Trending Photos
जनता परिवार के छह दलों ने आखिरकार एक छत के नीचे आने का फैसला कर ही लिया। हालांकि, इन दलों के आपस में विलय के चर्चे तो काफी दिनों से राजनीतिक गलियारों में हो रहे थे, लेकिन 'मोदी विरोध' के नाम पर ये एक होने को मजबूर हो गए। साल 2014 में हुए लोकसभा चुनावों में इन दलों को ऐसा झटका लगा कि इन्हें अपनी राजनीतिक जमीन खिसकती नजर आने लगी। इन दलों को अपने-अपने राज्यों में राजनीतिक आधार मजबूत करने और वजूद बरकरार रखने के लिए एक सूत्र में बंध जानी ही ज्यादा उचित लगा। मोदी की अगुवाई में बीजेपी का बढ़ता जनाधार और चुनावी गणित में बिगड़ते समीकरण के चलते ही लालू, नीतीश और मुलायम को विलय करने की जरूरत महसूस हुई। इन सबके बीच सबसे बड़ा सवाल यह उठने लगा कि जनता परिवार की एकजुटता कितने समय तक बनी रह पाएगी। बीते कुछ सालों के इतिहास में जाएं तो ये दल पहले भी जनता परिवार के नाम पर एकजुट हुए लेकिन इनकी एकजुटता ज्यादा सालों तक बरकरार नहीं रह पाई। इनके समक्ष अपनी एकता और विश्वसनीयता साबित करना बड़ी चुनौती होगी, चूंकि जनता के बीच ठोस आधार बनाना मौजूदा राजनीतिक हालात में आसान नहीं होगा।
ताजा घटनाक्रम में सपा, राजद, जदयू, जेडीएस, आइएनएलडी और कमल मोरारका की पार्टी ने जनता परिवार का सदस्य बनने पर भले ही सहमति जता दी लेकिन इनका विलय कितना सार्थक और प्रासंगिक साबित होगा यह तो आने वाला समय ही बताएगा। इस साल के सितंबर-अक्टूबर महीने में बिहार में चुनाव होने हैं और 2017 में उत्तर प्रदेश में चुनाव होने हैं। इनके सामने सबसे बड़ी चुनौती मोदी नाम के रथ को रोकने की होगी। ये सभी दल बीजेपी के खिलाफ एकजुट हुए ताकि आने वाले चुनावों में बीजेपी को कड़ी चुनौती दे सकें। जनता परिवार के सामने पहली बड़ी चुनौती बिहार की होगी जहां इसी साल विधानसभा चुनाव होने हैं। बीजेपी के राजनीतिक उभार के चलते इनकी राजनीतिक जमीन सिकुड़ कर रह गई। राज्यों में अपनी खिसकती सियासी जमीन को देख ये दल जरूर भयभीत हुए। इन्हें यह समझ आने लगा कि अलग-थलग रहकर चुनावी समर में कूदने पर राजनीतिक आधार को बचा पाना मुश्किल होगा।
बीते लोकसभा चुनावों में सबसे बड़ा झटका मुलायम सिंह यादव और नीतीश कुमार को लगा। यूपी और बिहार में इनकी सीटें नाममात्र रह गईं। बिहार में लालू और नीतीश के एक साथ चुनाव लड़ने पर समीकरण कुछ तो जरूर बदलेगा। वहीं, उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में भी सपा की अगुआई में जनता परिवार के ये दल जातीय समीकरण को प्रभावित कर सकते हैं। अब जबकि ये एकजुट हो गए हैं तो यह देखना भी काफी रोचक होगा कि ये बीजेपी का सामना किस तरह कर पाते हैं। इन्हें जनता का कितना समर्थन मिलता है, ये राज्यों के विधानसभा चुनावों से ही पता चलेगा। लेकिन इनका असली मकसद मोदी लहर को बेअसर करना है।
इन दलों ने भले ही सर्वसम्मत्ति से एकजुटता का फैसला लिया और नए दल के मुखिया के तौर पर मुलायम सिंह यादव को स्वीकारा। लेकिन पार्टी का नाम और पार्टी के झंडे जैसे मुद्दों पर निर्णय लेना इनके लिए आसान नहीं रहेगा। जनता परिवार की नींव साल 1977 में पड़ी और जोकि साल 1988 में वीपी सिंह के समय तक साथ था। जनता पार्टी, जनमोर्चा और लोकदल का जनता दल में विलय हो गया। लेकिन वीपी सिंह सरकार बनने के बाद जनता दल में पहली टूट चंद्रशेखर की अगुवाई में हुई। चंद्रशेखर ने अलग होकर जनता दल समाजवादी का गठन किया। इसके बाद कई बार यह परिवार टूट का गवाह बना। इससे निकले राजनीतिक दल अब कमजोर हुए हैं, तो करीब ढाई दशक के बाद इन्होंने फिर एक बार हाथ मिलाया है। वैसे जनता परिवार का अतीत हमेशा मतभेदों से भरा रहा है। एकता और एकजुटता की बजाए कलह-कटुता और बिखराव ज्यादा देखने को मिला।
बीते छह महीनों से इन दलों के शीर्ष नेताओं के बीच आपस में जनता परिवार के विलय पर बात चल रही थी। ज्ञात हो कि बीते दिनों आरजेडी अध्यक्ष लालू प्रसाद ने ‘एक झंडा, एक निशान’ का नारा देते हुए एक तरह से विलय का ऐलान किया था और बीजेपी को बिहार चुनाव के मद्देनजर चुनौती दी थी। वहीं, नीतीश कुमार ने भी इस मसले पर पिछले महीने जनता परिवार के नेताओं के साथ बैठकें की थी और तिहाड़ जेल जाकर इनेलो प्रमुख ओमप्रकाश चौटाला से मुलाकात की थी। इसके बाद ही, जनता परिवार के विलय की कोशिशें परवान चढ़ने लगी थी। वैसे जनता परिवार के विलय की सुगबुगाहट पिछले साल लोकसभा चुनाव के बाद से ही शुरू हो गई थी जब नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी को चुनाव में प्रचंड जीत मिली थी। बिहार में जेडीयू और आरजेडी तथा उत्तर प्रदेश में एसपी और हरियाणा में आईएनएलडी को करारी पराजय का सामना करना पड़ा था।
जनता परिवार के इन छह दलों का कम या ज्यादा असर पांच राज्यों तक ही है। बिहार और उत्तर प्रदेश में ये अभी सत्ता में हैं। लोकसभा में 15 और राज्यसभा में इनके 30 सांसद हैं। इन दलों के पास कुल 424 विधायक हैं। विलय के बाद अब ये तीसरे स्थान पर पहुंच गए हैं। वैसे देशभर में अभी बीजेपी के 1029 विधायक और कांग्रेस के 941 विधायक हैं। लोकसभा में इस समय सपा के पास 5, आरजेडी के 4, जेडीयू के 2, आईएनएलडी के 2 और जेडीएस के 2 सांसद हैं। जनता परिवार के लिए 30 राज्यसभा सदस्य एक बड़ी ताकत हैं। यदि ये राज्यसभा में तृणमूल कांग्रेस के 12, वाम मोर्चे के 11 और बीजद के 7 सदस्यों से हाथ मिला लें तो इनकी संख्या 60 हो जाती है। ऐसे में ये राज्यसभा में कोई भी विधेयक रोकने की स्थिति बना सकते हैं। केंद्रीय राजनीति में इनकी एकजुटता के मायने भी जल्द देखने को मिलेंगे।
राज्यों में इस एकजुटता के समीकरण पर गौर करें तो समाजवादी पार्टी के कुछ नेताओं को लगता है कि आरजेडी और जेडीयू से हाथ मिलाने से उत्तर प्रदेश में उनकी पार्टी सपा को कोई विशेष फायदा नहीं होगा। इस साल के आखिर में बिहार में होने जा रहे विधानसभा चुनाव में बीजेपी को रोकने की बात भी सपा के कुछ नेताओं को नहीं भा रही है। सपा के कई नेता इस बात को लेकर भी फिक्रमंद हैं कि यदि आगे चलकर यह नई पार्टी टूटी तो उन्हें अपनी पहचान वापस पाने में मुश्किलें आएंगी। विलय के विरोधी सपा के नेताओं का कहना है कि दो दशक से ज्यादा लंबे संघर्ष के बाद उनकी पार्टी ने अपनी पहचान बनाई है। जनता परिवार के फिर से टूट के बाद अपनी पहचान फिर से स्थापित करने का खामियाजा इन्हें भुगतना पड़ सकता है।
जनता परिवार के लिए कामयाबी की राह तभी प्रशस्त होगी जब इसमें शामिल क्षत्रप अपनी महत्वाकांक्षाओं और मतभेदों से ऊपर उठेंगे। अभी तो जनता परिवार का भविष्य बिहार के चुनाव परिणामों पर टिका नजर आ रहा है। हालांकि इतना तो जरूर हो गया है कि इनकी एकजुटता से बीजेपी के लिए आगे की राह राज्यों के चुनाव में आसान नहीं रहेगी। बीजेपी के लिए जीत का रथ आगे बढ़ाने में मुश्किलें जरूर आएंगी। जनता परिवार का यह नया दल कितने मजबूत विकल्प के तौर पर उभरेगा और देश की राजनीति को किस तरह प्रभावित करेगा, इस पर सबकी निगाहें टिकी होंगी।