड़ा प्रयोग किया है. वहीं मद्रास के एक पुराने संपादक इस पूरी प्रक्रिया को लेकर बहुत आशाजनक नहीं थे. उन्होंने इसे लेकर अपनी शिकायत रखते हुए कहा था, ‘इतनी बड़ी संख्या में हम पहली बार वोट डालने का अभ्यास कर रहे हैं, जबकि इनमें से अधिकांश यह तक नही जानते हैं कि वोट किस बला का नाम है, उन्हें वोट आखिर डालना क्यों चाहिए, और किसे अपना वोट देना चाहिए. इसमें कोई हैरत नहीं है कि ये पूरा दुस्साहस इतिहास में सबसे बड़े जुए के रूप में जाना जाए.'
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अगस्त 1947 में भारत को आज़ादी मिली और दो साल बाद ही चुनाव आयोग का गठन कर दिया गया. मार्च 1950 को सुकुमार सेन को भारत का पहला मुख्य चुनाव आयुक्त बनाया गया और उसके अगले महीने रिप्रजेंटेशन ऑफ पीपल एक्ट पार्लियामेंट में पास कर दिया गया. उस दौरान ये उम्मीद जताई गई कि जहां तक संभव हो सकेगा 1951 की बसंत तक चुनाव संपन्न करवा दिए जाएंगे.
यह शायद सेन के अंदर का गणितज्ञ था जिसने प्रधानमंत्री को कुछ वक्त इंतज़ार करने के लिए कहा था. किसी भी राज्य केकोई अधिकारी बल्कि पूरे भारत देश में किसी भी अधिकारी ने उनके सामने आज तक इतने बड़े किसी काम को अंजाम नहीं दिया था, सबसे पहले इतना बड़ा निर्वाचन क्षेत्र. लगभग 18 करोड़ लोग जिनकी उम्र 21 या उससे अधिक है और जिनमें से 85 फीसदी ऐसे हैं जो न लिख सकते हैं और न ही पढ़ सकते हैं. उन सभी की पहचान करना, उनका नाम सूचीबद्ध करना. ये तो इतने बड़े काम की बस शुरुआत है. फिर पार्टी का चुनाव निशान डिज़ाइन करना, फिर अधिकांश निर्वाचन क्षेत्र जहां निरक्षरों की संख्या ज्यादा है उनके लिए बैलेट पेपर और बैलट बॉक्स बनाना. पोलिंग स्टेशन चिह्नित करना और ईमानदार पोलिंग ऑफिसर की भर्ती करना. यह सबकुछ छोटा-मोटा काम नहीं था.
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1952 के पहले महीने में चुनाव घोषित हुए. हालांकि कुछ दूरदराज के इलाकों में जल्दी वोटिंग करवाने का फैसला लिया गया.
विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र का पहला चुनाव और कुछ आंकड़े :
‘न्यूटन’ फिल्म में जब पूरी टीम चुनाव क्षेत्र में पहुंचती है तो देखती है कि वहां जिस स्कूल को वोटिंग के लिए निर्धारित किया गया है वह पूरी तरह से क्षतिग्रस्त है. चारों तरफ से खुला हुआ है और बुरी तरह से गंदा है. प्रसाइडिंग ऑफिसर बोलता है कि प्रक्रिया के मुताबिक यहां चुनाव नहीं करवाया जा सकता है. इसके बाद काफी मेहनत मशक्कत और सोच-विचार के बाद उस जगह को पोलिंग बूथ में तब्दील किया जाता है.
भारत के पहले चुनाव के दौरान भी ऐसी ही एक घटना का उल्लेख गुहा की किताब में मिलता है जिसके मुताबिक एक अमेरिकन फोटोग्राफर जो खासतौर पर चुनाव को कवर करने के लिए पहुंची थी, उसने चुनाव के दिन हिमाचल के एक दूरस्थ गांव भूटी में जाने का मन बनाया. यहां एक स्कूल हाउस को पोलिंग स्टेशन बनाया गया जिसमें केवल एक दरवाज़ा मौजूद था. जबकि नियम के मुताबिक पोलिंग बूथ में प्रवेश और निकास दोनों अलग अलग होने चाहिए. तब वहां एक खिड़की को दरवाज़े में तब्दील किया गया, बुज़ुर्ग और बीमारों को कोई तकलीफ न हो इसलिए उस खिड़की के पास कामचलाऊ सीढ़ियां लगाई गईं, जिससे वह आसानी से बाहर निकल सकें.
वहीं फिल्म की शुरुआत में जिस तरह चुनाव की प्रक्रिया को समझाने की क्लास दिखाई गई है या पोलिंग बूथ के लिए सुबह उठकर 8 किलोमीटर पैदल चलने वाला सीन है. यह हमें फिल्मी लग सकते हैं लेकिन दरअसल पहले चुनाव के दौरान ऐसा वाकई में हुआ था. चुनाव की पूरी प्रक्रिया को कैमरे में कैद करने पहुंची अमेरिकन फोटोग्राफर यहां पर अधिकारियों के समर्पण को देखकर खासी प्रभावित हुईं. जिला मजिस्ट्रेट के द्वारा लगाई गई तैयारी की वर्कशॉप में शामिल होने के लिए एक अधिकारी छह दिन तक चलकर पहुंचा था. वहीं एक औऱ अधिकारी चार दिन तक खच्चर पर सवारी करके वर्कशॉप में शामिल हुआ था.
उसके बाद वह लोग वहीं से टाट के सिले हुए थैलों में बैलेट बॉक्स, बैलेट पेपर, पार्टी सिंबल और चुनाव सूची लेकर दूर-दूर के इलाकों के लिए निकल गए थे.
फिल्म में एक जगह पर चुनावी प्रक्रिया सिखाने वाला शिक्षक न्यूटन से बोलता है, ‘जानते हो तुम्हारी प्रॉब्लम क्या है.’ न्यूटन कहता है, ‘मेरी ईमानदारी’. तो शिक्षक कहता है, ‘ईमानदारी नहीं, ईमानदारी का घमंड, तुम्हें लगता है कि तुम्हारी ईमानदारी पर लोग तुम्हारा सम्मान करें. तुम जो कर रहे हो वह किसी पर अहसान नहीं है, ये तुमसे एक्सपेक्टेड है. ये तुम्हारी ड्यूटी है.'
तमाम विरोधों के बावजूद 1952 में चुनाव की जो स्क्रिप्ट लिखी गई वह शायद ऐसे ही किसी सम्मिलित और ईमानदार प्रयास और ड्यूटी का नतीजा थी जिसने ब्रिटिश उपनिवेशवाद और भारतीय राष्ट्रवाद के बीच एक ऐसे नए राष्ट्र को जन्म दिया जो लोकतंत्र का एक सच्चा उदाहरण है.
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)