सुप्रीम कोर्ट का फैसला क्रिकेट प्रेमियों के लिए भले ही खुशियां लेकर आया हो, लेकिन क्रिकेट की सत्ता से जुड़े लोगों में यह फैसला 'कहीं खुशी कहीं गम' वाली उक्ति को पूरी तरह से चरितार्थ कर रहा है। हां, इस फैसले से कम से कम इतना तो तय हो गया है कि अब बीसीसीआई खुद को स्वायत्त और गैर-सरकारी संस्था बताकर जवाबदेही से नहीं बच सकता।
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सुप्रीम कोर्ट का फैसला क्रिकेट प्रेमियों के लिए भले ही खुशियां लेकर आया हो, लेकिन क्रिकेट की सत्ता से जुड़े लोगों में यह फैसला 'कहीं खुशी कहीं गम' वाली उक्ति को पूरी तरह से चरितार्थ कर रहा है। हां, इस फैसले से कम से कम इतना तो तय हो गया है कि अब बीसीसीआई खुद को स्वायत्त और गैर-सरकारी संस्था बताकर जवाबदेही से नहीं बच सकता। ललित मोदी एंड कंपनी बनाम श्रीनिवासन एंड कंपनी के बीच सत्ता की इस जंग को जड़ से मिटाने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने देर से ही सही लेकिन दुरुस्त फैसला दिया है। इन पहलुओं पर बात करने से पहले यहां यह जानना जरूरी होगा कि अपने फैसले में देश की सर्वोच्च अदालत ने क्या-क्या कहा है।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा, 'दोषियों को सजा देने का अधिकार निश्चित रूप से बीसीसीआई के पास है। लेकिन, इस संदर्भ में सब कुछ उस पर नहीं छोड़ा जा सकता।' सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा है कि बीसीसीआई अपने कार्यों की न्यायिक समीक्षा के लिए पूरी तरह से उत्तरदायी है। यानी, बीसीसीआई की अपने काले कारनामों पर पर्दा डालने वाली यह दलील अब नहीं चलेगी कि उसका सरकार से कुछ लेना-देना नहीं है। इसलिए, वह कोई भी नियम बनाने या नियमों को बदलने के लिए स्वतंत्र है।
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी साफ किया है कि जो क्रिकेट की सेवा करना चाहते हैं वह सच्चे मन से करें वरना सेवा की आड़ में मेवा खाने वालों की अब खैर नहीं। इसी क्रम में सर्वोच्च अदालत ने बीसीसीआई के निर्वासित अध्यक्ष एन. श्रीनिवासन से कहा कि वह या तो चेन्नै सुपर किंग्स का मालिकाना हक अपने पास रखें या बीसीसीआई को संभालें। सुप्रीम कोर्ट ने इस स्थिति को हितों का टकराव बताते हुए बीसीसीआई के कानून 6.2.4 को भी अमान्य करार दिया जिसके तहत बीसीसीआई के सदस्य भी आईपीएल में अपनी फ्रेंचाइजी खरीद सकते थे।
अदालत ने कहा कि किसी भी क्रिकेट प्रशासक का इस खेल में किसी तरह का व्यवसायिक हित नहीं होना चाहिए। इतना ही नहीं, अगर इससे इतर जाने की कोशिश में कोई कानून बनाया जाता है तो देश की सर्वोच्च अदालत इसे रद्द कर देगा। इससे यह साफ हो गया कि बोर्ड अपनी मर्जी से कोई भी ऐसा-वैसा कानून नहीं बना सकता है जो क्रिकेट के हित में ना होकर खेल प्रशासकों के हित में हो। मतलब साफ है कि अब बोर्ड का कोई भी कानून कोर्ट की समीक्षा के दायरे में होगा। यानी कोर्ट में उसे चुनौती दी जा सकेगी, उसपर बहस की जाएगी और जरूरत पड़ी तो उसे बिल्कुल उलटा जा सकेगा।
बारीकी से देखें तो सर्वोच्च अदालत के क्रिकेट को लेकर दिए गए फैसले दीर्घकालिक नजरिये से काफी अहम हैं। कोर्ट ने तीन पूर्व जजों की एक समिति बना दी है, जो बीसीसीआई के ढांचे और कार्य-प्रणाली में सुधार एवं संशोधनों की सिफारिश करेगी। स्पॉट फिक्सिंग के जिस मामले की सुनवाई सर्वोच्च अदालत ने की, उसमें आगे क्या कार्रवाई हो, यह भी समिति ही तय करेगी। जाहिर है, क्रिकेट प्रशासन का भविष्य बीसीसीआई को चलाने वाले दिग्गज राजनेता और प्रभावशाली लोगों के हाथ से फिलहाल निकल गया है। कोर्ट ने इस बात को माना है कि आईपीएल की जिन दो टीमों (सीएसके और राजस्थान रॉयल्स) के संचालकों (गुरुनाथ मयप्पन और राज कुंद्रा) पर सट्टेबाजी में शामिल होने का आरोप साबित हुआ, उनके बारे में फैसला लेने में बीसीसीआई सक्षम है, लेकिन साथ में यह भी कहा कि वर्तमान हालातों में अदालत यह काम बीसीसीआई पर नहीं छोड़ सकती।
कोर्ट ने बेलाग होकर कहा कि बीसीसीआई न्यायिक समीक्षा के दायरे में है। यानी एक ‘स्वतंत्र टापू’ के रूप में उसके काम करने के दिन अब लद गए हैं। इससे ऐसी मिसाल कायम होगी, जिसका परिणाम मुमकिन है सिर्फ क्रिकेट तक सीमित न रहे, बल्कि इससे आगे चलकर देश की सभी खेल संस्थाओं को जवाबदेह और उनकी कार्यशैली को पारदर्शी बनाने का रास्ता निकल सकता है। कोर्ट ने ध्यान दिलाया है कि अगर खेल की पवित्रता भंग हुई तो खेल ही खत्म हो जाएगा।
बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने इस बात पर जोर दिया है कि क्रिकेट बोर्ड को साफ-सुथरा करने की सख्त जरूरत है और यह काम तभी होगा जब श्रीनिवासन जैसे लोग क्रिकेट बोर्ड से दूर रहेंगे। हालांकि यह आसान नहीं है, क्योंकि चंद ऐसे लोगों का एक समूह है जो क्रिकेट बोर्ड को अपने तरीके से संचालित करता है। यह समूह दो-तीन गुटों में भले ही विभाजित हो, लेकिन कोई भी गुट जवाबदेही और पारदर्शिता से काम करने के लिए राजी नहीं है।
यह समय की मांग है कि आइपीएल मैचों में सट्टेबाजी और स्पॉट फिक्सिंग के मामले सामने आने से भारतीय क्रिकेट की साख को जो धक्का लगा है उसकी क्षतिपूर्ति कुछ इस तरह से की जाए जिससे क्रिकेट प्रेमियों के मन में इस बात के लिए कहीं कोई संदेह न रहे कि खेल के साथ खिलवाड़ हो रहा है। देश की सर्वोच्च अदालत की यह दवा कड़वी जरूर है, लेकिन यह कड़वी दवा क्रिकेट समेत तमाम खेलों की पवित्रता को भंग होने से बचाएगा।