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फिल्म 'हिना' के टाइटल गीत के लिए जब बातचीत चल रही थी, राज कपूर समझाने में लगे थे कि नायिका हिना का इन्ट्रोडक्शन सीन है जिसमें वो अपने बारे में खुद बता रही है, इस सिचुएशन पर गीत चाहिए। रवीन्द्र जैन लिखकर लाये 'मैं हूं खुशरंग हिना, ज़िन्दगानी में कोई रंग नहीं मेरे बिना'। यह सुनकर राज कपूर बहुत खुश हुए और कहा कि बिल्कुल ऐसे ही मुखड़े की उन्हें उम्मीद थी। दरअसल फिल्म 'हिना' 1985 में 'राम तेरी गंगा मैली' की अपार सफलता के बाद राज कपूर का अगला बड़ा प्रोजेक्ट था। लेकिन उनके जीते जी यह फिल्म बनकर रिलीज होने के लिए तैयार नहीं हो सकी। 1988 में राज कपूर के निधन के बाद उनके बेटे रणधीर कपूर ने फिल्म की कमान सम्भाली और इसे पूरी सफलता के साथ अंजाम दिया।
हिंदी फिल्म जगत के शोमैन कहे जाने वाले राज कपूर अगर आज जिंदा होते तो 90 साल के होते। जी हां! 14 दिसंबर 1924 को राज कपूर का जन्म तत्कालीन भारत के पेशावर (जो आज पाकिस्तान में है) में हुआ था। वह हिन्दी सिनेमा का शुरुआती दौर था क्योंकि राज कपूर के जन्म से ठीक 11 साल पहले ही तो सिनेमा का अवतार हुआ था। कोरे कैनवास की तरह उजास भरा और नई संभावनाओं को तलाशता, सपनों के नये रंग जोहता। ऐसे समय में राज कपूर एक अभिनेता, निर्माता और निर्देशक की सम्मिलित छवि को समेटे फिल्मी परदे पर कई रंग भरते हैं। सिनेमा के नए रंग। सुर्ख और गहरे। काले और सफेद। सतरंगी छटा वाले कई-कई रंग। ये रंग दृश्य बनकर, गीत बनकर, थिरकते, नाचते, गुदगुदाते हुए फिल्मी पर्दे में ढलकर सिनेमाघरों में टंग जाते हैं फिल्म बनकर। इन फिल्मों में हम देखते हैं सशक्त अभिनय कौशल, भावप्रवण अभिनय, प्रेम को नए रूप में ढलते, परिपक्व तथा मादक प्रेम कहानियां, भारतीय सिनेमा का नया खाका तैयार होते। हिंदी सिनेमा के इतिहास में राजकपूर एक महान अभिनेता, निर्माता और निर्देशक थे। राजकपूर भारतीय सिनेमा के महानतम शो मैन में एक थे। राज कपूर के बारे में एक खास बात यह भी थी कि वह उस जमाने के मशहूर फिल्म अभिनेता और भारतीय सिनेमा के शुरुआती दिनों की एक महत्वपूर्ण कड़ी पृथ्वीराज कपूर की सबसे बड़ी संतान भी थे।
सत्तर के दशक में राज कपूर की एक फिल्म आई थी 'मेरा नाम जोकर'। यह फिल्म हिन्दी सिनेमा जगत की अनोखी फिल्म थी। इसमें राज कपूर पर एक गीत फिल्माया गया जिसके बोल हैं- जाने कहां गये वो दिन...। वाकई ना तो वो दिन कभी आया और ना ही वो शोमैन (राज कपूर)। हिन्दी फिल्म जगत में दोबारा कोई राज कपूर पैदा नहीं हुआ। आखिर क्यों? यह अपने आप में बड़ा सवाल है। कहते हैं कि हिन्दी सिनेमा में बड़े कीर्तिमान स्थापित करने वाले राज कपूर का फिल्मी करियर एक चांटे के साथ शुरू हुआ था। हुआ यूं कि पेशावर (पाकिस्तान) में जन्मे राजकपूर जब अपने पिता पृथ्वीराज कपूर के साथ मुंबई आकर बसे तो उनके पिता ने उन्हें मंत्र दिया कि राजू नीचे से शुरुआत करोगे तो ऊपर तक जाओगे। पिता की इस बात को गांठ बांधकर राज कपूर ने 17 साल की उम्र में रंजीत मूवीकॉम और बांबे टॉकीज फिल्म प्रोडक्शन कंपनी में स्पॉट ब्वॉय का काम शुरू किया। उस वक्त के नामचीन निर्देशकों में शुमार केदार शर्मा की एक फिल्म में क्लैपर ब्वॉय के रूप में काम करते हुए राज कपूर ने एक बार इतनी जोर से क्लैप किया कि नायक की नकली दाढ़ी क्लैप में फंसकर बाहर आ गई और केदार शर्मा ने गुस्से में आकर राज कपूर को एक जोरदार थप्पड़ जड़ दिया। लेकिन ऊपर वाले की लीला देखिए, आगे चलकर केदार शर्मा ने ही अपनी फिल्म 'नीलकमल' में राजकपूर को बतौर नायक लिया।
राजकपूर ने अपनी पहली फिल्म का निर्माण और निर्देशन महज साल की उम्र में किया था और 25 की आयु में वे सबसे कम उम्र के स्टूडियो मालिक बन 'आवारा' जैसी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सफल फिल्म की रचना कर चुके थे। अपनी पहली फिल्म 'आग' उन्होंने दो लाख रुपये में बनाई थी और 25 हजार का मुनाफा कमाया था। आज उनके पोते रणवीर कपूर को एक फिल्म में अभिनय के लिए 40 करोड़ का मेहनताना दिया जा रहा है। 'आग' के प्रदर्शन के समय एक डॉलर एक रुपए में आता था, आज एक डॉलर के लिए 65 रुपए चुकाने पड़ते हैं। इस तरह के कई किस्से है जो राज कपूर को एक आम आदमी की तस्वीर के रूप में पेश करता है।
राज कपूर ने अपनी पहली कार को बरसों तक सहेज कर रखा था और जब एक दिन उनके उस अटाले को बेच दिया गया तब उनके क्रोध को शांत करना कठिन हो गया था। उन्हें कहा गया कि उस कार का उपयोग वर्षों पहले बंद किया जा चुका है और अब उसके स्पेअर पार्ट्स भी उपलब्ध नहीं हैं। वह कार बेकार में जगह घेर रही थी। राज कपूर ने तमतमाते हुए कहा कि एक दिन मैं भी बूढ़ा और अन-उपयोगी हो जाऊंगा तो क्या अटाले वाले के हाथों मैं भी बेच दिया जाऊंगा। उस फोर्ड कार को राज कपूर ने नौ हजार में रीवा से खरीदा था और रजिस्ट्रेशन नंबर था रीवा 347।
राज कपूर के बारे में एक और दिलचस्प किस्सा है। कहते हैं कि बचपन में राज कपूर सफेद साड़ी पहनी एक स्त्री पर मोहित हो गए थे। उसके बाद से सफेद साड़ी से उनका इतना गहरा लगाव हो गया था कि उनकी तमाम फिल्मों की अभिनेत्रियां चाहे वो नर्गिस हो, पद्मिनी कोल्हापुरे, वैजयंती माला, जीनत अमान हो या फिर मंदाकिनी हो, पर्दे पर भी सफेद साड़ी पहने नजर आईं। यहां तक कि घर में उनकी पत्नी कृष्णा भी हमेशा सफेद साड़ी ही पहना करती थीं।
शोमैन राज कपूर का दुनिया की नजरों से ओझल होना भी अलहदा रहा। दो मई, 1988 को एक पुरस्कार समारोह में उन्हें दिल का दौरा पड़ा। उसके बाद वह एक महीने तक अस्पताल में जिंदगी और मौत के बीच संघर्ष करते रहे। आखिरकार दो जून 1988 को उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया। भारतीय सिनेमा के इतिहास में राज कपूर का योगदान उन तक ही सीमित नहीं रहा, बल्कि उनके बाद परिवार की चार पीढ़ियां लगातार सिनेमा जगत में सक्रिय रही हैं। कपूर परिवार एक ऐसा परिवार है, जिसमें दादा साहेब फाल्के पुरस्कार दो बार आया। सन् 1972 में राज कपूर के पिता पृथ्वीराज कपूर को भी यह सर्वोच्च पुरस्कार मिला था।
राज कपूर की फिल्म आज भी प्रासंगिक है और अनेक युवा निर्देशक उनकी फिल्मों का अध्ययन करते हैं और दर्शक आज भी टेलीविजन पर पुन: प्रसारण में उन्हें देखते हैं और सच तो यह है कि उनकी फिल्मों के सैटेलाइट अधिकार आज भी अपने समकलीन फिल्मकारों की फिल्मों से अधिक दाम में हर पांच वर्ष के लिए बिकते हैं। राज कपूर के जीवन काल में उनकी फिल्मों ने जो कमाई की उससे कहीं अधिक उनकी मृत्यु के बाद कर रही हैं। बात सिर्फ कमाई की नहीं है, आज वे पहले से अधिक प्रशंसित भी हैं।
राजकपूर राष्ट्रीय स्मृति में दर्ज हैं क्योंकि सिनेमा महज मनोरंजन नहीं होकर देश के आवाम की भावनाओं, सपनों और डर का रूपक बन चुका है। यह सदियों से कथावाचकों और श्रोताओं का देश है, इसलिए सिनेमा को यह दर्जा हासिल है जो किसी और देश को नहीं है। राजकपूर अवाम के अवचेतन में मुखड़े की तरह दोहराये जाते हैं। आजाद भारत में आवाम के सपनों और डर को राज कपूर ने सिनेमाई मुहावरा दिया। आम आदमी को नायक बनाकर उन्होंने गणतंत्रीय व्यवस्था की नब्ज पकड़ ली। वे आम आदमी की आशा, निराशा के सामाजिक और राजनैतिक अर्थ को समझते थे और आज के घटनाक्रम में भी राजकपूर की चिंताओं और महत्वाकांक्षा को महसूस कर सकते हैं।
अगर राजकपूर 'आवारा' के क्लाइमैक्स में झोपड़पट्टी के पास बहते नाले में अपराध के कीटाणु की बात करते हैं तो आज भी नाले बह रहे हैं, इस तरह राज कपूर का सिनेमा एक काल खंड से दूसरे कालखंड में छलांग लगाता है। 'श्री 420' में मकान का सपना आज भी पहले की तरह कायम है और 'जागते रहो' का प्यासा नायक मंजिल दर मंजिल भ्रष्टाचार देख रहा है, वह सांस्कृतिक प्यास आज भी कायम है। 'प्रेमरोग' और 'गंगा' की नायिकाओं पर आज भी जुल्म हो रहा है।
'श्री 420' में सेठ सोनाचंद धर्मानंद चुनावी भाषण दे रहे हैं तो नायक मजूबत देश, मजबूत दांत और रोटी तथा भूख की बात करते हुए मंजन बेच रहा है। सोनाचंद का आदमी नायक से पूछता है कि मंजन में हड्डियों का चूरा तो नहीं और फिर धर्म के कोड़े से रोटी और भूख की बात करने वाले की पिटाई हो जाती है। यह आज भी हो रहा है। कहने का मतलब यह कि जब तक भारत में आम आदमी भूख से जूझता रहेगा, राजकपूर का सिनेमा प्रासंगिक रहेगा। जब तक आम आदमी के नाम पर तमाशे होते रहेंगे तब तक राजकपूर का 'जोकर' अवाम के हृद्य में आंसू और मुस्कान की तरह कायम रहेगा।